महागठबंधन : देशहित या सिर्फ स्वार्थ !

Last Updated 25 Jan 2019 04:25:29 AM IST

मंजिल दूर है, डगर कठिन है, लेकिन दिल मिले ना मिले हाथ मिलाते चलिए। कोलकाता में विपक्षी एकता के शक्ति प्रदशर्न के लिए आयोजित ममता की यूनाइटेड इंडिया रैली में कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे का यह एक वाक्य ‘विपक्ष की एकता’ और उसकी मजबूरी दोनों का ही बखान करने के लिए काफी है।


महागठबंधन : देशहित या सिर्फ स्वार्थ !

अपनी मजबूरी के चलते ये सभी दाल इस बात को भी नजरअंदाज करने के लिए मजबूर हैं कि ये सभी नेता जो आज एक होने का दावा कर रहे हैं, वह सभी कल तक केवल बीजेपी नहीं एक दूसरे के भी ‘विपक्षी’ थे।
सच तो यह है कि कल तक ये सब एक-दूसरे के विरोध में खड़े थे इसीलिए आज इनका अलग आस्तित्व है क्योंकि सोचने वाली बात यह है कि अगर ये वाकई में एक ही होते तो आज इनका अलग-अलग वजूद नहीं होता। दरअसल, कल तक इनका लालच इन्हें एक-दूसरे के विपक्ष में खड़ा होने के लिए बाध्य कर रहा था। आज इनका स्वार्थ इन्हें एक-दूसरे के साथ खड़े होने के लिए विवश कर रहे हैं; क्योंकि इनमें से अधिकांश भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हैं। इसलिए ये सभी केंद्र में कैसी और कौन सी सरकार चाहते हैं, यह समझा जा सकता है। क्या ये नेता जनता को इतना मूर्ख समझते हैं कि वह समझ नहीं पाएगी कि असल में लोकतंत्र और संविधान नहीं बल्कि खुद इनका आस्तित्व खतरे में है?

दरअसल, राजनीति में जो दिखता है या जो दिखाया जाता है उससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण वह होता है, जो दिखता नहीं है या दिखाया नहीं जाता। जैसे, ममता ने इस रैली के बहाने जो शक्ति प्रदर्शन किया है वह ‘कथित बाहरी विपक्ष’ यानी भाजपा के लिए नहीं बल्कि ‘अंदरूनी विपक्ष’ यानी प्रधानमंत्री पद के अन्य दावेदारों के लिए था। मोदी तो बहाना था। असली मकसद तो मायावती को अपनी ताकत दिखाना था। उन्हें उस खुमारी से जगाना था, जो उन्हें यूपी में सपा के साथ गठबंधन करके होने लगी थी।
बसपा-सपा गठबंधन के बाद भाजपा और मोदी की नींद कितनी उड़ी यह कहना तो मुश्किल है मगर ममता की इस रैली से मायावती की नींद अवश्य उड़ गई होगी। विभिन्न क्षेत्रीय दल विपक्षी एकता के जितने दावे करें, वह खुद भी अपने इस दावे के खोखलेपन को जानते हैं क्योंकि वह जानते हैं कि कांग्रेस को अपने साथ मिलाए बिना विपक्षी एकता की बात बेमानी होगी, मगर कांग्रेस को अपने साथ मिलाकर एकता की बात करना बेवकूफी ही नहीं आत्मघाती भी होगी। इस बात को यूपी में बुआ-बबुआ ने अपने गठबंधन से कांग्रेस को बाहर रख कर सिद्ध कर दिया है और अन्य राज्यों के क्षेत्रीय दलों को भी दिशा दिखा दी है।
ममता की इस रैली में 23 विपक्षी दलों के नेताओं की मौजूदगी उतनी अहम नहीं है, जितनी कुछ नेताओं की गैरमौजूदगी। इनमें सोनिया गांधी, राहुल गांधी, मायावती, सीताराम येचुरी, चंद्रशेखर राव, जगनमोहन रेड्डी और नवीन पटनायक हैं। यहां यह  याद करना भी जरूरी है कि कुछ समय पहले जब सोनिया गांधी ने बीजेपी के खिलाफ गठबंधन करने की कोशिश की थी, तब भी कुछ नाम गैरहाजिर थे, माया-ममता और अखिलेश। लेकिन याद कीजिए, कुछ समय पहले ही कर्नाटक में कुमार स्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में जब मंच पर एक साथ मौजूद सोनिया, माया और ममता की एक दूसरे को गले लगाती उन तस्वीरों ने काफी सुर्खियां बटोरी थीं।
तो अब सबसे अहम सवाल यह है कि वह विपक्ष जिसकी कथित एकता की तस्वीरों में ही चेहरों का स्थायित्व नहीं है, वह देश को अपनी एकता का संदेश और स्थायित्व देने में कितना सफल हो पाएगा? जब ममता उस मंच से यह कहती हैं कि हमारे यहां हर कोई लीडर है तो क्या उनके पास कांग्रेस का कोई इलाज है? लेकिन इन राजनैतिक सवाल-जवाब से परे जब देश का आम आदमी इन विपक्षी दलों को अपने अपने मतभेदों को भुलाकर ‘देशहित’ में एक होते हुए देख रहा है तो सोच रहा है कि क्या इन राजनैतिक दलों का हित चुनाव जीत कर सत्ता हासिल करने तक ही सीमित है? जिस आम आदमी की दुहाई देकर ये दल आज महागठबंधन बनाने की बात कर रहे हैं, क्या इन्होंने कभी इसका ध्यान रखा है,जब उसे वाकई में जरूरत थी? क्या देश के किसी हिस्से में भूकंप, बाढ़, सूखा या फिर अन्य किसी प्राकृतिक आपदा में इस प्रकार की एकता दिखा कर उसकी मदद के लिए इकट्ठे हुए हैं? क्या ऐसे मौकों पर खुद आगे बढ़ कर देश हित में देश सेवा की है? इन सभी क्षेत्रीय दलों के देश हित की दास्तान तो खुद इनके प्रदेश बयां कर रहे हैं, जहां सालों ये सत्ता में थे या हैं। पश्चिम बंगाल हो, बिहार हो या उत्तर प्रदेश; जनता सब जानती है।

डॉ. नीलम महेंद्र


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