वैश्विकी : अफगान में भारतीय कूटनीति

Last Updated 13 Jan 2019 03:54:27 AM IST

पड़ोसी देश अफगानिस्तान में कट्टरपंथी आतंकी समूह तालिबान की बढ़ती ताकत ने भारत की चिंताएं बढ़ा दी हैं क्योंकि वहां हमारे राजनीतिक, रणनीतिक और आर्थिक हित हैं।


वैश्विकी : अफगान में भारतीय कूटनीति

काबुल से अमेरिकी सेना की हटने की घोषणा के बाद विश्व समुदाय वहां शांति स्थापित करने और भावी राजनीतिक व्यवस्था कायम करने की कोशिश कर रहा है। ऐसे में नई दिल्ली की भी जानने में रुचि है कि वहां किस तरह का सत्ता समीकरण बनने जा रहा है! लेकिन इस बीच भारतीय थल सेना के प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने तालिबान के साथ चल रही विभिन्न देशों की बातचीत में भारत के भी भागीदार बनने का सुझाव देकर नई दिल्ली को असमंजस में डाल दिया है।
अफगानिस्तान की भू-राजनीतिक बनावट भारत के सामरिक हितों की दृष्टि से विशेष महत्त्व रखती है। इसलिए भारत के सेनाध्यक्ष सैन्य दृष्टि से अफगानिस्तान में होने वाले भावी सत्ता समीकरण का मूल्यांकन करते हैं, तो उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अमेरिका, रूस, चीन, पाकिस्तान और ईरान जैसे देश अफगानिस्तान में तालिबान की भूमिका का समर्थन कर रहे हैं। हालांकि इन सभी के अपने-अपने राष्ट्रीय हित हैं, जिसके चलते इन्हें कट्टरपंथी तालिबान का समर्थन करना पड़ रहा है। लेकिन यह सवाल भी अहम है कि क्या हम अफगानिस्तान में तालिबान की भावी भूमिका के बारे में विश्व समुदाय के रुख से अलग राय रख सकते हैं? जाहिर है नहीं, क्योंकि भारत विश्व समुदाय के तालिबान संबंधी रुख से असहमति रखने के बावजूद पूरी तरह विमुख नहीं हो सकता। इस नजरिए से जनरल रावत का तालिबान के साथ संवाद करने का विचार व्यावहारिक और यथार्थवादी है। यह तो अफगान सरकार का दायित्व है कि वह देश की राजनीतिक व्यवस्था में तालिबान की भूमिका कहां तक देखती है और क्या तय करती है। विश्व समुदाय की केवल सहायक की भूमिका हो सकती है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले दिनों अफगानिस्तान में तालिबान की बढ़ी भूमिका पर अपनी चिंताओं से अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को बताया था। इसके दो दिन बाद अफगानिस्तान के विशेष अमेरिकी प्रतिनिधि जल्माय खलीलजाद दिल्ली पहुंच गए और बीते बृहस्पतिवार को उन्होंने विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से मुलाकात की। खलीलजाद को अमेरिका ने पिछले साल अफगान संकट के हल के लिए विशेष प्रतिनिधि नियुक्त किया था। वह अफगानिस्तान में अमेरिका के राजदूत रहे हैं। उन्हें इस इलाके की अच्छी समझ है और वे यहां के सभी समुदायों के बीच लोकप्रिय भी हैं। वह भारत के अलावा चीन, अफगानिस्तान और पाकिस्तान का भी दौरा करेंगे। सुषमा स्वराज ने खलीलजाद को भारत की अफगान नीति एक बार फिर से स्पष्ट कर दी कि हम काबुल में जारी शांति प्रक्रिया का समर्थन करते हैं, लेकिन वहां कोई नई राजनीतिक व्यवस्था बनती है, तो उसमें स्थानीय लोगों की भूमिका प्रमुख होनी चाहिए। वास्तव में अफगानिस्तान की शासन व्यवस्था में तालिबान की भागीदारी भारत के कूटनीतिक हितों को धक्का पहुंचाने वाली साबित होगी। इसलिए भारत तालिबान के साथ बातचीत से अपने को अलग रखता आया है। इससे पहले भी रूस की पहल पर तालिबान के साथ 12 देशों की बैठक हुई थी, जिसमें भारत अनधिकृत रूप से शामिल हुआ था। अब भारत की कोशिश होनी चाहिए कि अफगानिस्तान की राजनीतिक सत्ता में ऐसा तत्व शामिल न हो जो भारत विरोधी गतिविधियों को प्रश्रय दे।
भारत के लिए यह अच्छी बात है कि अफगानिस्तान में स्थायी तौर पर शांति बहाल करने और वहां के पुनर्निर्माण में काबुल की सरकार भारत की भूमिका को अहम मान रही है। अमेरिका और रूस की भी यही राय है। लेकिन भारत को राजनीति के इस यथार्थवादी दृष्टिकोण को स्वीकार करना चाहिए कि विश्व राजनीति शक्ति पर आधारित होती है। उसमें विकास परियोजनाओं के जरिए किसी देश के लोगों का दिल जीता जा सकता है, सद्भावना अर्जित की जा सकती है, लेकिन अपने रणनीतिक हितों को पूरा करने के लिए सक्रिय कूटनीति अपनाना आवश्यक है। इस लिहाज से जनरल रावत ने व्यावहारिक रुख अपनाया है। एक सेनाध्यक्ष और एक युद्ध रणनीतिकार को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वार्ता में भागीदार होना ही चाहिए। खासकर तब जब अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई भी अब तालिबान को शांति प्रक्रिया में शामिल होने का समर्थन करने लगे हैं, जो पहले धुर विरोधी थे।

डॉ. दिलीप चौबे


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