आरक्षण : रेवड़ियां बांटने की कवायद
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आरक्षण मसले को एक बार फिर उछाल दिया है।
आरक्षण : रेवड़ियां बांटने की कवायद |
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने आर्थिक आधार पर समान्य वर्ग के कमजोर तबकों के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में दस प्रतिशत आरक्षण देने का निर्णय लिया है। लाजिम है कि इसके लिए संविधान में संशोधन की आवश्यकता होगी क्योंकि सरकार मंडल आयोग की सिफारिशों के अतिरिक्त यह प्रावधान करने जा रही है। समुचित प्रावधानों के अभाव में नरसिंह राव सरकार के कार्यकाल के दौरान केंद्र सरकार की ऐसी सिफारिश को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था।
शायद इसीलिए केंद्र में आरूढ़ मोदी सरकार ने संसद में एक बिल लाने का निर्णय लिया है, जिसे कंस्टीटय़ूशन अमेंडमेंट बिल टू प्रोवाइड रिजर्वेशन टू इकनोमिक वीकर सेक्शन-2018 कहा जाएगा। यकीनन मोदी सरकार की मंशा संविधान की धारा 15 और 16 में बदलाव लाने की है। भारतीय संविधान की इन धाराओं में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े तबकों की एक सूची बना कर उन्हें विशेष अवसर देने की सिफारिश की गई है। गौरतलब है कि इसी आधार पर अछूतों को अनुसूचित जातियों के रूप में रेखांकित कर उन्हें एक वर्ग का रूप दिया गया था। इसी प्रकार आदिवासी समूहों के लिए भी अनुसूचित जनजाति वर्ग बना कर उन्हें आरक्षण दिया गया था। इसी के आधार पर 1953 में सर्वोदयी नेता एवं लेखक काका साहेब कालेलकर और 1978 में बिंध्येरी प्रसाद मंडल के नेतृत्व में पिछड़ा वर्ग आयोग गठित किया गया था। बीपी मंडल की अध्यक्षता वाले आयोग की सरकारी नौकरियों वाली सिफारिशों को 7 अगस्त, 1990 को तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने लागू किया था, और जिस पर 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने मुहर लगाई।
अब कोई अट्ठाइस साल बाद इस 7 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अगड़े अथवा सामान्य तबके के गरीबों की याद आई है। उन्होंने इनके लिए आरक्षण की व्यवस्था करने का लॉलीपॉप दिखाया है। पिछले महीने तीन प्रांतों-राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़-में जब भाजपा के किले ध्वस्त हो गए और लोक सभा चुनाव के कुछ ही महीने शेष रह गए हैं, तो उन्हें इन सब की याद आई है। इसे आरक्षण मसले का राजनीतिक इस्तेमाल ही तो कहा जाएगा क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी को यदि इन तबकों की सुधि पहले से होती तो वे पहले ही संविधान में संशोधन करवाते, आयोग बनवाते और उसकी सिफारिशें लेकर कोई काम या सार्थक पहल करते। लेकिन मोदी जानते हैं कि इसमें से कुछ भी एक्शन में नहीं आ पाएगा। केवल हंगामा खड़ा करना ही मकसद हो, तब किया ही क्या जा सकता है।
दरअसल, ये सारी समस्याएं हमारे युवा वर्ग की हैं। उन्हें ही रोजगार की दरकार है। शिक्षा ग्रहण कर चुकने के पश्चात उन्हें रोजगार पाने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है। कहना न होगा कि सरकार में बैठे लोगों की सोच रही है कि युवाओं को जाति-धर्म के भुलावे में डाल कर इनका भरपूर भावनात्मक शोषण किया जाए। वास्तविक मुद्दों से ध्यान बंटाने का तरीका कोई आज का तरीका नहीं है, बहुत पुराना तरीका है। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने चुनावी वायदे में दो करोड़ युवाओं को रोजगार देने की बात कही थी। चुनाव की पूर्व संध्या पर पूछा जा सकता है कि उनके इस वायदे का क्या हुआ? यदि वह वायदा पूरा कर दिया गया होता तो शायद इन दिनों आरक्षण के पिटारे को इस तरह से खोलने की जरूरत ही नहीं पड़ती। यदि आरक्षण के माध्यम से ही सरकार को कुछ करना था, तो इसे समय से किया जाना चाहिए था। क्या प्रधानमंत्री मोदी समझते हैं कि सामान्य तबके के दरिद्र मानसिक स्तर पर भी इतने दरिद्र हैं कि सरकार की इस कुटिलता को नहीं समझ पाएंगे? इसे मोदी सरकार की गलतफहमी ही तो कहा जाएगा।
आरक्षण के उद्देश्यों को संकीर्ण अथरे और राजनीतिक लाभ में इस्तेमाल किए जाने से पहले भी देश-समाज को बहुत नुकसान हो चुका है। दरअसल, आरक्षण का मूल उद्देश्य ही पिछड़े सामाजिक समूहों को राष्ट्र और समाज की मुख्यधारा में लाना था यानी आरक्षण का मुद्दा आर्थिक से अधिक सामाजिक मुद्दा था। गरीबी उन्मूलन का उपाय तो यह कतई नहीं था। लेकिन दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि ऊंचे पदों और संसद-विधानसभाओं में बैठे लोगों ने इस मुद्दे को बेरोजगारी और गरीबी दूर करने का औजार समझ लिया। वीपी सिंह ने भी यही किया और अब नरेन्द्र मोदी भी यही कर रहे हैं।
पूछना चाहेंगे कि क्या प्रधानमंत्री मोदी ने अपने फैसले के पूर्व इस बात की समीक्षा की कि मंडल आयोग के संदर्भ में जो सिफारिशें लागू की गई, उनका नतीजा क्या हुआ? क्या उनसे पिछड़े तबकों की सामाजिक और आर्थिक स्थितियां पिछले अट्ठाइस साल में बदल गई? यदि नहीं तो फिर सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन के लिए कुछ इतर इंतजाम क्यों नहीं किए जाने चाहिए। एक समान स्कूल और एक समान चिकित्सा सुविधा की बात बहुत समय से उठाई जाती रही है। यह कटु सत्य है कि आज देश में अमीरों और गरीबों के स्कूल और अस्पताल अलग-अलग हो गए हैं। लंबे समय तक और कभी-कभी तो आजीवन युवाओं को रोजगार उपलब्ध नहीं हो पाते। कितनी निराशाजनक स्थिति है यह! आप रोजगार के अवसर विकसित करने की कोशिश नहीं करते। इसकी बजाय आप सरकारी नौकरियों में आरक्षण की रेवड़ी बांट रहे हैं। तथ्य यह है कि सरकारी नौकरियां लगातार सिमट रही हैं। इन्हीं में आप बंदर-बिल्ली का खेल कर रहे हैं। यह सब नौजवानों के जले पर नमक छिड़कने जैसा है। प्रधानमंत्री मोदी राष्ट्रवादी और समत्ववादी हैं, तो फिर एक पंक्ति का फैसला क्यों नहीं करते कि बिना किसी जातिगत या धार्मिक भेदभाव के तमाम युवकों को रोजगार मुहैया करने की जिम्मेदारी सरकार की होगी यानी उन्हें वोट की तरह ही रोजगार का अधिकार होगा। इसके लिए शायद आपको संविधान संशोधन की भी जरूरत न पड़े। लेकिन इसके लिए तो वाकई छप्पन इंच की छाती होनी चाहिए प्रधानमंत्री जी!
| Tweet |