प्रसंगवश : नैतिकता की जरूरत
आजकल भावनाओं का उतार-चढ़ाव सुर्खियों में है. खास तौर पर घृणा, द्वेष, कुंठा, जैसी भावनाएं और उनसे उपजती हिंसा चारों ओर उथल-पुथल मचाती नजर आ रही है.
प्रसंगवश : नैतिकता की जरूरत |
बच्चे से लेकर प्रौढ़ तक अपने लिए हिंसा को संतुष्टि पाने का एक पक्का, सीधा और फौरी तरीका मान कर अपनाते जा रहे हैं. पहले अनैतिक घटनाएं इक्का-दुक्का होती थीं पर अब इनकी भरमार है. और तो और धर्म का नाम लांछित करते हुए सारी शर्म-हया छोड़ अनेक चतुर चालाक बाबा और गुरु जैसे लोग धर्म के संस्थागत रूप की आड़ में भावनाओं से खेलते हुए हुए दुखी, कठिनाई में पड़े व सुख की चाह रखने वाले लोगों का गिरोह बना कर शोषण करते रहते हैं, जब तक कानून की गिरफ्त में नहीं आ जाते.
इन सब घटनाओं से जुड़े ब्योरों पर गौर करें तो स्पष्ट हो जाता है कि इन सबमें अपने सुख के लिए ‘दूसरों’ को शारीरिक-मानसिक रूप से पीड़ा और हानि पहुंचाई जाती है. कोशिश यही रहती है कि किसी तरह अपने को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संतुष्ट किया जाए. इच्छाओं की इस छटपटाहट के लिए हमारे आसपास का परिवेश उत्तेजना के अवसर भी खूब दे रहा है. मीडिया और विज्ञापन नित नये आकर्षणों के साथ असंतुष्टि और अतृप्ति के मनोभावों को चौबीस घंटे हवा दे रहे हैं. चीख-चीख कर बतलाते रहते हैं कि अमुक-अमुक चीजों के अभाव में हम कुछ कमतर मनुष्य हैं, अधूरे हैं. ऐसे में ‘हमारी परिस्थितियां खंडित या अपर्याप्त हैं, यह भाव हममें से अधिकांश के जीवन का स्थायी भाव बनता जा रहा है. पात्र हों या अपात्र इच्छा पूरी न हो तो सबमें कुंठा पैदा होती है. तब जिम्मेदार स्रोत के प्रति आक्रोश ही तात्कालिक प्रतिक्रिया होती है. हिंसा, लोभ, आसक्ति और भावनाओं के जोड़-तोड़ से सामाजिक जीवन में इस तरह की प्रवृत्ति बढ़ रही है.
तीव्र भावनाएं हमारे निर्णय की क्षमता या विवेक को प्रभावित करती हैं. मोटे तौर पर भावनाओं या संवेगों को सकारात्मक और नकारात्मक, दो श्रेणियों में रखा जाता है. ये हमारी रोजमर्रे की जिंदगी में कई तरह के रंग भरते रहते हैं. संवेग कभी तटस्थ नहीं होते. दिन-प्रतिदिन का हिसाब देखें तो कोई व्यक्ति अपेक्षाकृत अधिक सकारात्मक या नकारात्मक दशाओं का अनुभव करता है. मानवीय संवेगों की अनुभूति घटनाओं की समझ या व्याख्या पर निर्भर करती है. परिस्थिति के आकलन के आधार पर ही भिन्न-भिन्न संवेगों का अनुभव किया जाता है. सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि से विचार करें तो आचारों से जुड़े नैतिक संवेग अधिक महत्वपूर्ण होते हैं. नैतिक संवेगों को हम बचपन से सीखते हैं, और वे सहजात जैसे हो जाते हैं. अपनी संस्कृति के अनुरूप हम परिस्थितियों के नैतिक पक्ष का मूल्यांकन करते हैं. जब नैतिक आत्मचेतना विकसित होती है, तो व्यक्ति स्वयं अपने व्यवहार को दंडित या पुरस्कृत करता है. लज्जा, ग्लानि व पश्चाताप नैतिक भावनाएं हैं. भावनात्मक उबाल नैतिक कार्यों की ओर उन्मुख करता है. दान देना, गलतियों के लिए क्षमा मांगना या पीड़ितों का पक्षधर होना भी ऐसे ही नैतिक आचरण हैं.
आज एक ओर नकारात्मक संवेगों का बाहुल्य है, तो दूसरी ओर नैतिक संवेग दुर्बल हो रहे हैं. इसके कई कारण हैं. आज प्रतियोगिता व भौतिक सुखों की दौड़ में संवेगों को तर्क बुद्धि के विरु द्ध रख कर पेश किया जाता है. हम भूल जाते हैं कि संवेग अपनी परिस्थिति को समझने में मदद भी करते हैं, और नैतिक फैसले भी ज्यादातर संवेग पर ही टिके होते हैं. जहां हिंसा के मनोभाव हमारे भीतर पशुता के तत्व को व्यक्त करते हैं, वहीं नैतिकता हमें गरिमा देती है, और अच्छा व्यक्ति बनाती है. पशुता के उलट वह मानवता का चरम रूप उपस्थित करती है . नैतिक मनोभाव और व्यवहार इस रूपांतरण को रेखांकित करते हैं. नैतिक मनोभाव दूसरों के हित से जुड़े होते हैं. अत: भावनाओं को समझ कर इन पर ध्यान देने की जरूरत है. इतने महत्व के बाद भी इस विषय पर खास तवज्जो नहीं दी जाती है.
मनोवैज्ञानिक शोध में भी नकारात्मक भाव जैसे क्रोध पर तो ध्यान गया है पर बाकी उपेक्षित ही है. आत्म-चेतन संवेग नैतिक आचरण के लिए जरूरी हैं. इनमें यह सोच कि हमारा व्यवहार दूसरों को प्रभावित करेगा, दूसरे उसे कैसे स्वीकार करेंगे, महत्त्वपूर्ण होता है. धर्म की व्यापक अवधारणा में धैर्य, क्षमा, अहिंसा, मैत्री, करुणा, दया, उदारता, सत्य, अक्रोध जैसे नैतिक भावों और संवेगों पर बल दिया जाता है. इनकी प्रतिष्ठा में ही सह अस्तित्व और सामाजिक जीवन की समरसता सुरक्षित हो सकेगी.
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