गोडावण : विलुप्त होने के कगार पर
बढ़ती जनसंख्या के कारण वनोन्मूलन की प्रक्रिया तेज होने से परिंदों की कई प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं और कई पक्षी ऐसे हैं, जिनकी संख्या लगातार कम हो रही है।
![]() गोडावण : विलुप्त होने के कगार पर |
संरक्षण के लिए मोहताज इन पक्षियों की विलुप्त होती प्रजातियों में राजस्थान का राज्य पक्षी गोडावण अग्रणी रूप से शामिल है। अर्ध-मरुस्थलीय शुष्क जलवायु वाले प्रदेशों में मिलने वाला यह पक्षी भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 की अनुसूची 1 में रखा गया है। भारत सरकार के बहुप्रचारित ‘प्रजाति रिकवरी कार्यक्रम’ में चयनित 17 प्रजातियों में गोडावण भी है। इंटरनेशनल यूनियन ऑफ कंजर्वेशन ऑफ नेचर की संकटग्रस्त प्रजातियों पर प्रकाशित होने वाली रेड डाटा बुक में इसे ‘गंभीर रूप से संकटग्रस्त’ श्रेणी में रखा गया है।
गौरतलब है कि गोडावण को राजस्थान के राज्य पक्षी के रूप में 21 मई 1981 को दर्जा मिला था। इसे अंग्रेजी में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (जीआईबी) कहा जाता है। पांच-छह दशक पहले देश भर में गोडावण की संख्या 1000 से अधिक थी। एक अध्ययन के अनुसार 1978 में यह 745 थी, जो 2001 में कम होकर 600 व 2008 में 300 रह गई। अब ज्यादा-से-ज्यादा 150 गोडावण बचे हैं, जिनमें 122 राजस्थान में और 28 पड़ोसी राज्य गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में हैं। इसमें भी गोडावण अंडे अब केवल जैसलमेर में देते हैं। इसका अस्तित्व अब जैसलमेर जिले में विभिन्न देवताओं के मंदिरों के ओरण क्षेत्र में ही बचा है। जैसलमेर और बाड़मेर जिले के करीब 3962 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले राष्ट्रीय मरु उद्यान में पिछले डेढ़ दशक से गोडावण की संख्या में निरंतर कमी हो रही है। पलायन के चलते उद्यान परिसर के सम, सुदाश्री, सोकलिया, फूलिया, म्याजलार, खुड़ी और सत्तो आदि क्षेत्र में 20 प्रतिशत से भी कम गोडावण बचे हैं।
हालांकि, गोडावण के संरक्षण के लिए कठोर कानून प्रचलन में है। इसका शिकार करने वालों को 10 वर्ष की सजा एवं 25 हजार रुपये का जुर्माना भुगतना पड़ सकता है। इसके बावजूद इसका शिकार किया जा रहा है। गोडावण की संख्या में लगातार होने वाली गिरावट के पीछे कई कारक जिम्मेदार हैं। इसके लिए सेवण घास अनुकूल होती है, लेकिन पिछले कुछ वर्षो में सेवण घास के चरागाह में कमी आई है और हरे घास के मैदान सिमटने की वजह से इनके आवास स्थल खत्म हुए हैं। गोडवण का मांस खाने में लजीज व गरम होने के कारण इनके शिकार के लिए शिकारी भटकते रहते हैं। वहीं खनन, पेस्टीसाइड का इस्तेमाल, इनके आवास स्थल पर अतिक्रमण व कतिपय लोगों द्वारा मनोरंजन के लिए इनके शिकार करने के चलते इनकी संख्या कम हुई है। शिकारियों के अलावा इस पक्षी को सबसे बड़ा खतरा विशेष रूप से राजस्थान के सीमावर्ती इलाकों में लगी विंड मिल के पंखों और वहां से गुजरने वाली हाइटेंशन तारों से है। दरअसल, गोडावण की शारीरिक रचना इस तरह की होती है कि वह सीधा सामने नहीं देख पाता। शरीर भारी होने के कारण वह ज्यादा ऊंची उड़ान भी नहीं भर सकता। ऐसे में बिजली की तारें उसके लिए खतरनाक साबित हो रही हैं।
राज्य सरकार भले गोडावण के संरक्षण के दावे करे, मगर हकीकत यह है कि जैसलमेर जिले के वे इलाके जो इन गोडावणों के लिए प्राकृतिक आश्रय स्थल व प्रजनन स्थल हुआ करते थे, वहां पवन ऊर्जा कंपनियों को संयंत्र लगाने के लिए जमीनें आवंटित कर दी गई हैं। इस इलाके में अब पवन ऊर्जा कंपनियों ने बड़ी मात्रा में अपने संयंत्र लगा दिए हैं और लंबी-चौड़ी विद्युत लाइनों का जाल बिछा दिया है, जिसके चलते गोडावण यहां से माईग्रेट होने लगे हैं। अब इस पक्षी को सुरक्षित आश्रय व प्रजनन स्थल नहीं मिल पा रहा है, जो इनकी संख्या में गिरावट का सबसे बड़ा कारण माना जा रहा है। पक्षी प्रेमी हैरान हैं कि कुछ दशक पहले तक जिस गोडावण को राष्ट्रीय पक्षी बनाने की बात हो रही थी उसका अस्तित्व आज संकट में है।
नि:संदेह गोडावण को बचाने का यह अंतिम मौका है। जिस तरह अंडरग्राउण्ड तारों को प्लास्टिक के खोल से सुरक्षित रखने की प्रक्रिया अपनाई जाती है। यही प्रक्रिया जमीन से ऊपर से प्रवाहित बिजली की लाइनों के लिए प्रयुक्त करना चाहिए। र्बड डायवर्टर के साथ रात में चलने वाली पवन चक्कियों के पंखों पर रेडियम की पट्टियों का प्रयोग करने से पक्षी को अपनी उड़ान की राह बदलने में आसानी हो सकती है। सरकार को टाइगर प्रोजेक्ट से आगे भी सोचना चाहिए। जिस प्रकार बाघों को बचाने के लिए केंद्र सरकार ने ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ बनाया, उसी तरह विलुप्त होते जा रहे पक्षियों के लिए भी प्रोजेक्ट बनने चाहिए।
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