शीर्ष अदालत : अयोध्या पर टिप्पणी उचित

Last Updated 12 Feb 2018 12:36:44 AM IST

अयोध्या विवाद पर उच्चतम न्यायालय में चल रही सुनवाई पर पूरे देश की नजर है. इसलिए वहां से जो भी खबरें आतीं हैं वह सुर्खियां बनतीं हैं.


शीर्ष अदालत : अयोध्या पर टिप्पणी उचित

उच्च्तम न्यायालय ने 8 फरवरी की सुनवाई के दौरान कहा कि वह इसे सिर्फ  भूमि विवाद के रूप में देख रही है. यानी वह केवल इस बात की सुनवाई करेगी कि 2.77 एकड़ की जो विवादित भूमि है उस पर किसका स्वामित्व बनता है? न्यायालय की इस टिप्पणी को लेकर कुछ प्रतिक्रियाएं आई हैं. लेकिन इस टिप्पणी को सकारात्मक दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है. हमारी भावनाएं क्या हैं, हमारी आस्था क्या कहती हैं..आदि आधार पर न्यायालय न सुनवाई कर सकती है न कोई फैसला दे सकती है.
न्यायालय को ठोस सबूतों और तथ्यों के आधार पर फैसला करना होता है. इसलिए न्यायालय ने जो कुछ कहा है वह बिल्कुल स्वाभाविक है. न्यायालय के अंदर मामला ही यही है कि उस भूमि पर आखिर अधिकार किसका है? इसके अभी तीन पक्षकार हैं, निर्मोही अखाड़ा, रामलला विराजमान एवं सुन्नी वक्फ बोर्ड. शिया वक्फ बोर्ड की ओर से हाल में उच्चतम न्यायालय में यह दावा दायर किया गया है कि उसमें सुन्नी वक्फ बोर्ड का नहीं उनका हक बनता है. न्यायालय इस पर क्या फैसला देती है यह आगे की बात है. लेकिन इस समय तीन ही पक्षकार हैं. इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी इन्हीं तीन पक्षकारों की सुनवाई करके फैसला दिया था. इसलिए न्यायालय के इस कथन को सही परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए.
हम मानते हैं कि अयोध्या विवाद से करोड़ों की भावनाएं जुड़ीं हैं, पर न्यायालय के सामने जो 20 याचिकाएं इससे संबंधित लंबित हैं, जिनका संज्ञान लिया गया है, उन सारे में विवादास्पद भूमि पर दावा ही तो किया गया है. तो फिर फैसला दूसरी किसी बात का कैसे हो सकता है? हालांकि न्यायालय ने जो कहा है, उसको सीमित अर्थ में नहीं लिया जाए. इसका यह निष्कर्ष न निकाला जाए कि जो ऐतिहासिक, पुरातात्विक, या प्राचीन ग्रंथों से संबंधी सबूत हैं, उनको न्यायालय ने अपनी सुनवाई की परिधि से बाहर कर दिया है. बाजाब्ता सुनवाई आरंभ करने में देरी ही इसलिए हो रही है क्योंकि उच्च न्यायालय मेंप्रस्तुत इन सारे सबूतों और तथ्यों के अनुवाद नहीं हो पाए हैं. न्यायालय ने स्वयं यह आदेश दिया है कि सभी पक्षों को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा की गई खुदाई के वीडियो उपलब्ध कराई जाए और उस पर जो खर्च आता है वह उनसे वसूल लिया जाए. पुरातत्व विभाग की खुदाई का वीडियो अगर सुनवाई में शामिल हो रहा है तो इसका अर्थ बिल्कुल साफ है. भूमि के स्वामित्व का निर्णय करते समय पूरी सूक्ष्मता से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की ओर से दिए गए साक्ष्यों की भी जांच होगी. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने 1970, 1992 एवं 2003 में खुदाई की थी. इसी तरह जिन 42 ग्रंथों को उच्च न्यायालय में पेश किया गया, उनके संबंधित अंशों का भी अनुवाद हुआ है. ये ग्रंथ, संस्कृत, पाली, फारसी, अरबी, उर्दू आदि भाषाओं में हैं. कहा गया है कि केवल रामचरित मानस और श्रीमद्भागवत गीता के आवश्यक अंशों का अनुवाद होना शेष है.

