सरोकार : युवा चेतना में सुखद बदलाव के संकेत
भारतीय उपमहाद्वीप में छात्र राजनीति और समय -समय पर होने वाले आंदोलनों से ही नेता निकलते रहे हैं। लेकिन अब छात्र संघों के चुनावों में पूरी आक्रमकता के साथ प्रचार होता है ।
सरोकार : युवा चेतना में सुखद बदलाव के संकेत |
रंगीन पोस्टर व बैनरों से कुछ दिन के लिए पूरा शहर पट जाता है। उम्मीदवार के अपहरण व हत्या तक की वारदात को देख-सुन अब किसी को हैरत नहीं होती। विजयी उम्मीदवारों के जुलूस पूरे शहर को मंत्रमुग्ध कर चर्चा का विषय बनते हैं। लेकिन इसके बाद छात्र नेता और छात्र संघ क्या कर रहे हैं, इसका पता किसी को नहीं लगता। हां, समय-समय पर दुकानों को लूटने, होटलों में बिल अदा न करने, स्थानीय ठेकों को हथियाने के प्रयास में मारपीट करने के कारण छात्र शक्ति चर्चा का विषय बनती है।
चुनाव के दौरान तो हर दल युवाओं की बात करता है। छात्र राजनीति से मुख्यधारा की राजनीति में आने वाले युवा पूरी निष्ठा और लगन से अपना समय पार्टी को देते हैं। प्रत्याशा में कि कभी उनके काम का महत्त्व समझा जाएगा, लेकिन जब पार्टी के वरिष्ठ नेता अपने पाल्यों-परिजनों को चुपके से पार्टी के अहम पदों पर बैठा देते हैं, तब अपनी पूरी जवानी राजनीति को देने वाले सेवाव्रतियों को कोफ्त होती है। थिंक टैंक इस बावत कभी विचार करेंगे या युवा राजनीति के फलसफे पर यत्र-तत्र धक्के खाना और संघर्ष करना ही बदा है। वर्तमान में उठते इन सवालों पर गहराई से विचार करें तो पता चलता है कि नाउम्मीदी के बादल इतने घने भी नहीं हैं। अतीत गवाह है कि महात्मा गांधी, सुभाष चन्द्र बोस और जय प्रकाश नारायण के आह्वान पर छात्र संगठनों ने जो कुछ किया, वह आज इतिहास बन गया है। स्वतंत्रता पूर्व और उसके बाद की छात्र-युवा राजनीति का सुनहरा इतिहास रहा है। 1905 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल विभाजन की बात बड़े हल्के ढंग से कही थी, लेकिन छात्रों को समझते देर न लगी। जल्द ही पूरे राज्य में इसके विरु द्ध आंदोलन शुरू हुए। एकबारगी अंग्रेज सरकार हैरत में पड़ गई। बंगाल से उपजी यह चेतना जल्द ही दूसरे राज्यों में भी फैल गई। 1920 में नागपुर में अखिल भारतीय कॉलेज विद्यार्थी सम्मेलन हुआ और नेहरू के प्रयासों से छात्र संगठनों को सही अथरे में अखिल भारतीय स्वरूप मिला।
सत्तर के दशक में दो महत्त्वपूर्ण घटनाएं युवा राजनीति के क्षितिज पर उभरीं। पहली, 1974 में जेपी आंदोलन व्यापक राष्ट्रीय मुद्दों को लेकर शुरू हुआ। दूसरी, असम में छात्रों का आंदोलन जिसकी सुखद परिणति हुई तथा युवा छात्र सत्ता में भागीदार बने। बाकी याद करने लायक कुछ दिखाई नहीं देता। मंडल आयोग को लेकर युवा आक्रोश जिस रूप में प्रकट हुआ उससे तो एकबारगी पूरा देश हतप्रभ रह गया। दलगत राजनीति के साथ ही जातीय, क्षेत्रीय और सांप्रदायिक समीकरणों को भी बल मिला है। बिहार और उत्तर प्रदेश में छात्र संघ चुनाव जातीय समीकरणों के आधार पर लड़े जा रहे हैं। जिस तरह से परिसर में दलीय राजनीति रंग दिखाने लगी है, ऐसे में निर्णय लेना होगा कि परिसर की राजनीति संसद या विधानसभाओं के मद्देनजर चलाई जानी चाहिए या सिर्फ छात्रों द्वारा परिसर के लिए। इधर कुछ समय से युवा वर्ग में सुखद बदलाव के संकेत दिखाई देने लगे है। आई हेट पॉलिटिक्स कहने वाला युवा अब राजनीति को समझने की कोशिश में लगा है। अपने वोट का महत्त्व समझने लगा है। इसमें सोशल मीडिया का बहुत बड़ा योगदान रहा है। 2014 का लोक सभा चुनाव युवाओं की सक्रियता के लिए जाना जाएगा।
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