मुद्दा : सफाई-शौच से परहेज जारी

Last Updated 15 Feb 2019 07:15:57 AM IST

संसद में पेश स्वच्छ भारत पर संसदीय समिति ने चौंकाने वाली रपट दी है। ओडीएफ यानी खुले में शौच से मुक्ति के अभियान लक्ष्य से 56 फीसद पीछे है।


मुद्दा : सफाई-शौच से परहेज जारी

तमाम दावों के बावजूद 39 फीसदी घरों में अभी भी शौचालय नहीं हैं। रिपोर्ट के अनुसार, शहरी निकायों में सिर्फ 1789 ही ओएफडी हैं। सरकार अपनी पीठ खुद ही क्यों ना ठोकती रहे, असल में कुल 44 फीसद लक्ष्य ही पूरा हुआ है। सरकार ने गई 2 अक्टूबर को महात्मा गांधी की अगली जयंती, जो 150वीं है, के उपलक्ष्य में ‘पूरा भारत स्वच्छ होगा’ नारा दिया था।
बता रहे हैं कि 66 लाख से अधिक शहरी घरों में शौचालय बनाने थे, जबकि अभी तक 41 लाख घरों को ही यह सुविधा मिल सकी है। असल दिक्कत है कि जहां शौचालय बने भी नजर आ रहे हैं, वहां पानी की कमी ने उन्हें खुले में जाने को मजबूर किया है। कुछ परिवार, जिन्होंने सरकारी मदद के लोभ में घर के सामने शौचालय बना भी लिया है, उसका इस्तेमाल नहीं के बराबर करते हैं। खबरें तो ऐसी भी रही हैं कि टयलेट सीट दिखावे के नाम पर रखी गई, जिसकी निकासी का कोई प्रबंध ही नहीं था। 5 लाख से अधिक पब्लिक टयलेट सीट बनाने के लक्ष्य में भी अभी 54 फीसद बाकी हैं। जितना काम धरातली स्तर पर हुआ है, प्रचार उसका कई गुना ज्यादा होता है। मोबाइल, कंप्यूटर, टीवी का इस्तेमाल करना झट से सीखने वाले रहवासी शौच के सही तरीकों को अपनाने में अचकाते हैं। ऐसा सिर्फ ग्रामीण या पिछड़े इलाकों में ही नहीं है। शहरी और महानगरीय इलाकों में भी झुग्गियों या स्लमों में यही हाल है। उन्होंने संडास बना भी लिये हैं तो आधे लोग या बच्चे नजदीकी रेलवे लाइनों या नालों-नालियों के किनारे इत्मीनान से फारिग होते रोज देखे जाते हैं।

समिति के अनुसार, 81 हजार से अधिक शहरी वाडरे में से करीब 45 हजार में ही घर-घर से कूड़ा उठाने की व्यवस्था हुई है। 36 हजार वाडरे में निगम की कचरा गाड़ियां नहीं जा रहीं। कहना कतई अतिश्योक्ति नहीं होगा कि साफ-सफाई के प्रति हम घोर लापरवाह हैं। जो थोड़ी सफाई रखते भी हैं, उनमें अपना घर भर साफ रखने की उत्कंठा नजर आती है। वे सारा घरेलू कचरा गली के मुहाने या चौराहे पर फेंकने से बाज नहीं आते। सार्वजनिक स्थलों पर हम रोज लोगों को अपने पीछे कूड़ा या खाने का बचा-खुचा सामान छोड़कर जाते देखते हैं। मेले-ठेलों, पूजा स्थलों, सम्मेलनों  और रैलियों के बाद चारों तरफ पानी की प्लास्टिक की खाली बोतलों, चिप्स और नमकीन के पैकटों को इधर-उधर पड़ा पाते हैं। पान और तंबाकू खाकर पीक मारने में तो हम किसी से कम ही नहीं हैं। किसी भी साफ-सफेद दीवार को दो-चार हफ्तों में ही मिल-जुलकर लाल पीक से रंगने में स्थानीय लोग महारथी साबित होते हैं। देश की राजधानी में सबसे ज्यादा कचरा पैदा होता है। फिक्की के सव्रे के अनुसार, 6,800 टन ठोस कचरा यहां हर दिन पैदा होता है। दूसरे नम्बर पर मुंबई है, जहां 6,500 टन कचरा पैदा है। सूखा कचरा-गीला कचरा का प्रचार दनादन हो रहा है, जबकि कचरा प्रबंधन के मामले में हम फिसड्डी हैं। सरकारों ने कभी कचरे को लेकर गंभीरता से विचार ही नहीं किया। दिल्ली में बने कचरे के पहाड़ों पर सबसे बड़ी अदालत के सख्त आदेशों के बावजूद कोई नतीजा नहीं निकला है। इन दिनों कुछ शहरों में स्वच्छता को लेकर पोस्टर नजर आने शुरू हो गए हैं। स्कूलों में पहले ही स्लोगन लिखे रहा करते थे। दीवारों पर जहां सफाई की हिदायत दी गई होती है, लोग वहां जरूर कचरा फेंकते हैं। सरकार प्रति वर्ष स्वच्छता को लेकर सव्रेक्षण करती है।
बीते साल रैंकिग में इंदौर (मप्र) ने शीर्ष पर आ कर सबको चौंका दिया। भोपाल दूसरे स्थान पर रहा। बताते हैं, इंदौर में योजनाबद्ध तरीके से सफाई की गई। रिहाइशी इलाकों से प्रति दिन कचरा एकत्र करने को सफाईकर्मी लगाए गए। सोचनीय है कि इंदौर में लागू फार्मूले को सारे देश में क्यों नहीं लागू किया जाता। अपने यहां सरकारी मशीनरी की समझ इतनी भोथरी है कि वह किसी भी अच्छे काम, तरीके, नियम या व्यवस्था को अपनाने में हिचकिचाती है। रही सही कसर जनता-जनार्दन पूरी कर देती है। गांव-देहात में कचरा उठाने वाले प्राय: गायब ही रहते हैं। शहरी इलाकों में जहां सड़कों के किनारे, फुटपाथ को घेर कर कूड़ाघर बनाए भी गए हैं, वहां दूर सड़क तक सारा दिन कचरा बिखरा नजर आता है। गाय, बछड़े, लावारिस फिरने वाले सांड़ पौलीथिनों में पैक कूड़े को खाने के लोभ में खींच-खींच कर चारों तरफ फैला देते हैं। नतीजतन, इर्द-गिर्द का इलाका भीषण बदबू से भरा रहता है। शौचालय से लेकर सफाई तक, जब तक हमारी प्राथमिकता में नहीं शामिल होते, सरकारी प्रयास और प्रचार असफल ही रहेंगे।

मनीषा


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