दृष्टिकोण : अब तो वैर बेल फैल गई!

Last Updated 18 Nov 2018 03:55:57 AM IST

राजकाज और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के विचलन पर अंकुश रखने वाली संस्थाओं की बर्बादी का मानो अब अगला दौर शुरू होने को है।


दृष्टिकोण : अब तो वैर बेल फैल गई!

केंद्रीय जांच एजेंसी (सीबीआई) का विवाद अब हदें लांघ कर संघीय ढांचे के सामने नये सवाल पैदा करने लगा है। आंध्र प्रदेश की तेलुगू देशम की चंद्रबाबू नायडू सरकार ने सीबीआई को अपनी मंजूरी हटा ली है, और प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी उसी राह चलने का ऐलान कर चुकी हैं। बाइस नवम्बर को दिल्ली में नायडू के बुलावे पर विपक्षी दलों की बैठक हो रही है। इसके बाद इसका दायरा विपक्ष शासित राज्यों तक बढ़ने और केंद्र-राज्य टकरावों का बड़ा दौर शुरू होने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। इससे बतौर संस्था सीबीआई का बचा-खुचा इकबाल भी जाता रहेगा। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष भी नई चुनौती पेश हो सकती है कि उच्च पदों पर भ्रष्टाचार से इस निवारक संस्था को कैसे बचाया जाए। उधर, आरबीआई के केंद्रीय बोर्ड की बैठक 19 नवम्बर को है, जिसमें नजर रहेगी कि उसका रुख सरकार को राहत देता है, या टकराव के अगले दायरे में बढ़ चलता है।
अगर आरबीआई टकराव की राह से हट जाता है तब भी कई बड़े सवाल आसानी से हल होते नहीं दिखते। सरकार की ओर से दोनों तरह के संकेत हैं। कथित तौर पर पीएमओ में बातचीत के बाद आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल के रुख नरम पड़ने के संकेत हैं। ऐसी खबरें भी हैं कि उर्जित पटेल शायद इस्तीफा न दें। वित्त मंत्री अरुण जेटली की ओर से इस मामले में बयानों की झड़ी भी कुछ घटी है, या यूं कहें कि मोच्रे पर दूसरे आगे आ गए हैं। आरबीआई बोर्ड में सरकार के नामित सदस्य एस. गुरुमूर्ति ने हाल में कहा कि नोटबंदी नहीं की जाती तो अर्थव्यवस्था बर्बाद हो जाती। कथित तौर पर नोटबंदी के सूत्रधारों में माने जाने वाले आरएसएस से जुड़े गुरुमूर्ति का बयान नोटबंदी के पहले आरबीआई की 8 नवम्बर, 2016 को शाम 5.30 बजे की बैठक के मिनिट्स के खुलासे के बाद आया है, जिसमें नोटबंदी के लिए सरकार के बताए लक्ष्यों को बेमानी करार दिया गया था। तो, क्या गुरुमूर्ति सीधे टकराव का संकेत दे रहे हैं।

