16वीं लोक सभा : चुनावी मंच जैसा रहा सफर

Last Updated 14 Feb 2019 06:01:19 AM IST

संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था में संसद मुख्य होती है, और 16वीं लोक सभा ने 13 फरवरी, 2019 को बजट सत्र के आखिरी दिन अपना पांच साल का कार्यकाल भी पूरा कर लिया।


16वीं लोक सभा : चुनावी मंच जैसा रहा सफर

और इसी के साथ उम्मीद की जानी चाहिए कि राजनीतिक पार्टयिां चुनाव मैदान की तरफ बढ़ जाएंगी। 
16वीं लोक सभा का अनुभव संसदीय इतिहास में पिछली तमाम लोक सभाओं से जिन मायनों में भिन्न है। लोक सभा को विचार विमर्श और चर्चा की मुख्य जगह माना जाता है, लेकिन इस लोक सभा के अनुभवों के लिए चंद सवालों पर गौर किया जा सकता है। क्या इस लोक सभा में किसी विषय पर कोई ऐसी चर्चा हुई, जिसके लिए उसे भविष्य में संसदीय परिपाटी का हिस्सा बनाया जा सके। चर्चा का स्तर क्रमश: बेहतरी की तरफ तब बढ़ता है, जब इसे महत्त्व देता है, और विपक्ष में वह काबिलियत हो कि चर्चा की परिपाटी को अनिवार्य मान लेने के लिए बाध्य करता हो। 16वीं लोक सभा सत्ताधारी दल के बहुमत के दबदबा और विपक्ष की नामौजूदगी का  नायाब उदाहरण है। 16वीं लोक सभा पिछली तमाम लोक सभाओं से इस मायने में अलग थी।  1984 के बाद यानी राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के प्रचंड बहुमत के बाद इस दफा पहली बार किसी दल को बहुमत मिला था। संसदीय लोकतंत्र में किसी एक पार्टी के बहुमत के बाद दूसरी पार्टी के बहुमत का क्रम लगभग तीस सालों तक पूरी तरह से टूटा हुआ था। भाजपा को अपने संसदीय राजनीतिक जीवन में पहली बार लोक सभा में बहुमत मिला और दूसरी तरफ विपक्ष का दरजा हासिल करने लायक किसी पार्टी के पास सदस्यों की संख्या नहीं थी। सत्ताधारी दल के नेता नरेन्द्र मोदी पहली बार लोक सभा में आए। उन्होंने संसद के भीतर इसे एक हिंदू मंदिर की तरह मान लेने के भाव से प्रवेश किया। मत्था टेका। मगर संसदीय लोकतंत्र का अर्थ लोक सभा ही नहीं होती। राज्य सभा भी होती है।

