सीबीआई विवाद : आखिर करते भी क्या

Last Updated 14 Jan 2019 02:22:21 AM IST

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में उच्चस्तरीय चयन समिति द्वारा आलोक वर्मा को सीबीआई निदेशक पद से हटाने के बाद आ रही प्रतिक्रियाएं अनपेक्षित नहीं हैं।


सीबीआई विवाद : आखिर करते भी क्या

तीन सदस्यों की समिति में कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे इसके पक्ष में नहीं थे। उनका कहना था कि वर्मा को भी चयन समिति के सामने पक्ष रखने का मौका मिलना चाहिए। इस समिति में प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश एवं विपक्ष के नेता होते हैं। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने यह कहते हुए अपने को समिति से अलग रखा कि मैंने ही फैसला दिया है और अपने प्रतिनिधि के रूप में न्यायमूर्ति सिकरी को भेजा। अगर न्यायमूर्ति सिकरी भी प्रधानमंत्री से सहमत थे तो मानना चाहिए कि वर्मा पर आरोप गंभीर हैं और जो कुछ जांच में आया है, उससे संदेह पुख्ता हुआ है।
न्यायमूर्ति सीकरी ने कहा कि वर्मा के खिलाफ जांच की जरूरत है। चयन समिति के वक्तव्य के अनुसार भ्रष्टाचार और अपने कर्त्तव्यों की उपेक्षा करने के आरोप में वर्मा को हटाया गया। कांग्रेस या विरोधी नेता जो भी कहें, लेकिन कोई सरकार होती तो फैसला यही होता।  वस्तुत: सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की अतिवादी एकपक्षीय व्याख्या की गई। न्यायालय ने वर्मा को बहाल अवश्य किया, मगर स्पष्ट कर दिया कि जब तक उच्चस्तरीय समिति उनके बारे में फैसला नहीं करती, वे नीतिगत निर्णय नहीं करेंगे साथ ही नई पहल भी नहीं करेंगे। चूंकि न्यायालय ने सरकार द्वारा तात्कालिक रूप से नियुक्त एल नागेर राव को भी कार्यकारी प्रमुख पद से हटाने का फैसला दे दिया था, इसलिए माना गया कि केंद्र सरकार के सारे निर्णय को ही गलत माना गया है। न्यायालय ने ऐसा कहा ही नहीं था। न्यायालय का कहना केवल इतना था कि किसी भी परिस्थिति में निदेशक को हटाने या नियुक्त करने की जो मान्य प्रक्रिया है उनका पालन किया जाना चाहिए।

