उपचुनाव : भाजपा को डरा रही पंजे की जीत

Last Updated 02 Mar 2018 01:49:23 AM IST

मध्य प्रदेश में विधान सभा के चुनाव इसी साल के अंत में होने हैं.


भाजपा को डरा रही पंजे की जीत

इस लिहाज से दो विधान सभा सीटों कोलारस और मुंगावली के लिए हुए उप चुनाव के नतीजों को अगर सूबे के सियासी मिजाज का पैमाना माना जाए तो कहा जा सकता है कि पिछले करीब डेढ़ दशक से सूबे की सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी और बारह वर्ष से मुख्यमंत्री के रूप में प्रदेश को नेतृत्व दे रहे शिवराज सिंह चौहान के लिए ये नतीजे किसी झटके से कम नहीं है. हालांकि दोनों सीटों के नतीजे चौंकाने वाले कतई नहीं हैं, क्योंकि दोनों सीटें पहले भी कांग्रेस के पास ही थीं.
पिछले विधान सभा चुनाव यानी 2013 में भी इन दोनों सीटों पर भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा था. उस समय यद्यपि नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री नहीं बने थे लेकिन प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर देश भर में उनकी आंधी बहना शुरू हो गई थी. मध्य प्रदेश में भी उन्होंने धुआंधार प्रचार किया था और इन सीटों वाले इलाके में भी उनकी चुनावी रैली हुई थी. इसके बावजूद ज्योतिरादित्य सिंधिया के प्रभाव वाली ये सीटें मोदी लहर से अछूती रही थीं. इस लिहाज से कहा जा सकता है कि अगर उपचुनाव के नतीजे अगर भाजपा के पक्ष में आए तो होते तो जरूर यह चौंकाने वाली बात होती. इन दोनों सीटों के नतीजों ने इस मिथक को भी झुठलाया है कि उपचुनावों में सत्ताधारी दल का पलड़ा भारी रहता है.

यह मिथक इससे पहले पिछले साल दो अन्य विधान सभा सीटों के लिए उपचुनाव में भी टूटा था, जब भिंड जिले की अटेर सतना जिले की चित्रकूट सीट पर भाजपा को कांग्रेस के मुकाबले हार का सामना करना पड़ा था. उससे भी पहले नवम्बर 2015 में आदिवासी बहुल झाबुआ-रतलाम संसदीय सीट के उपचुनाव में भी भाजपा को अपनी सीट गंवानी पड़ी थी. अटेर और चित्रकूट तो खैर पूर्व में भी कांग्रेस की ही जीती हुई सीटें थीं लेकिन झाबुआ-रतलाम संसदीय सीट पर कांग्रेस की जीत भाजपा और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के लिए बडा झटका था, क्योंकि यह सीट भाजपा सांसद दिलीप सिंह भूरिया के निधन से खाली हुई थी और भाजपा ने यहां उपचुनाव में उनकी बेटी निर्मला भूरिया को उम्मीदवार बनाकर सहानुभूति लहर पैदा करने का मंसूबा बांधा था. इस प्रकार इन सभी उपचुनावों के नतीजे भाजपा के डरावने सपने की तरह रहे, बावजूद इसके कि सभी जगह भाजपा ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी. न सिर्फ भाजपा और संघ के तमाम आनुषांगिक संगठनों बल्कि राज्य सरकार के तमाम मंत्रियों के अलावा खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने भी अपने आपको दांव पर लगा दिया था. मुंगावली और कोलारस के उपचुनाव के रोमांच को भाजपा और कांग्रेस दोनों ने ही अपनी प्रतिष्ठा से जोडकर चरम पर पहुंचा दिया था. कांग्रेस में तो ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए ये उपचुनाव निजी प्रतिष्ठा से भी जुड़े थे, क्योंकि दोनों ही सीटें उनके संसदीय निर्वाचन क्षेत्र के तहत आती हैं. अलबत्ता भाजपा और शिवराज सिंह जरूर इस चुनाव को व्यक्तित्व के बजाय विकास और अपनी सरकार के कामकाज पर केंद्रित करते दिखे. उन्होंने इन सीटों को अपनी झोली में डालने के लिए जो कुछ वे कर सकते थे, वह सब कुछ किया. राज्य सरकार के करीब दो दर्जन मंत्री इन दोनों क्षेत्रों की खाक छान रहे थे. वे मतदाताओं को तरह-तरह के पल्रोभन भी दे रहे थे और तरह-तरह से धमका भी रहे थे. एक मंत्री ने मुंगावली में जहां सभी ग्रामीण मतदाताओं को पक्के मकान देने का वादा किया तो एक मंत्री ने कोलारस में भाजपा को वोट न देने पर क्षेत्र के लोगों को बिजली-पानी जैसी सुविधाओं से वंचित करने की धमकी भी दी. खुद मुख्यमंत्री ने गांव-गांव जाकर सभाएं और रोड शो किए. चुनाव प्रचार के दौरान गांव वालों के यहां भोजन करने और कई रातें अलग-अलग गांवों में बिताने का उपक्रम भी किया. इस सबके बावजूद उपचुनाव के नतीजों ने उन्हें और उनकी पार्टी को बुरी तरह निराश किया.
इन नतीजों ने सूबे की चुनावी राजनीति में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) तथा अन्य छोटे दलों की भूमिका को भी एक बार फिर बहस के केंद्र में ला दिया है. 2013 के चुनाव में इन दोनों सीटों पर बसपा भी मैदान में थी. उसे एक जगह करीब 23 हजार और एक जगह 12 हजार से ज्यादा वोट मिले थे. इस बार बसपा चुनाव मैदान में गैरहाजिर थी. उसके वोट किसे मिले और अगर वह मैदान में होती तो नतीजे क्या रहते? यह सवाल एक अलग विश्लेषण की दरकार रखता है. बहरहाल, यही कहा जा सकता है कि इन नतीजों ने भाजपा और शिवराज सिंह को आठ महीने बाद होने वाले चुनाव के लिए अपनी रणनीति पर नये सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया है, वही हताश-निराश और कई खेमों बंटी कांग्रेस को उत्साह और उम्मीदों से भर दिया है.

अनिल जैन


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