सामयिक : समझदार विपक्ष की दरकार

Last Updated 04 Feb 2019 07:18:12 AM IST

भारत की राजनीति सहज सामान्य प्रतिस्पर्धा से बढ़कर अत्यंत डरावनी स्थिति में पहुंच रही है। संसदीय लोकतंत्र में नेताओं से उम्मीद की जाती है कि आपस में प्रतिस्पर्धा करते हुए भी संवेदनशील और परंपराओं के मामले में संयम बरतेंगे।


सामयिक : समझदार विपक्ष की दरकार

यह अनिवार्य मर्यादा रेखा टूट चुकी है। अनेक उदाहरण सामने हैं, जिनसे भय पैदा होता है कि हमारा देश चलेगा कैसे? सीबीआई का मामला उन्हीं में से एक है। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से सीबीआई के पूर्णकालिक निदेशक की शीघ्र नियुक्ति के लिए कहा। मध्य प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक ऋषि कुमार शुक्ला को सीबीआई का नया प्रमुख बनाया गया है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता वाली जिस चयन समिति ने उनके नाम को स्वीकृति दी, उसमें मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई एवं मल्लिकार्जुन खड़गे शामिल थे। कई नामों में से यदि उनके नाम पर मुहर लगी और मुख्य न्यायाधीश ने सहमति दी तो प्रश्न नहीं उठना चाहिए।

आखिर एक समय इसी को लेकर हंगामा किया जा रहा था कि सरकार रंजन गोगोई को मुख्य न्यायाधीश बनाएगी ही नहीं। तो न्यायमूर्ति गोगोई पर उनको विश्वास होना चाहिए। लेकिन खड़गे ने सीबीआई निदेशक के रूप में शुक्ला की नियुक्ति पर दो पृष्ठों वाला असहमति पत्र सौंपा है। वे आरोप लगा रहे हैं कि अधिकारी के पास भ्रष्टाचार विरोधी मामलों की निगरानी करने का अनुभव नहीं है। चयन के मापदंड को नरम किया गया, जो कानून का तो उल्लंघन है ही सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का भी पालन नहीं करना है। क्या सर्वोच्च न्यायालय के फैसले और कानून के बारे में मुख्य न्यायाधीश से ज्यादा जानकारी और चिंता खड़गे को है?

खड़गे के विरोध के कारण ही 24 जनवरी की बैठक में कोई निर्णय नहीं हो सका था।  खड़गे अर्हता की ऐसे व्याख्या कर रहे थे, जिससे प्रधानमंत्री एवं मुख्य न्यायाधीश सहमत नहीं हुए। नियुक्ति के बाद खड़गे अगर प्रश्न उठा रहे हैं तो उसमें मोदी के साथ मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई भी कठघरे में खड़ा हो जाते हैं। जिस व्यक्ति को कांग्रेस ने लोक सभा में अपना नेता बनाया, उसे इतनी भी समझ नहीं कि ऐसे गैर जिम्मेवार अंधविरोध से मुख्य न्यायाधीश तक विवादित हो जाते हैं। राजनीतिक विरोध इस सीमा तक नहीं जानी चाहिए। खड़गे ने यही व्यवहार पिछले 10 जनवरी की बैठक में किया, जिसमें आलोक वर्मा के बारे में विचार किया जाना था।

वर्मा मामले की सुनवाई में होने का तर्क देते हुए मुख्य न्यायाधीश ने बैठक के लिए न्यायमूर्ति एके सिकरी को नियुक्त किया था। प्रधानमंत्री मोदी की अध्यक्षता वाली उच्चाधिकार चयन समिति ने वर्मा को हटाने का फैसला किया। सीवीसी की रिपोर्ट को देखने के बाद न्यायमूर्ति सिकरी उनको हटाने के फैसले से सहमत हुए। खड़गे ने 15 जनवरी को प्रधानमंत्री के नाम एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने वर्मा को निदेशक पद से हटाने के लिए हुई बैठक की जानकारी और केंद्रीय सतर्कता आयोग और सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश एके पटनायक रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की मांग कर दी। ये क्या है?