इसलिए यह आशंका भी किसी को नहीं होनी चाहिए कि उस स्थल से संबंधित बातें जो उनके धार्मिंक ग्रंथों या अन्य ऐतिहासिक मान्यता वाली पुस्तकों में किया गया है वे शायद बाहर हो जाएंगे.
वास्तव में इससे संबंधित साक्ष्य एवं तथ्य जितने ज्यादा हैं, उनके आयाम जितने विस्तृत हैं उन्हीं से यह मामला ज्यादा जटिल हो जाता है.  कुल 524 दस्तावेजों में से 504 के अनुवाद उच्चतम न्यायालय में दाखिल हो चुके हैं. जिन पुस्तकों की बात हमने की, उनसे संबंधित नौ हजार पृष्ठ हैं जिनका अनुवाद किया जाना था. इसके अलावा 90 हजार पृष्ठों में 87 गवाहों के बयान दर्ज हैं. जो सूचना है इनका अनुवाद और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण रिपोर्ट भी दाखिल हो चुका है. यह उम्मीद की जा सकती है कि 14 मार्च को होने वाली अगली सुनवाई तक सारे दस्तावेज सभी पक्षों को अनुवाद सहित उपलब्ध हो जाएंगे. उसके बाद न्यायालय अपनी सुविधानुसार नियमित सुनवाई कर सकेगा. शायद प्रतिदिन सुनवाई संभव न हो, क्योंकि जब यह मांग न्यायालय के समक्ष रखी गई तो मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा ने कहा कि यह मामला महत्त्वपूर्ण है और इसकी हमें चिंता है लेकिन न्यायालय के सामने 700 मामले ऐसे हैं, जिनकी सुनवाई के लिए याची गुहार कर रहे हैं.
यह बात ठीक है कि देश इस लंबे विवाद का शीघ्र समाधान चाहता है. यह विवाद देश में सांप्रदायिक तनाव और आपसी दुर्भावना पैदा होने का कारण बना है. इसलिए देश के हित में भी यही है कि इसका जल्दी-से-जल्दी निपटारा हो जाए. न्यायालय के बाहर इसके समाधान के लिए बातचीत भी हो रही है. अगर हिन्दू और मुस्लिम पक्षों के बीच बातचीत से इसका समाधान हो जाए तो इससे बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता. इसके कई बार प्रयास हुए. दोनों पक्ष आमने-सामने बैठे. विवाद जहां के तहां रहा. हां, राजनीतिक दल यदि ईमानदारी और गंभीरता से लगते तो कुछ रास्ता निकल सकता था. पर राजनीतिक दलों का सरोकार विवाद से ज्यादा अपने वोट बैंक से रहा है. ज्यादातर दल इसमें हाथ डालकर और स्पष्ट रु ख अपनाकर अपना वोट आधार पर जोखिम नहीं उठाना चाहते. राजनीतिक दलों के बगैर दोनों पक्षों के बीच सहमति करने का दबाव नहीं पड़ सकता. राजनीतिक दल अपना रवैया बदलने से रहे. इसलिए हमें भावनाओं से बाहर आकर यह मान लेना होगा कि न्यायालय के अलावा इसका फैसला अब कहीं से संभव नहीं है. 30 सितम्बर 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक फैसला दिया. उसने हालांकि इसे जमीन का विवाद नहीं माना था लेकिन जमीन को तीनों पक्षकारों के बीच बराबर बांट दिया. उसके बाद भी बातचीत कर समाधान निकाला जा सकता था.
किंतु ऐसा नहीं हुआ तो इसके गहरे कारणों को हमें समझना होगा. सभी पक्ष उच्चतम न्यायालय गए और वे घोषणा कर रहे हैं कि जो भी फैसला आएगा वह हमें मंजूर होगा. तो उच्चतम न्यायालय एवं उसे लेकर पक्षकारों की टिप्पणियां उम्मीद जगाती हैं कि अयोध्या विवाद का समाधान शायद हो जाएगा. न्यायालय की अभी तक की सारी टिप्पणियां इसी ओर इशारा कर रही है.

अवधेश कुमार


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