यही नहीं, संस्थाओं के विभिन्न स्तरों से पूरा संसदीय लोकतंत्र आकार ग्रहण करता है। बहुमत का मतलब मतदाताओं द्वारा किसी दल के पक्ष में दिया जाने वाला मतों की संख्या माना जाता है। बहुमत पार्टयिों के बीच बंटे मतों में सबसे ज्यादा जरूर हो सकता है, किंतु उसके विपक्ष में पड़े मतों से कई गुना कम भी हो सकता है। इसीलिए संसदीय लोकतंत्र में बहुमत का पैमाना महज मतदान के दौरान प्रतिद्वंद्वी पार्टयिों के बीच सबसे ज्यादा मत हासिल होने से नहीं लगाया जा सकता। संसदीय लोकतंत्र के लिए बहुमत का अर्थ इसीलिए मतदान और चुने गए सदस्यों की संख्या के साथ तमाम पार्टयिों के बीच समन्वय, सम्मान और समझ की संस्कृति के रूप में परिभाषित होता है। लोक सभा में बहुमत संसदीय संस्कृति के विपरीत जब अपना दंभ भरने लगता है, तो लोकतंत्र का हिस्सा नहीं रह पाता और उसे जनमानस तानाशाही की प्रवृत्तियों के रूप में चिह्नित करता है। लोक सभा में सत्ताधारी दलों ने अपनी परिपाटी स्थापित करने की कोशिश की तो वह राज्य सभा में स्थापित नहीं हो सकी। जब संख्या द्वारा परिभाषित बहुमत की प्रवृत्ति ऊपर से नीचे तक पहुंच जाती है, और यह प्रवृत्ति राजनीति में पांव फैलाती है तो वह बहुसंख्यकवाद का हिस्सा हो जाती है, और फिर बहुसंख्यकवाद की तरफ पूरी राजनीतिक प्रक्रिया की तरफ जाने के लिए बाध्य कर देती है। लोक सभा यदि हर दिन चुनावी मंच होने का अहसास कराने लगती है, तो कई तरह के प्रहसन और मसखरेपन की संस्कृति की तरफ बढ़ने के लिए अभिशप्त है। संसद सदस्य नाचने लगें, गाने-बजाने लगें, टेलीविजन के स्क्रीन को अपने अभिनय के मानदंड के रूप में स्वीकार कर लें तो वह संसद होने का अहसास कतई नहीं करा सकती। वैसे तो संसदीय राजनीति की विडंबना हो गई है कि सत्ता का नेतृत्व करने वाला अपने पिछले नेतृत्व से बेहतर कहे जाने को मतदाताओं और  पर्यवेक्षकों को बाध्य कर देता है। लोक सभा में भी यही दिखता है। संसदीय लोकतंत्र में यह एक भरोसा जरूरी माना जाता है कि संस्थानों का नेतृत्व लोगों के सामने संस्थान के उद्देश्यों के अनुरूप होने का अहसास पैदा करे। संस्थान से बेहतर सांस्कृतिक प्रतिनिधि होने की उम्मीद इसीलिए  की जाती है कि वह पूर्वाग्रहों के पिछले अनुभवों को दुरूस्त कर सकें और एक परंपरा के स्वस्थ और उम्र लंबी होने की आशा बंधी रहे।
प्रत्येक लोक सभा के लिए अनिवार्य होना चाहिए कि कुछ बिंदुओं पर शोध की व्यवस्था करे। मसलन, सदन के भीतर  टीवी स्क्रीन की व्यवस्था कराने का क्या प्रभाव दिखता है। सदस्यों में पढ़ने-लिखने की संस्कृति का स्तर किस रूप में विकसित हुआ है। सदस्यों के बीच लोक सभा संस्था के अनुरूप आपसी समन्वय व विचार विमर्श की संस्कृति किस दिशा में बढ़ रही है? लोक सभा एक अलग संस्था है। सरकार संसद के प्रति जवाबदेह होती है। लोक सभा का सदस्य अलग अहमियत रखता है। राजनीतिक पार्टयिां कई हो सकती हैं, लेकिन लोक सभा एक ही है। लोक सभा परिसर में सैन्य प्रवृत्तियों का जिस भी रूप में विकास हुआ है, उसके क्या कारण हैं? नौकरशाही की प्रवृत्तियां क्या अपना प्रभाव डाल रही हैं? भारत में संसदीय लोकतंत्र को ब्रिटेन से लिया गया, परंतु उसे अपने अनुरूप विकसित करना है, इसकी कोई रूपरेखा या दिशा नहीं दिखती। केवल यह दिखता है कि ब्रिटिश संसदीय परिपाटी को अपने तत्कालीन हितों के अनुरूप जितना इस्तेमाल किया जा सके उस हद तक तो उसे स्वस्थ परंपरा मानें और जब अपने हितों के साथ उसका टकराव हो तो उसे रास्ते से हटाने की हर संभव कोशिश होती है। इसीलिए लोक सभा में संसदीय लोकतंत्र के लिए ऐसी शोध संस्कृति का कोई चिह्न दिखाई नहीं देता। विविद्यालयों में नौकरियों के लिए जैसी विकृतियां सक्रिय हैं, वैसी विकृतियों का शिकार लोक सभा भी है।
लोक सभा की पत्रकार दीर्घा में एक सदस्य ने एक किस्सा सुनाया। यह कि सत्ता  के नेतृत्व ने अपने मीडिया सलाहकार को कहा कि लोग मीडिया में जो देखते-पढ़ते हैं, उस पर चर्चा करते हैं, विज्ञापनों पर नहीं। इसीलिए मीडिया का इस तरह से मैनेजमेंट होना चाहिए कि जो कहा जा रहा है, उसे पर्याप्त जगह दें। इस किस्से को लोक सभा की भाषा के आलोक में देखें तो पता चलता है कि लोक सभा ने अपने कार्यकाल में किस तरह की भाषा विकसित की है। भाषा का जनतांत्रिकरण करने की सुविचारित योजना होती है, लेकिन भाषा की विकृतियां पैदा करना आदत का रूप ग्रहण कर लेती है तो लोगों में सांस्कृतिक विपन्नता विकसित करने का वह बड़ा कारण बनती है। भाषा और 16वीं लोक सभा के पहलू से भी एक शोध जरूरी लगता है।

अनिल चमड़िया


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment