बंबई उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ ने कहा कि सिर्फ इसलिए कि कोई पुरुष अपनी पत्नी पर व्यभिचार (विवाहेत्तर संबंध) का संदेह करता है, यह आधार नहीं बन सकता कि उनके नाबालिग बच्चे की डीएनए जांच कर यह पता लगाया जाए कि वह उसका जैविक पिता है या नहीं

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नाबालिग लड़के की डीएनए जांच का निर्देश देने वाले एक पारिवारिक अदालत के आदेश को रद्द करते हुए न्यायमूर्ति आर एम जोशी ने कहा कि ऐसी आनुवंशिक जांच केवल आसाधारण मामलों में ही करायी जाती है।
एक जुलाई को दिए अपने आदेश में न्यायमूर्ति जोशी ने कहा कि केवल इसलिए कि कोई पुरुष व्यभिचार के आधार पर तलाक का दावा कर रहा है, यह अपने आप में ऐसा विशिष्ट मामला नहीं बनता जिसमें डीएनए जांच का आदेश दिया जाए। इस आदेश की प्रति बुधवार को उपलब्ध हुई।
उच्च न्यायालय ने कहा, ‘‘यह सवाल उठता है कि क्या यह मामला डीएनए जांच का आदेश देने के लिए कोई विशिष्ट मामला है? इसका स्पष्ट उत्तर होगा - बिल्कुल नहीं।’’
अदालत ने कहा कि यदि पत्नी पर व्यभिचार का आरोप लगाया गया है, तो उस आरोप को साबित करने के लिए किसी अन्य साक्ष्य का सहारा लिया जा सकता है, न कि बच्चे को जैविक पिता का निर्धारण करने के लिए डीएनए जांच कराने के लिए मजबूर किया जाए।
यह आदेश उस याचिका पर पारित किया गया है जिसे एक व्यक्ति की अलग रह रही पत्नी और उनके 12 वर्षीय बेटे ने दायर किया था। उन्होंने फरवरी 2020 में पारिवारिक अदालत द्वारा पारित उस आदेश को चुनौती दी है जिसमें बच्चे को जैविक पिता का निर्धारण करने के लिए डीएनए जांच से गुजरने को कहा गया था।
उच्च न्यायालय ने कहा कि पारिवारिक अदालत ने ऐसा आदेश पारित कर गलती की थी और उसने उस आदेश को रद्द कर दिया।
न्यायमूर्ति जोशी ने अपने आदेश में कहा कि बच्चे के सर्वोत्तम हित को ध्यान में रखना पारिवारिक न्यायालय के लिए ‘‘पूर्णतः अनिवार्य’’ था।
उच्चतम न्यायालय के एक आदेश का हवाला देते हुए उच्च न्यायालय ने कहा कि किसी को भी, विशेषकर किसी नाबालिग बच्चे को बलपूर्वक रक्त परीक्षण के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता, खासकर जब वह सहमति देने या इनकार करने का निर्णय लेने में सक्षम भी नहीं है।
उच्च न्यायालय ने कहा कि जब माता-पिता आपस में लड़ रहे होते हैं, तो अक्सर बच्चा उस लड़ाई में एक मोहरा बन जाता है। ऐसे में अदालतों को नाबालिग बच्चे के अधिकारों के संरक्षक की भूमिका निभानी चाहिए।
इस व्यक्ति ने व्यभिचार के आधार पर अपने पत्नी से तलाक मांगा है।
याचिका के अनुसार, दोनों की 2011 में शादी हुई थी और जनवरी 2013 में जब वे अलग हुए तो महिला तीन महीने की गर्भवती थी।
व्यक्ति ने अपनी अलग रह रही पत्नी पर व्यभिचार के अपने आरोप को साबित करने के लिए बच्चे की डीएनए जांच कराने की मांग की थी।
उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि व्यक्ति ने अपनी तलाक याचिका में अपनी पत्नी के ‘‘व्याभिचारी’’ होने के बारे में आरोप लगाए हैं, लेकिन उसने कभी यह दावा नहीं किया कि वह बच्चे का पिता नहीं है।
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