वर्मा के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर जांच हुई, न्यायालय ने ही इसके लिए न्यायमूर्ति पटनायक को अधिकृत किया और आप उसे सार्वजनिक करने की मांग कर रहे हैं। यदि मामला ज्यादा संवेदनशील प्रकृति का हो तो नेताओं को इतना जिम्मेवार होना चाहिए कि उसके बारे में सार्वजनिक तौर पर बातें न करें। खड़गे इस मान्य सीमा को तोड़ रहे हैं तो यह कांग्रेस की नीति है। सरकार ने अपने द्वारा प्रतिनियुक्त अधिकारियों की समय सीमा घटाकर उनके स्थानांतरण का निर्णय कर लिया है। अंतरिम निदेशक एम. नागेर राव ने भी अपनी सीमाओं में अनेक महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं। यह जरूरी है कि नये निदेशक को राजनीतिक कलह से परे रखकर काम करने दिया जाए।

किंतु कांग्रेस और अन्य कई दलों की भूमिका इसके विपरीत है। सीबीआई नरेन्द्र मोदी सरकार के कार्यकाल का बुरा अध्याय है, जिसने एक भी बहुचर्चित मामले को उसके अंतिम कानूनी परणिति तक पहुंचाने की बात तो दूर उनमें सामान्य प्रगति भी नहीं की। खड़गे का रवैया भी अजीब है। जब वर्मा की नियुक्ति हुई तब उन्होंने उसका विरोध किया। जब उन्हें हटाया गया तो विरोध किया कि एक काबिल अधिकारी को सरकार से टकराने की सजा दी जा रही है। देश को उनका यह व्यवहार ध्यान रखना चाहिए। किंतु यह एक नेता या पार्टी के व्यवहार का मामला नहीं है।

संस्थाओं को अविश्वसनीय बना देने का शर्मनाक कृत्य है। वर्मा की नियुक्ति, पदच्युति, शुक्ला की नियुक्ति में उनका आरोप प्रधानमंत्री के साथ प्रकारांतर से सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर भी लागू होता है। यही भूमिका कुछ एनजीओ, वकीलों सहित एक्टिविस्टों की है। परिणाम देखिए। एम नागेर राव की नियुक्ति को चुनौती देने वाली याचिका से मुख्य न्यायाधीश गोगोई ने यह कहते हुए स्वयं को हटाया कि वे निदेशक की नियुक्ति वाली सीमिति का हिस्सा हैं।

न्यायमूर्ति सीकरी भी वर्मा को हटाए जाने वाली समिति में होने का तर्क देकर अलग हो गए। न्यायमूर्ति एन वी रमण ने कहा कि मैं नागेर राव की बेटी की शादी में शामिल हुआ था, इसलिए सुनवाई का हिस्सा नहीं हो सकता। यह स्थिति कहां तक पहुंचेगी? जब न्यायाधीशों के सामने सुनवाई में छवि बचाने की नौबत आ जाए तो फिर होगा क्या? अयोध्या न्यायपीठ में वकील आरके धवन ने न्यायमूर्ति यूयू ललित पर प्रश्न उठा दिया कि वे 1997 में कल्याण सिंह की तरफ से वकील के रूप में पेश हुए थे।

न्यायमूर्ति ललित ने अपने को पीठ से अलग किया और सुनवाई टल गई। न्यायाधीश बनने के पूर्व कोई वकील के रूप में किस मामले में पेश हुआ या न्यायाधीश बनने के बाद वो किसी नियुक्ति समिति में शामिल हैं या किसी की बेटी की शादी में जाते हैं, इनसे उनकी निष्पक्षता और ईमानदारी को आंकना ऐसी खतरनाक प्रवृत्ति है जो हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी। वकील इतने संगठित और शक्तिशाली हैं कि उनके खिलाफ बोलने-लिखने से लोग बचते हैं। इसी तरह नेताओं के प्रकट चेहरे के पीछे का सच भी सबको पता है। मगर उस पर प्रश्न उठाने को राजनीतिक चरित्र हनन करार दे दिया जाता है। प्रश्न है कि भारत जिस दुष्चक्र में फंसता जा रहा है, उससे निकले कैसे?

अवधेश कुमार


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment