श्रीदेवी : चपल आंखों से रचा इतिहास
सफलता और लोकप्रियता का कोई एक शिखर नहीं होता है. उसकी ऊंचाई समय के अनुसार बढ़ती-घटती रहती है.
श्रीदेवी : चपल आंखों से रचा इतिहास |
यह इतना लचीला होता है कि हर कोई अपनी क्षमता और प्रतिभा के हिसाब से उसे लंबा-चौड़ा कर सकता है. बात अगर श्रीदेवी की हो तो कहना पड़ेगा कि वह अकेली ऐसी नायिका साबित हुई, जिनके अपने दम पर फिल्में चलती थी. यह सिलसिला ‘सदमा’ से लेकर ‘इंग्लिश विंग्लिश’ और ‘मॉम’ तक देखने को मिला.
यह भी सच है कि चमक-दमक और ग्लैमर भरी दुनिया में सफलता को नापने का निश्चित पैमाना नहीं होता है. खासकर, जब हीरोइन की बात हो तो उसे पहली ही नजर में शो-पीस की तरह देखा जाता है. अगर उसने उस सीमा को पार करने का साहस कर लिया तो उसकी तुलना नायकों से करने का सिलसिला शुरू कर दिया जाता है. कभी यह चुनौती मधुबाला, मीना कुमारी और नरगिस को भी मिली थी जब उनके सामने दिलीप कुमार, राज कपूर और देव आनंद जैसे शिखर पुरु ष बैठे थे. वही चुनौती बाद में श्रीदेवी को भी मिली लेकिन उन्होंने साबित किया कि पुरुष-प्रधान इंडस्ट्री में उनकी अपनी भी औकात है.
जब कुछ लोगों को यह नहीं पचा तब श्रीदेवी के आभामंडल को सीमित करने के लिए उन्हें ‘लेडी अमिताभ बच्चन’ कहा जाने लगा. हर हीरोइन की तरह श्रीदेवी की निजी जिंदगी के बारे में बहुत सारे चाहे-अनचाहे किस्से-कहानियां रचे गए. लेकिन यह भी सच है कि अस्सी के दशक के अंत में हिन्दी सिनेमा में जब बदलाव की नई इबारत लिखी जाने लगी तो उनकी फिल्म ‘चांदनी’ ने उसमें अहम भूमिका निभाई. सत्तर के दशक में आतंक, हिंसा, हत्या, बलात्कार वाली फिल्मों का जो दौर शुरू हुआ, वह अस्सी के दशक पर भी काबिज होता गया. लेकिन इसी बीच ‘कयामत से कयामत तक’, ‘चांदनी’ जैसी एक-दो फिल्में भी बनी, जिसने अपनी सफलता से बता दिया कि नकलीपन ज्यादा दिनों तक टिका नहीं रह सकता है. इंडस्ट्री को प्रेम-कहानियों को इमोशनल अंदाज में पेश करना ही होगा. रोमांटिक फिल्मों के शहंशाह और कोमल स्पर्श से रोमांचित कर देने वाले निर्माता-निर्देशक यश चोपड़ा ने तब श्रीदेवी को लेकर ‘चांदनी’ बनाई. एक साफ-सुथरी फिल्म ने उस माहौल को पलटकर रख दिया. चांदनी के प्रेमी थे ऋषि कपूर. उस प्रेमी ने जब ‘चांदनी ओ मेरी चांदनी’ गाया तो दर्शक भी रोमांटिक हो गए. श्रीदेवी की अभिनय-प्रतिभा, उसकी मस्ती और शोखियों को देखकर लोग झूम उठे. यश चोपड़ा ने जब ‘लम्हे’ की योजना बनाई तो श्रीदेवी को ही इस फिल्म के लिए चुना. इस फिल्म की कहानी भी ‘चांदनी’ की तरह सीधी-सादी थी. तब वह एक बड़ा नाम बन चुकी थीं. उनकी हिट फिल्मों की कतार लग गई थी. उस समय उनके बारे में लिखा गया था कि हेमा मालिनी अगर दर्शकों के दिल में सौम्य धड़कन बनकर मौजूद हैं तो श्रीदेवी तेज धड़कन बन गई हैं. उन्होंने इतिहास रचा अपनी चपल आंखों और शोखी भरी थिरकन से. इसका असर सिर्फ उनके कॅरियर और टिकट खिड़कियों पर ही नहीं हुआ बल्कि उन्होंने नई पीढ़ी की लड़कियों को भी रोमांचित कर दिया. फिल्मों में हर आने वाली अभिनेत्री श्रीदेवी ही बनना चाहती थीं. वैसी ही अदा, वही मुस्कान, वही चपलता और वही कामयाबी पाना चाहती थी. उन लड़कियों को क्या मालूम कि श्रीदेवी को हवा हवाई और चांदनी बनने में कई साल लग गए. ‘सोलहवां साल’ से सफर शुरू हुआ था जो ‘सदमा’, ‘हिम्मतवाला’, नागिन, ‘चालबाज’, ‘खुदा गवाह’ से गुजरता हुआ यहां तक पहुंचा था. आज भी लोग श्रीदेवी को चांदनी के रूप में याद करते हैं.
उल्लेखनीय है कि फिल्म के टाईटल सांग ‘चांदनी ओ चांदनी..’ में श्रीदेवी ने अपनी आवाज भी दी थी. वह दौर था जब सिनेमा का मतलब एक तरफ अमिताभ बच्चन था तो दूसरी तरफ श्रीदेवी था. तब उनके सामने माधुरी दीक्षित भी थीं, जो अपने आप में कामयाबी का इतिहास बन गई थी. कुछ लोग दोनों के बीच तुलना भी करने लगे थे लेकिन इससे उन पर कोई फर्क नहीं पड़ा. श्रीदेवी की उस समय की फिल्मों को याद करें तो मानना पड़ेगा कि नायक के पैरेलल इनकी दुनिया चलती थी. अगर फिल्म ‘मिस्टर इंडिया’ अनिल कपूर और मोगैम्बो अमरीश पुरी की फिल्म थी तो उसमें श्रीदेवी का सम्मोहन व जादू भी किसी भी मायने में कम नहीं था. भारतीय सिनेमा की पहली ‘महिला सुपरस्टार’ कही जाने वाली श्रीदेवी अस्सी और नब्बे के दशक में सबसे ज्यादा पारिश्रमिक पाने वालों में शामिल थी. इसलिए कि उनकी फिल्में हिट की गारंटी हुआ करती थीं. सरकार ने उन्हें पद्मश्री से भी नवाजा था.
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