रेल हादसा : कब लगेगा विराम?
रेल बजट का आम बजट में विलय करने का मकसद था भारतीय रेल नेटवर्क को मजबूत करना। लेकिन रिजल्ट कुछ खास नहीं निकला।
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रेलवे की स्थिति पहले ही जैसी है। हादसे रुके नहीं, बल्कि लगातार बढ़ते जा रहे हैं। एक और बड़ा रेल हादसा हो गया। शनिवार को रात के समय सीमांचल एक्सप्रेस ट्रेन के 11 डिब्बे सहदेई बुजुर्ग रेलवे स्टेशन के समीप पटरी से उतर गए। हादसे में कई लोगों के मरने की खबर है। दर्जनों घायल भी हुए हैं।
भारतीय रेल नेटवर्क आवाम की जीवनदायिनी मानी जाती है। रोजाना करोड़ों की संख्या यात्री सफर करते हैं। रेलगाड़ी प्रत्येक नागरिक के जीवन से सीधा वास्ता रखती है। लेकिन बजट के खात्मे के बाद ऐसा प्रतीत होता कि रेलवे विभाग बेसहारा हो गया है। रेलवे की दुदर्शा को दुरुस्त करने के लिए अलग बजट की फिर से जरूरत महसूस होने लगी है। सीमांचल एक्सप्रेस का हादसे का शिकार होना इसी बात का परिचायक है कि रेलतंत्र पूरी तरह से बेगाना हो गया है। पिछले दिनों केंद्र की मोदी सरकार ने अपना आखिरी बजट पेश किया, जिसमें रेल विभाग को भी अन्य विभाग की भांति तवज्जो दी गई। लेकिन जरूरत कमजोर रेल महकमे को दुरुस्त करने की है। हादसे में ट्रेन के 11 डिब्बे पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गए।
इस हादसे का जिम्मेदार किसे कहा जाए, सरकार को या प्रशासन को? लेकिन मरने वाले परिजनों की चीखें कौन सुनेगा? रेल हादसे में मारे गए लोगों के परिजनों को बिहार सरकार और रेल मंत्रालय दोनों मुआवजा देने की घोषणा की है। लेकिन मुआवजे का यह मरहम हादसों को रोकने का विकल्प नहीं हो सकता। ऐसे हादसों की भरपाई के लिए मुआवजों का खेल खेलकर सरकार अपना पल्ला झाड़ लेती है। लेकिन असल सच्चाई से पर्दा नहीं उठाया जाता। सवाल यह है कि हादसों को रोकने के मुकम्मल इंतजाम क्यों नहीं किए जाते? पिछले कुछ सालों से ऐसे हादसे लगातार हो रहे हैं। लेकिन हादसों के बाद मुआवजा देकर सब शांत कर दिया जाता है। सीमांचल एक्सप्रेस रेल हादसे में भी यही किया जा रहा है। मरने वालों को मुआवजा देकर जिंदगी फिर उसी मोड़ पर चलने के छोड़ दी गई।
चुनाव नजदीक है इसलिए मुआवजा का खेल तो खेलना ही होगा। मुआवजे की जगह हादसों को रोकने के विकल्पों पर विचार करने की दरकार है। सरकारों की यह धारणा गलत है कि हादसों की भरपाई मुआवजे से पूरी हो जाएगी। रेलवे भारत का बहुत बड़ा आवागमन का साधन हैं। हर आम लोगों की जीवन का हिस्सा है। फिर इसके प्रति लापरवाही करना सोचनीय विषय है। गौरतलब है कि रेल हादसों का हमारे पास पुराना है। साल दर साल हादसे होते ही जा रहे हैं। पिछले साल अक्टूबर में कटक के पास ट्रेन दुर्घटना में 2 लोगों की मौत हुई, 37 लोग घायल। 13 फरवरी 2015 को बेंगलुरू से एर्नाकुलम जा रही एक एक्सप्रेस ट्रेन की आठ बोगियां होसुर के समीप पटरी से उतर गईं। इसमें दस लोगों की मौत हो गई और 150 यात्री घायल हो गए थे। 25 मई 2015 को राउरकेला से जम्मू-तवी जा रही मुरी एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हो गई है। 26 मई 2014 को यूपी के संतकबीर नगर में गोरखधाम एक्सप्रेस ने एक मालगाड़ी को उसी ट्रैक पर टक्कर मार दी। हादसे में कम-से-कम 22 लोगों की मौत। 4 मई 2014 को महाराष्ट्र के रायगढ़ में कोंकण रूट पर एक सवारी गाड़ी का इंजन और छह डिब्बे पटरी से उतर गए। हादसे में कम से कम 18 लोगों की मौत हो गई।
यह सिलसिला रूका नहीं, बल्कि बदस्तूर जारी है। वहीं 17 फरवरी 2014 को नासिक के घोटी में मंगला एक्सप्रेस के 10 डिब्बे पटरी से उतरे। तीन यात्रियों की मौत और 37 घायल हुए। इतने लोगों का बार-बार मारा जाना रेल प्रशासन पर सवालिया निशान खड़ा कर रहा है। सरकार द्वारा दिया मुआवजा कुछ दिनों तो मरहम का काम करता है लेकिन स्थाई समाधान नहीं। इस विषय को लेकर सरकार जनता के हित में बड़े कदम उठाने की जरुरत है। लगातार हो रहे हादसों से ऐसा प्रतीत होता है कि भारत में रेलवे का विशाल रेल तंत्र किसी अभिशाप की तरह चिपक गया है। जो समय-समय पर अपना कहर बरपाती है। हादसों को रोकने के लिए भारतीय रेल महकमे के पास कोई कारगर इंतजाम नहीं हैं। हादसों के बाद जो सतर्कता सरकार दिखाती है अगर वह सब हादसों को रोकने के लिए करे तो यह दिन न देखने को मिले। हादसों के बाद सरकार व स्थानीय पुलिस-प्रशासन का बचाव कार्य सराहनीय होता है। लेकिन बेमौत लोगों के मरने के बाद इन सब बातों का कोई फायदा नहीं? हादसों को रोकने के लिए कारगर नीति पर फोकस करना अति आवश्यक है।
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