बतंगड़ बेतुक : स्वप्नावतरित भये हनुमन्ता

Last Updated 13 Jan 2019 03:59:59 AM IST

पवनपुत्र मुझे बाबा तुलसी की भाषा में उपदेश दे रहे थे और मैंने शंका उठा दी थी कि हिंग्लिश के जमाने में उनकी भाषा कौन समझेगा।


बतंगड़ बेतुक : स्वप्नावतरित भये हनुमन्ता

उन्होंने मेरी बात सुनी और विचार मुद्रा में आ गए। मैंने अपनी बात आगे बढ़ाई-‘हे पवनपुत्र, मैंने भी प्रभु राम और आपकी महिमा समझी थी, तो गीता प्रेस, गोरखपुर की टीकावाली रामायण पढ़कर कर समझी थी।’ बजरंगबली मुस्कुराए, बोले-‘सुन भक्त, जो असली भक्त है उसने अनुज तुलसी की रामायण भी पढ़ी होगी, उसे सुना भी होगा और गुना भी होगा। वे मेरी भाषा समझ लेंगे, भाषा का मर्म भी समझ लेंगे। रही नकली भक्तों की बात तो उनको समझाना ऐसा ही है जैसे गधे को संगीत सुनाना या भैंस के आगे बीन बजाना या आज के व्यापारी से टैक्स चुकवाना या चुनावी नेता को नैतिकता सिखाना। इन नकली भक्तों की चिंता मैं भी नहीं करता, तू भी मत कर। बस, तू मेरा उपदेश सुन।’ उनकी धीर-गंभीर मुद्रा पुन: स्थापित हो गई। मेरा ध्यान पुन: उनकी वाणी पर टिक गया : 

घृणा द्वेष पैदा करें, जाति-जाति के भेद
जब तक जीवित जाति है, जीवित रहें विभेद
क्रूर कुटिल अति जाति विधाना, त्रस्त मनुज पावहिं दुख नाना
जाति दुराग्रह जब बढ़ि जावें, धूर्त कुटिल नेता पद पावें
जनता के सब हित बिसरायें, निज स्वारथ की भेंट चढ़ायें
जाति नाम पर रारि मचावें, मूरख जनता को भरमावें
ये केवल अपने हित साधें, जनता को जड़ता में बांधें
मूरख जनता ठगि-ठगि जावै, हित-अनहित वह समझ न पावै
जाति यहां दनुजनि की केरी, दनुज प्रवृत्ति सबकी मति हेरी
मनुज-मनुज में भेद कराई, जाति समान नहीं अधमाई
नेतागीरी जो करै, अपनी जाति जुटाय
वह जनता का शत्रु है, जनता समझ न पाय
मैंने कहा-‘हे महावीर, यही तो झांपा है, जनता का न समझ पाना ही तो सारा स्यापा है। जनता ही अपनी जाति के नेता को अपने कंधे पर बिठाती है, उसे चुनाव लड़वाती है, कभी विधानसभा तो कभी संसद पहुंचाती है। वह कर्म करे या कुकर्म उसके साथ खड़ी रहती है, उसके नाम पर भिड़ी रहती है, अड़ी रहती है। उसे बढ़ावा भी देती है, चढ़ावा भी देती है। ऐसी जनता का क्या किया जाए, उसे क्या बताया जाए, क्या समझाया जाए।’ महावीर बोले-‘निराश मत हो भक्त, जो मैं बता रहा हूं वही बताना है, जो समझा रहा हूं वही समझाना है।’
ईश्वर मानव जाति बनाई, ऊंच-नीच सब मनुज रचाई
बामन-दलित भेद सब ठूंठे, भेद करें वे जन सब झूठे
राम रचे सब मनुज समाना, जन्म-मृत्यु सब एक विधाना
भूख-प्यास सबको सम लागे, हास्य रुदन सबके सहभागे
सुख-दुख की अनुभूति समाना, मान-अपमान सबहिं सम जाना
जो नर जाति-जाति चिल्लावा, सो नर मोहि सपनेहुं नहि भावा
जाति मिटाइ समरसता लावै, सच्चा भक्त वही कहलावै
भक्त वही जो जाति विहीना, राम भक्त वह परम प्रवीना
जाति रहे संभव नहीं, समतापूर्ण समाज
न्यायपूर्ण होंगे नहीं, राजनीति के काज
मैंने कहा-‘हे परमश्रेष्ठ, आप उचित कह रहे हैं, मगर जाति के बिना नेताओं की राजनीति कैसे चलेगी, नेताई की उनकी दाल कैसे गलेगी? उनके लिए क्या तो समतापूर्ण, क्या न्यायपूर्ण। उनके लिए सब कुछ स्वार्थपूर्ण है, या सत्तापूर्ण। ये न आपकी सुनेंगे न मेरी समझेंगे।’ पवनपुत्र बोले-‘हे भक्त, नेता को नहीं, जनता को समझाना है, जनता का भ्रमजाल मिटाना है। जाति कितनी विनाशक है, यह बताना है। जनता समझ जाएगी, जाति के विरोध में खड़ी हो जाएगी।’
तजि संशय अरु भ्रांति, भक्त सुनहु हनुमत वचन
तबहिं मिटेगी जाति, जन विवेक जाग्रत जबन
मैंने करबद्ध निवेदन किया-‘मगर प्रभु, यहां तो जिसे देखो वह विवेक के ही पीछे लठिया लिये पड़ा है। आपके विवेकभरे उपदेश सुनेगा कौन? सुनेगा तो गुनेगा कौन?’ वे बोले-‘तेरी चिंता स्वाभाविक है, पर चिंता मत कर। अगर संसार पूर्णत: विवेकविहीन हो जाएगा तो संसार ही नष्ट हो जाएगा। यहां विवेकवान संपादक भी हैं, जो मेरे उपदेश का प्रकाशन करेंगे, यहां विवेकवान पाठक भी हैं, जो मेरे उपदेश को सुनेंगे और गुनेंगे। तू विवेक प्रसार का अपना कर्म कर, फल की चिंता मत कर।’
इतनी कहि लोपित भये, पवनपुत्र हनुमान
भक्तनि में वितरण करन, सौंप गये यह ज्ञान

विभांशु दिव्याल


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