हालांकि इसके पहले दलील दी गई थी कि अब हालात बदल गए हैं। इसलिए आरबीआई को इतनी राशि संरक्षित रखने की दरकार नहीं है। लेकिन जिन अर्थशास्त्रियों की सलाह पर नोटबंदी जैसी कसरत की गई, उनकी नई सलाह को भी आरबीआई के जानकार अर्थशास्त्री संदेह की नजर से ही देखेंगे। वैसे, नोटबंदी के बारे में प्रधानमंत्री ने हाल में छत्तीसगढ़ की एक चुनावी सभा में कहा, ‘कांग्रेस के लोग बिस्तर और बोरों में भरकर नोट रखते थे। मोदी ने नोटबंदी करके नोट निकाल लिया। कोई नहीं रो रहा है। बस एक परिवार रो रहा है।’ यह कयास भी कई हलकों में लगाया ही जाता है कि नोटबंदी का मकसद 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के पहले विपक्षी दलों को नकदी से खाली कर देना था। जो भी हो, लेकिन नोटबंदी के सार्थक नतीजे तो शायद आरबीआई अभी नहीं खोज पाया है।
जहां तक सीबीआई का मामला है, सुप्रीम कोर्ट के ताजा रुख पर एक कयास यह है कि मामला खिंचेगा। एक अखबार ने तो यह भी खबर कर दी कि शायद सीबीआई निदेशक अलोक वर्मा को जनवरी में रिटायर होने तक दोबारा पदभार संभालने का मौका न मिल पाए। लेकिन इससे समस्या आसान होने वाली नहीं लगती। विपक्ष का रुख जैसा दिख रहा है, वह नये संकट की ओर ही इशारा कर रहा है। देश की फिक्र करने वाला कोई भी ऐसे हालात पैदा होने से चिंतित होगा। फिर केंद्र में सत्तासीन लोगों की यह महती जिम्मेदारी भी है कि वे प्रमुख संस्थाओं की अहमियत बनाए रखें और संसदीय प्रणाली के संघीय ढांचे को बरकरार रखें। लेकिन इसके लिए जाहिर है, सभी को समान रूप से तरजीह देने की राजनीति ही कारगर हो सकती है, न कि सारी शक्तियों को अपने इर्द गिर्द समेट लेने या बेहद केंद्रीकरण की राजनीति।
आज का असली संकट शायद यही है कि सारी शक्तियां एक नेता में सिमट आई हैं, और अलग राय रखने वाला हर कोई ‘पराया’ या ‘दुश्मन’ माना जाता है। सीबीआई की मंजूरी वापस लेने के लिए चंदबाबू नायडू ने कहा, ‘अब सीबीआई समेत तमाम केंद्रीय एजेंसियों को केंद्र में शीर्ष पर बैठे एक-दो व्यक्ति अपने फायदे और दूसरों को ब्लैकमेल करने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।’ यह आरोप सिर्फ नायडू, ममता, अरविंद केजरीवाल, राहुल गांधी और तमाम विपक्षी नेता ही नहीं लगा रहे हैं, बल्कि इसका संकेत फिलहाल एनडीए में मौजूद दल भी दे रहे हैं। भाजपा के भीतर भी ऐसी फिजा महसूस की जा सकती है। शिवसेना खुलकर बोल रही है, तो कुछ दूसरे दबी आवाज में ऐसा संकेत दे रहे हैं। एहसास होना चाहिए कि 2014 के चुनावों में भी एनडीए की जीत की एक बड़ी वजह उसके तहत ज्यादा बड़ा गठबंधन का होना था। यह लगभग नब्बे के दशक से ही चला आ रहा है कि जिसका जितना बड़ा गठबंधन, जीत उतनी पक्की। लेकिन उसके बाद एनडीए में न सिर्फ दूसरे दलों की अहमियत घटती गई, बल्कि भाजपा अपने भारी विस्तार के एजेंडे में उनके लिए खतरा भी बनने लगी। ऐसा दूसरे दलों के ही मामले में नहीं हुआ, भाजपा में तमाम दूसरे नेता भी हाशिए पर ढकेल दिए गए। यहां तक कि सरकार में भी किसी मंत्री की कोई खास भूमिका नहीं रह गई। सब कुछ सीधे पीएमओ से अपने खास अफसरों के बूते होने लगा।
फिर क्या था, यह एनडीए या भाजपा की सरकार नहीं, बल्कि मोदी सरकार कही जाने लगी। मोदी ही इकलौते लोकप्रिय नेता, मोदी ही हर राज्य में इकलौते चुनाव प्रचारक हो गए। यहां तक कि स्थानीय निकाय के चुनावों में भी मोदी ही चुनाव प्रचार करते नजर आए। आप जरा अंदाजा लगाइए कि 2014 के पहले भाजपा में ही लालकृष्ण आडवाणी, मुरलीमनोहर जोशी, सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी जैसे तमाम नेताओें की लोकप्रियता के अपने-अपने दायरे हुआ करते थे। अब मोदी और अमित शाह के अलावा शायद ही किसी की पूछ होती है। यह केंद्रीकरण सभी को अपने मातहत करने और अपनी मर्जी से सब कुछ चलाने की भूख भी पैदा करता है, जो सभी संस्थाओं को नष्ट कर रहा है। मामला सिर्फ सीबीआई और आरबीआई का ही नहीं है, अभी तो शायद गैर-बैंकिंग संस्थाओं और बैंकों के ढहने के रूप में और बड़ा संकट कगार पर खड़ा इंतजार कर रहा है। कई जानकार कयास लगा रहे हैं कि अमेरिका में लीमन बदर्स के डूबने जैसा संकट आ सकता है।
बहरहाल, ये सभी संकट उसी केंद्रीकृत मनोवृत्ति और कामकाज की शैली के नतीजे हैं, जो दूसरों की हर राय को शंका की नजर से देखता है। लेकिन जब-जब ऐसा हुआ है, उसका अंत सुखद नहीं रहा है। अक्सर ऐसे नेता अपनी जिद में देश को मुश्किल के कगार पर खड़ा करते रहे हैं। इंदिरा गांधी का उदाहरण हमारे सामने है। इमरजेंसी ही नहीं, बाद के दौर में पंजाब समस्या में भी वे ऐसी उलझीं कि उसका नतीजा भयावह हुआ। इसके उलट विकेंद्रीकरण और सबको अहमियत देने की राजनीति के परिणाम ही सुखद रहे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री विनाथ प्रताप सिंह कहा करते थे कि विरोधाभासों का सामंजस्य ही राजनीति का मर्म है। अलबत्ता, उसमें वे बुरी तरह नाकाम भी साबित हुए। हालांकि शायद इसे ही साधने के चक्कर में वे मंडल आयोग की रिपोर्ट पर अमल करके देश की राजनीति में एक नये परिवर्तन के वाहक बन गए। लेकिन विरोधाभासों को अपने काबू में करने और अंतत: उन्हें कुचल डालने या बेमानी बना देने की कोशिशों के नतीजे क्या होते हैं, उसके नजारे आजाद भारत के इतिहास में इस रूप में पहले शायद ही दिखे हों।

हरिमोहन मिश्र


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