मुद्दा : कहां हैं किसानों के अच्छे दिन?
किसान अन्नदाता अवश्य है परंतु आज स्वयं खस्ताहाल है. वर्ष 2014 में गांव-गांव में ‘अच्छे दिन’ की गूंज सुनाई दी.
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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि उनकी सरकार किसान की आमदनी दोगुना करेगी. लेकिन सचाई यह है कि इन वर्षो में खेती से आय घटी है. कृषि क्षेत्र में अगले 4 वर्षो में प्रति वर्ष 6 प्रतिशत से अधिक वार्षिक वृद्धि दर और समर्थन मूल्यों में 22 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर देकर ही कृषि क्षेत्र से किसान की आय को लगभग दोगुना किया जा सकता है. लेकिन सत्यता यह है कि किसान की आमदनी का वर्तमान स्तर भी बना रहेगा, यह कहना कठिन है. प्राकृतिक प्रकोप की स्थिति में किसान का सहारा फसल बीमा योजना थी.
वर्तमान एकीकृत फसल बीमा योजना से किसान परेशान है. यह योजना किसान के बजाय कंपनियों के हितों को देखकर बनाई गई है. कृषि एवं बागवानी क्षेत्र में केंद्रीय योजनाओं जैसे राष्ट्रीय कृषि विकास योजना आदि में केंद्र सरकार का अंशदान घटने से कृषि क्षेत्र में निवेश घटा है. मनरेगा और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना का सहारा न हों तो छोटा किसान और बटाईदार भूखे मर जाएंगे. वर्ष 2016-17 के यूनियन बजट में खेती से आय दुगुना करने की योजना की घोषणा हुई थी, और आज वर्ष 2018-19 में सरकार को सफाई देनी पड़ रही है कि सरकार का लक्ष्य खेती से किसान की आय को दुगुना करना नहीं है, बल्कि किसान की सकल आय को दोगुना करना है अर्थात किसान की अन्य धंधों, व्यवसायों तथा परिवार के सदस्यों की नौकरी से होने वाली आय भी अब किसान की कृषि आय का हिस्सा मानी जाएगी.
लेकिन जीएसटी और नोटबंदी के कारण उद्योग-धंधे लस्त-पस्त हैं. ऐसे में अन्य साधनों से किसान की आय दोगुना करना दिवास्वप्न सा लगता है. यदि कर्ज माफ नहीं होता है तो खेती पर कर्ज का दबाव बढ़ जाएगा. परिणामस्वरूप किसानों की आत्महत्याओं की संख्या और बढ़ने की आशंका है. उत्तर प्रदेश में एक दलित किसान का टैक्टर जब ऋणदाता कंपनी उठाकर ले जानी लगी तो गिड़गिड़ाता किसान अपने ही टैक्टर से कुचल डाला गया. हम अपनी विकास दर को लेकर कितनी ही उछल कूद मचा लें और विश्व बैंक तथा क्रेडिट रेटिंग एजेंसीज कुछ भी कहें, हम इस तथ्य को नहीं भूला सकते कि माइक्रो स्तर पर अर्थव्यवस्था में अस्त-व्यस्तता है. बेरोजगारी लगातार बढ़ रही है. प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना, स्टैंड अप, स्टार्ट अप, मुद्रा, मेड इन इंडिया के सारे दावे बढ़ती बेरोजगारी के सामने सच नहीं माने जा सकते. अमीरों की अमीरी जरूर बेतहाशा बढ़ी है. दावोस के र्वल्ड इकनॉमिक फोरम में प्रस्तुत एक र्पिोट के अनुसार भारत के एक प्रतिशत अमीरों ने वर्ष 2017 में भारत में कुल पैदा संपदा के 73 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा जमाया है. पैंसठ करोड़ लोगों के हिस्से कुल उत्पादित संपदा का 1 प्रतिशत हिस्सा आया है. अमीरों के पक्ष में यह वृद्धि 1997 की तुलना में लगभग ढाई गुनी है. पिछले 3 वर्षो में देश के कॉरपोरेट सेक्टर को जो छूट दी गई, उनका एक तिहाई हिस्सा यदि किसानों को सार्वभौम ऋणमाफी के तौर पर दिया गया होता तो कृषि क्षेत्र में अच्छा सुधार दिखाई देता. कृषि क्षेत्र की उत्पादकता पर पर्यावरणीय परिवर्तनों का नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है.
र्वल्ड इकनॉमिक फोरम द्वारा जारी एक दस्तावेज के अनुसार भारत इन्क्लूसिव डेवलपमेंट इंडेक्स में उभरती हुई 79 अर्थव्यवस्थाओं में बासठवें स्थान पर है. दो साल पहले साठवें स्थान पर था. इस इंडेक्स का निर्धारण देश के लोगों के जीवन स्तर, कर्ज ग्राह्यता और पर्यावरणीय संवेदनाओं के आधार पर होता है. चीन और पाकिस्तान इस इंडेक्स में पच्चीसवें और सैतालीसवें स्थान पर है. नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका भी हमसे बेहतर स्थिति में हैं. इन देशों ने कृषि एवं शिल्प, दोनों में पर्याप्त सुधार किए हैं. बांग्लादेश और श्रीलंका ने ग्रामीण क्षेत्र में माइक्रो लैंडिंग सुविधाओं को बहुत बढ़ाया है. उसका प्रभाव स्पष्ट तौर पर उनके नागरिकों के जीवन स्तर पर दिखाई देता है. हमें किसानों की चुनौतियों का राजनीतिकरण के बजाय राष्ट्रीयकरण करना चाहिए. कृषि क्षेत्र में सुधारों को प्राथमिकता देनी चाहिए. मंझोला किसान-छोटा किसान, छोटा किसान-सीमांत किसान होता जा रहा है. हम कृषि प्रधान देश हैं परंतु किसान प्रधान देश नहीं हैं. इसलिए किसान दूर क्षितिज में तांकता हुआ अपने से सवाल कर रहा है. क्या सचमुच अच्छे दिन आ रहे हैं, यदि हां, तो अभी कितनी दूर हैं?
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