मुद्दा : मर्ज बन गया कारों का मेला
आधुनिक दुनिया में कारें विकास का प्रतीक बन गई हैं. दो साल पहले (2016 में) आयकर विभाग ने टैक्स चुकाने वालों का एक आंकड़ा पेश कर एक तुलना की थी.
मुद्दा : मर्ज बन गया कारों का मेला |
उसने कहा था कि देश में सिर्फ 24.4 लाख करदाताओं ने अपनी सालाना आय दस लाख से ज्यादा बताई, जबकि हर साल यहां 25 लाख कारें खरीदी जा रही हैं. खास बात यह है कि इनमें से करीब 35 हजार कारें लग्जरी गाड़ियों में आती हैं, जिनकी कीमत दस लाख से ज्यादा होती है. सवाल यह उठाया गया है कि जब आमदनी नहीं है तो आखिर महंगी कारें खरीदने वाले लोग कौन हैं?
बहरहाल, दिल्ली के नजदीक ग्रेटर नोएडा में आयोजित देश के 14वें ऑटो एक्सपो में देश-विदेश की ज्यादातर कार कंपनियां इस हसरत के साथ भागीदारी कर रही हैं कि कार बाजार में होने वाला उछाल उनकी हालत ही नहीं सुधारेगा, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था में भी प्राण फूंक देगा, भले ही कार खरीदने वाले लोग इनकम टैक्स ना दें. इधर, पिछले कुछ वर्षो में दिल्ली और गुड़गांव आदि शहरों में अपनाए गए सम-विषम (ऑड-ईवन) के फॉर्मूले से घबराई कार कंपनियों को डर है कि कहीं ऐसे नुस्खे ज्यादा राज्यों में या पूरे देश में न फैल जाएं. इसलिए सवाल उठ खड़ा हुआ है कि देश और सरकार आखिर किसे प्राथमिकता दे? वह कार कंपनियों के हितों के बारे में चिंतित होते हुए अर्थव्यवस्था की फिक्र करे या ट्रैफिक जाम से लेकर पर्यावरण-सुधार की योजनाओं पर अमल करते हुए जनता की सेहत को अपने एजेंडे में ले.
हमारे देश में यह तकरीबन साबित हो चुका है कि मिडिल क्लास भी कार के मामले में दिखावे को अहमियत देता है, न कि जरूरत को. वे लोग भी कार खरीदते हैं, जिनके घर के पड़ोस में आसानी से सार्वजनिक बस-ऑटो से लेकर मेट्रो तक के विकल्प उपलब्ध हैं. इधर पिछले दो-तीन वर्षो से कंपनियां कारों की बिक्री में हुई थोड़ी-बहुत कमी से घबराई हुई हैं. यही वजह है कि कार कंपनियां ग्रेटर नोएडा ऑटो एक्सपो जैसे आयोजनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं और यह सपना देख रही हैं कि इस देश की विशाल मध्यवर्गीय आबादी, जिसकी खरीद क्षमता में पिछले एक-डेढ़ दशकों में काफी इजाफा हुआ है, कारों पर मेहरबान होगी और कार कंपनियों को मालामाल कर देगी. कोई शक नहीं कि कार बाजार की बदौलत देश की अर्थव्यवस्था में हलचल पैदा हुई. इससे देश में हजारों-लाखों नये रोजगार भी पैदा हुए हैं. लेकिन कारों के उत्पादन और बिक्री का यह एकपक्षीय पहलू है. दूसरा पक्ष यह है कि यही कारें पर्यावरण की शत्रु साबित हुई हैं. साथ ही कारें उस ट्रैफिक समस्या का कोई खास विकल्प नहीं बन पाई हैं, जिसके हल के रूप में उन्हें पेश किया गया था. अलबत्ता ज्यादातर परिवारों के लिए महंगी-से-महंगी कारें स्टेटस सिंबल जरूर हैं लेकिन ध्यान रहे कि स्टेटस बढ़ाने वाली कारें किसी समस्या का समाधान नहीं सुझाती हैं, जबकि हमारे देश में किसी भी ऐसे उपक्रम का पहला उद्देश्य बड़ी दिक्कतों को हल निकालना होना चाहिए. यूं देश में एक तबका ऐसा भी है, जो कारों को जरूरी कमोडिटी (साधन) मानता है. आज की पीढ़ी कहीं आने-जाने के लिए बस, मेट्रो या ऑटो-टैक्सी पर निर्भर नहीं रहना चाहती, बल्कि वह निजी ट्रांसपोर्ट की हिमायती है. कारों को समस्या के रूप में देखने की नीति या समझ के विरोधियों का एक अलग मत है. वे कहते हैं कि समस्या कारें नहीं, बल्कि सड़कों व ट्रांसपोर्ट के दूसरे इंतजामों की है. हमारे देश में ज्यादातर सड़कें कारों के हिसाब से डिजाइन नहीं की गई. पार्किग के समुचित प्रबंध नहीं किए. ऐसी ही समस्याओं के चलते कारें किसी समस्या का समाधान बनने की बजाय खुद में एक समस्या बन गई हैं.
पर्यावरणविद् सवाल उठाते हैं कि आखिर देश में कारों की जरूरत ही क्यों होनी चाहिए, जबकि सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को बेहतर करके लोगों की ट्रांसपोर्ट संबंधी जरूरतों का आसानी से हल निकाला जा सकता है. देश में निजी कारों को बढ़ावा देने का काम सार्वजनिक परिवहन की कीमत पर किया जा रहा है. देश में आप जितनी चाहें उतनी निजी कारें खरीद सकते हैं, चला सकते हैं. मगर इसके विकल्प के रूप में जो सार्वजनिक परिवहन की सुविधा होनी चाहिए, वह नदारद है. जैसे दिल्ली में कुल ट्रैफिक का 75 प्रतिशत हिस्सा निजी कारों का है लेकिन उनसे यात्रा की 20 प्रतिशत से भी कम जरूरत पूरी होती है. यह हालत तब है जब इस शहर के केवल 30 प्रतिशत परिवारों के पास कार की सुविधा है. ऐसे में कारों का अंधाधुंध उत्पादन और खरीद ट्रैफिक और प्रदूषण का क्या हाल करेगा, इस बारे में विचार ही किया जाना चाहिए.
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