जो स्थिति सीबीआई के अंदर पैदा हो गई थी, उसमें सरकार ने सीवीसी की सिफारिश पर यह कहते हुए आपस में लड़ रहे निदेशक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना को छुट्टी पर भेज दिया था कि इनके बने रहते निष्पक्ष जांच संभव नहीं होगी। निस्संदेह, सरकार को पहले ही हस्तक्षेप करना चाहिए था। जब स्थिति विकट हो गई तब उसने कदम उठाया। वर्मा के पक्ष में फली एस. नरीमन, कपिल सिब्बल, दुष्यंत दवे और राजीव धवन जैसे वकील तो थे ही कॉमन कॉज की याचिका लेकर प्रशांत भूषण भी थे। तो यह नहीं कहा जा सकता कि सर्वोच्च न्यायालय में इनका पक्ष ठीक से नहीं रखा गया। बावजूद न्यायालय ने यही कहा कि नियुक्ति, पद से हटाने और तबादले को लेकर नियम स्पष्ट हैं, जिनका पालन होना चाहिए। जब सर्वोच्च न्यायालय ने सब कुछ समिति पर छोड़ दिया था और इसमें बहुमत से फैसला हुआ है तो इस पर उठाए जा रहे प्रश्नों को राजनीति के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता है। ध्यान रखिए कि फरवरी 2017 में आलोक वर्मा को सीबीआई का निदेशक बनाने का भी खड़गे ने विरोध किया और अब हटाने का। इसके बाद आप खुद फैसला करिए कि इस भूमिका को कैसे देखा जाए?
वर्मा ने अपने इस्तीफे में जो भी कहा हो, सच यह है कि सीबीआई निदेशक पद पर बहाली को उन्होंने पूर्व के समान स्वयं को पूर्ण अधिकार प्राप्त निदेशक के रूप में लिया एवं उसी अनुसार फैसला करना आरंभ किया। दूसरे दिन ही वर्मा ने जांच एजेंसी के पांच बड़े अधिकारियों का स्थानांतरण कर दिया। वर्मा ने कुछ और निर्णय कर दिए। उन्होंने एसपी मोहित गुप्ता को राकेश अस्थाना के खिलाफ लगे आरोपों की जांच का जिम्मा सौंपा। इसके अलावा अनीश प्रसाद को मुख्यालय में डिप्टी डायरेक्टर (एडमिनिस्ट्रेशन) बनाए रखने और केआर चौरसिया को स्पेशल यूनिट-1 (सर्विलांस) की जिम्मेदारी सौंपी गई। ऐसा लगा जैसे वे इस बीच हुए सारे निर्णयों को पलटकर उस स्थिति में लाना चाहते हैं, जहां से वे छोड़कर गए थे। वर्मा भूल गए कि सर्वोच्च न्यायालय ने नागेर राव को भी केवल रूटीन का काम देखने को कहा था किंतु बाद में उनके फैसले को सीलबंद लिफाफे में मांगकर देखा और कोई विरोधी टिप्पणी नहीं की। इसका अर्थ हुआ कि न्यायालय ने राव के निर्णयों को गलत नहीं माना था।
वर्मा को हटाने के निर्णय पर तूफान खड़ा करने की कोशिश में लगे लोगों को यह ध्यान रखना चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय ने सीवीसी की जांच की निगरानी के लिए सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश ए के पटनायक को नियुक्त किया था। उनकी देखरेख में हुई जांच में वर्मा के आचरण को संदेह के घेरे में माना गया है। उसमें अपराध संहिता के तहत मामले चलाने की संभावना तक व्यक्त की गई है। सीवीसी की रिपोर्ट में वर्मा पर आठ आरोप लगाए गए। सीवीसी ने कहा है कि मांस कारोबारी मोइन कुरैशी के मामले की जांच कर रही सीबीआई टीम हैदराबाद के कारोबारी सतीश बाबू सना को आरोपी बनाना चाहती थी लेकिन वर्मा ने मंजूरी नहीं दी। सीवीसी रिपोर्ट में रॉ द्वारा फोन पर पकड़ी गई बातचीत का भी जिक्र है। सना अस्थाना के खिलाफ दर्ज मामले में भी शिकायतकर्ता है। उसने बिचौलियों को दी गई रित के बारे में जानकारी दी थी। उसने रॉ के दूसरे शीर्ष अधिकारी सामंत गोयल के नाम पर भी जिक्र किया जिन पर बिचौलिये मनोज प्रसाद को बचाने का आरोप अस्थाना के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी में है।
सीबीआई द्वारा गुड़गांव में भूमि अधिग्रहण के मामले में वर्मा द्वारा आरोपितों को बचाने का आरोप है। सीवीसी ने इस मामले में विस्तृत जांच की सिफारिश की थी। सीवीसी का यह भी कहना है कि वर्मा पूर्व केंद्रीय मंत्री लालू प्रसाद से जुड़े आईआरसीटीसी मामले में आरोपितों को बचाने का प्रयास कर रहे थे। ये सारे आरोप गहन जांच की मांग करते हैं और सीबीआई को ही यह करना है। प्रश्न यह भी है कि अगर एक ही आरोप वर्मा एवं अस्थाना पर है और सीवीसी की जांच दोनों पर चल रही है तो एक व्यक्ति को कैसे पद पर बहाल किया जा सकता है और दूसरे को नहीं?  बहरहाल, मामले का एक बड़ा अध्याय यहां समाप्त हो गया, पर दोनों पर आरोपों की जांच चल रही है। सीबीआई इस सरकार के कार्यकाल में एक भी मामले को अंतिम परिणति में नहीं पहुंचा पाई। क्यों? इसका जवाब मिलना चाहिए। शीर्ष एजेंसी को इसकी कल्पना के अनुरूप भूमिका में लाने के लिए काफी कुछ किए जाने की आवश्यकता है।

अवधेश कुमार


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