मीडिया : दो हजार उन्नीस के डर

Last Updated 13 Jan 2019 03:49:47 AM IST

यों, अपने समाज में आम चुनाव हमेशा एक बड़ी घटना होते हैं, लेकिन जितनी बड़ी घटना सन दो हजार उन्नीस के चुनाव बन चले हैं, उतना कोई चुनाव नहीं बने।


मीडिया : दो हजार उन्नीस के डर

आम चुनाव पहले भी आते थे, और चुनाव की तिथियां भी घोषित होती थीं, और अपना मीडिया बिना किसी उत्तेजना को जगाए चुनाव को  दैनिक खबर बनाता था। लेकिन इन दिनों चुनाव की तिथियां घोषित किए जाने से पहले से दो हजार उन्नीस के आम चुनाव को लेकर मीडिया ने इतनी उत्तेजना पैदा कर दी है कि अगर पत्ता भी कहीं खड़कता है, तो उसे उन्नीस के चुनाव से जोड़ दिया जाता है। उन्नीस का चुनाव मीडिया का नया ‘आब्सेसन’ बन चुका है। आज हर चैनल का स्थायी राग है : ‘उन्नीस में क्या होगा?’। ‘कौन जीतेगा?’। ‘कौन सरकार बनाएगा?’ ‘मोदी जीतेंगे या महागठबंधन?’ ऐसे सवाल लगभग हर खबर चैनल का ‘तकिया कलाम’ बन चले हैं।
इस ‘ऑब्सेसन’ का कारण क्या है? हमारी नजर में इसके दो तीन कारण हैं। पहला, यह कि मीडिया की नजर में ‘चुनाव’ कमाई का सबसे अच्छा अवसर होते हैं। चुनाव के दौरान चैनलों को विज्ञापन मिलते हैं। खूब कमाई होती है। नेताओं से नजदीकी बढ़ती है, और ‘भावी’ सत्ताधीशों के आजू-बाजू रहने के अवसर भी। दूसरा, सत्ता समूहों के साथ मीडिया इन दिनों सुरक्षित-सुरक्षित खेलना चाहता है। कुछ दिन पहले तक कुछ चैनल अपनी राजनीतिक प्राथमिकताएं छिपाते तक नहीं थे, लेकिन अब कुछ उनको इधर-उधर करते दिखते हैं। तीसरा, जीत-हार को ‘पहले से जान लेने’ की उतावली है। मीडिया जीतने वाले के पक्ष में रहेगा तो उसे सत्ता का लाभ मिलेगा।

इस स्थिति से स्पष्ट है कि मीडिया हर हाल में, सत्ता से टकराने की जगह, उसकी ‘कृपा’ में, उसकी छतछ्राया में रहना जरूरी समझता है, और इसके लिए उसे ‘थैंक्यू’ कहते दिखना चाहता है। कहने की जरूरत नहीं कि कुछ ही बरसों में वह इतना पालतू-सा हो चला है कि सत्ता के स्वामी के वरदहस्त के बिना वह अपने को एक पल भी सुरक्षित नहीं समझता। इसीलिए  वह जब ‘दो हजार उन्नीस में कौन जीतेगा’ जैसा सवाल पूछता है, तो अपने भविष्य की ही चिंता करता है। इसी हेतु, हमारे चैनल ‘संतुलन का नाटक’ करते रहते हैं।
कुछ चैनल गठबंधन या महागठबंधन से खतरा खाते हैं, और उसका मजाक उड़ाते रहते हैं, तो इसी तरह कुछ चैनल सत्तावानों की दोबारा जीत से खतरा खाते हैं, और महागठबंधन को एक बड़ी चुनौती की तरह बताते रहते हैं। जाहिर है कि इन दिनों हमारा मीडिया ‘सुरक्षित सुरक्षित’ खेलता रहता है, और अपने को बैलेंस करता रहता है। दो हजार उन्नीस के लिए सुरक्षित खेलने की कई तरकीबें भी चैनलों ने पिछले दिनों ईजाद की हैं। इनमें कुछ इस प्रकार हैं :
पहली तरकीब है : ‘पांच सितारा कॉन्क्लेव कल्चर’ या ‘शिखर सम्मेलन कल्चर’ अपनाएं ताकि खाते-पीते राजनीतिक चरचा कर सकें। यहां हर नेता को अपने समर्थक लाने की आजादी रहती है ताकि नेता जी को कोई परेशानी न हो। दूसरी तरकीब है किसी महत्त्वपूर्ण नेता के रथ में बैठकर उसकी महानता का उसी से बखान करवाना और उसे प्रसारित करना।
इसके अलावा, चुनाव क्षेत्रों से ‘जनता की राय’ लेने का तरीका भी एक सुरक्षित तरीका है। इसी कड़ी में एंकर जनता के बीच जाकर सवाल करते हैं। सवालों के उत्तर पाने की कोशिश करते हैं। उनकी राय या जवाबों को जानने के प्रयास में जनता बाजाप्ता पक्ष या विपक्ष में बांट दी जाती है। एंकर बारी-बारी से सवाल-जवाब करते जाते हैं।
और अंत में समाहार करते हुए कहते हैं कि जनमत ‘फिफ्टी फिफ्टी’ दिखता है। यही नहीं एक और परिवर्तन इन दिनों चैनलों में नजर आता है। हर चैनल के पास एक दो ‘प्रो एंकर’ होते हैं, तो  कुछ ‘क्रिटीकल एंकर’ भी होते हैं, जिससे जो नेता कंफर्ट महसूस करे उसी से बात करवाते हैं। हर नेता के लिए अलग से एंकर मुकर्रर किए जाते हैं ताकि कोई नेता को संकोच में न पड़े। क्या पता भविष्य में कौन जीत कर सत्ता में आ जाए? उन्नीस में क्या होगा? इसके चलते चैनलों की भाषा तक बदल गई है। इस तरह मीडिया में इन दिनों दोस्तरीय डर दिखाई देते हैं। एक है दलों का एक दूसरे से डरना, दूसरा है चैनलों का एक दूसरे से डरना। कहने की जरूरत नहीं कि अपना मीडिया इतना दयनीय कभी नहीं दिखा जितना आज दिखता है। चैनल तो दयनीय हैं ही, अपना प्रिंट मीडिया जो कल तक आलोचनात्मक सामग्री दिया करता था, वह भी अब ‘राग दरबारी’ गाने लगा है। कहने की जरूरत नहीं कि दो हजार उन्नीस ने सबको डरा रखा है।

सुधीश पचौरी


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