आर्थिक सुधार : कारपोरेट नहीं जनता के लिए हो

Last Updated 10 Jan 2019 05:59:03 AM IST

साल 2019 आशा का संदेश लेकर आया है, लेकिन आगे का रास्ता स्पष्ट नहीं है। अर्थव्यवस्था को नया रास्ता, पुनर्जीवन और जनोन्मुखी नीतियों की जरूरत है।


आर्थिक सुधार : कारपोरेट नहीं जनता के लिए हो

‘मनमोहनॉमिक्स’-उदारीकरण की मनमोहन सिंह की नीति-ने सरकारों को असफल साबित किया है, जनता का भला भी नहीं हो सका। मनमोहनॉमिक्स को अपनाने वाली भाजपा सोचने को विवश है कि कहीं रास्ता तो नहीं भटक गई है। दूसरी ओर, आर्थिक नीतियों को लेकर कांग्रेस कोई राय ही नहीं बना पा रही है।  
दरअसल, कोई भी राजनीतिक दल नई आर्थिक दृष्टि देने में सक्षम नहीं है। टीएमसी, टीडीपी, बीएसपी, एसपी जैसे क्षेत्रीय दल हों या वाम दल-सभी अस्तित्व की लड़ाई में व्यस्त हैं। देश में असमंजस का माहौल है। नहीं मालूम कि आखिर, किसानों की बदहाली दूर करने के लिए कौन पहल करेगा। यह भी जानकारी नहीं है कि बैंकिंग सिस्टम को बर्बाद कर देने वाले और इस वजह से कीमतों में होने वाली बढ़ोतरी के जिम्मेदार कॉरपोरेट के दखल को कैसे कम किया जाए। जीएसटी घटाए जाने के बावजूद टैक्स की दरें अभी भी ज्यादा हैं। कम आय वाले नौकरीपेशा लोगों और छोटे व्यवसायियों से भी टैक्स लिया जा रहा है। टैक्स की ऊंची दरें और ‘टैक्स टेरर’ यानी टैक्स के आतंक से आर्थिक गतिविधियों में गतिरोध बना हुआ है। यह भी पूछा जाने लगा है कि मूर्तियों के लिए धन उपलब्ध कराना कॉरपोरेट के सामाजिक दायित्व के अंतर्गत कैसे आता है। एक ओर पेट्रोल की कीमतें और टैक्स बढ़ाए जा रहे हैं, तो दूसरी ओर तेल कंपनियों का मुनाफा जबर्दस्त तरीके से बढ़ रहा है। तेल कंपनियां उन गतिविधियों के लिए कैसे पैसा दे रही हैं, जो न व्यापार से जुड़ी हैं, और न सामाजिक हित से?
कुल मिलाकर जीवन स्तर में गिरावट आ रही है। सितम्बर, 2018 में किए गए एक ‘गैलप सर्वे’ यानी जनमत निर्धारित करने के लिए किए जाने वाले मतदान के मुताबिक, भारतीयों के वर्तमान जीवन की रेटिंग पिछले कुछ समय की तुलना में सबसे खराब है।

शून्य से 10 के पैमाने पर 2014 में 4.4 के मुकाबले यह साल 2017 में 4.0 पर थी। गैलप सर्वे के मुताबिक अपने जीवन स्तर को बेहतर मानने वाले भारतीयों के प्रतिशत में गिरावट आई है। 2014 में 14 के मुकाबले साल 2017 में सिर्फ  3 प्रतिशत भारतीय ही अपने को समृद्ध मानते हैं।   
ग्रामीण इलाकों में भी खाद्य सामग्रियां महंगी हुई हैं। गैलप सर्वे कहता है, ‘साल 2015 की शुरु आत में ही देश के ग्रामीण इलाकों में लोगों को खाद्य सामग्रियां खरीदने में कठिनाई होने लगी।’ एमएसपी और वास्तविक कीमतों के बीच अंतर, जिसे मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में ‘भावांतर’ कहा जा रहा था, की स्थिति में किसानों की शिकायतें कम नहीं हो पा रही हैं। नोटबंदी के बाद नकदी की किल्लत ने गंभीर असंतोष पैदा किया। लेकिन आधिकारिक रूप से विकास होता हुआ दिख रहा है। आगामी लोक सभा चुनाव का परिणाम कुछ भी हो, नये साल में देश के परिदृश्य में ज्यादा बदलाव होने की संभावना नहीं दिखती। दरअसल,    राजनीतिक पटल पर दूरदर्शिता का अभाव दुर्भाग्यपूर्ण है। अगर लोगों का झुकाव किसी विपक्षी गठबंधन की ओर हो रहा है, तो यह किसी पार्टी की विशेषता को नहीं बल्कि विकल्पहीनता को दशर्ता है। यह एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। चुनावों में अभी भी दो महीने से ज्यादा का वक्त बचा है। क्या इस दौरान कोई बदलाव संभव है? लेकिन अगर 2014 के घोषणापत्रों पर गौर किया जाए तो ऐसा लगता है कि इनका कोई अर्थ नहीं है, और ये सिर्फ ‘जुमले’ हैं। घोषणापत्र में किए गए वादों पर अमल नहीं किया गया। आर्थिक सुधार जनता नहीं बल्कि कॉरपोरेट को ध्यान में रखकर किए गए।        
इसे विडंबना ही कहेंगे कि निरंतर आर्थिक सुधारों और ‘मेक इन इंडिया’ के नारों के बीच देश के बाजार विदेशी सामानों से अटे पड़े हैं। इसके साथ ही व्यापार घाटा बढ़ रहा है, और नौकरियों में लगातार कमी आ रही है। सरकारी खचरे में बढ़ोतरी के बावजूद आर्थिक तंत्र में आत्मविश्वास की कमी देखी जा रही है। ‘नीति आयोग’ के पहले अस्तित्व में रहे ‘योजना आयोग’ का तो अपना एक निश्चित रास्ता था, लेकिन लगता है कि नीति आयोग अभी भी स्थितियों से पार पाने के लिए रास्ता तलाशने में ही जुटा है। फिलहाल, अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का तरीका शायद ही किसी को मालूम हो। कहते हैं, उम्मीद पर दुनिया कायम है। भारतीय राजनीति में 2019 ऐतिहासिक साल साबित हो सकता है, और कौन जानता है कि निराशाजनक हालात से ही कोई नया नेतृत्व और नई दृष्टि उभर कर सामने आ जाए।

शिवाजी सरकार


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