सामयिक : आस जगाता, आशंका जताता
आर्थिक सर्वेक्षण बहुत आए हैं. हर साल ही आते हैं. पर पिछले कुछ सालों से आर्थिक सर्वेक्षण का महत्व सिर्फ यह नहीं है कि उसमें अर्थव्यवस्था की खाता-बही होती है.
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वह तो होती है, पर अब आर्थिक सर्वेक्षण सिर्फ खाता- बही से आगे जाकर कुछ दूर की सोच भी रखने लगा है. कुछ ऐसे मसलों पर बात रखने लगा है, जो मोटे तौर पर तो दिखते हैं कि अरे, इनका आर्थिक सर्वेक्षण से क्या ताल्लुक पर सच यह है कि हर मसले का आर्थिक मसले से ताल्लुक है. जो ऊपर से सामाजिक मसले लगते हैं, वो गहराई में आर्थिक मसले भी हैं.
आर्थिक सर्वेक्षण ने पहली बार बेटा-बेटी से जुड़ी सामाजिक धारणाओं को अपने अंदाज से विश्लेषित किया है. इसका स्वागत किया जाना चाहिए. अधिकांश भारतीय पाखंडी हैं, कहने-करने में बहुत फर्क होता है. नारी समानता के नारे लगाते पढ़े-लिखे पत्रकार और प्रोफेसरों की संतानों का क्रम यह हो सकता है-दो बेटियां और सबसे छोटा बेटा. कई जगह तीन बेटियां मिल सकती हैं. बेटा चाहिए, बेटा जब तक ना मिलेगा, तब तक बेटियों की संख्या बढ़ाते जाएंगे-यह ऐसा नारा है, जो आम भारतीय लगाता नहीं है, इस पर अमल करता है. इस बात को इस आर्थिक सर्वेक्षण में बहुत व्यवस्थित तरीके से रखा गया है. आर्थिक सर्वेक्षण के खंड एक चैप्टर सात पूरा का पूरा इस विमर्श पर केंद्रित है.
सर्वेक्षण बताता है कि जब तक बेटे की प्राप्ति नहीं हो जाती, तब तक संतानों का क्रम चलता रहता है. पहला बेटा हो जाए तो भी दूसरी संतान की प्रतीक्षा रहती है. औसत भारतीय दो बच्चों की कामना करता है. आर्थिक सर्वेक्षण परोक्ष तौर पर यह भी संकेत कर रहा है कि भारतीय परिवार नियोजन का वह अभियान जिसमें कहा गया था-सिर्फ एक या दो बच्चे ही होते हैं अच्छे-कामयाब ना हुआ, एक पर अधिकांश ना रु के. बेटा बेटी एक समान का नारा भी नारा ही रहा. सर्वेक्षण बहुत महत्त्वपूर्ण आंकड़ा देता है कि बेटे की चाह में जो बेटियां आ गई हैं, उनकी तादाद दो करोड़ दस लाख है. यह कितनी बड़ी संख्या है, इस बात का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि ऑस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या इतनी है.
फिनलैंड की कुल जनसंख्या की लगभग चार गुनी संख्या की लड़कियां भारत में हैं. इस आंकड़े पर भारत को शर्मसार होना चाहिए. लड़का लड़की भेदभाव के आर्थिक आयामैहैं. बहुत गहराई से बात करें तो पता लगता है कि तमाम अभिभावक बेटियों को खर्च मानते हैं, और बेटों को निवेश. निवेश कुछ प्रतिफल देकर जाता है. खर्च से ऐसी कोई उम्मीद नहीं की जा सकती. बेटियां पराया धन होती हैं-इस कहावत के पीछे की मानसिकता साफ है कि बेटियों को पाल-पोस कर बड़ा कीजिए पर उनसे उम्मीद व्यर्थ हैं क्योंकि उन पर मिल्कियत परायों की होगी. आर्थिक सर्वेक्षण इन सारी बातों को बहुत दस्तावेजबद्ध तरीके से रखता है. बेटियों को सार्थक धन माना जाए, ऐसा दीर्घकालीन अभियान छेड़ा जाना जरूरी है. ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ काफी नहीं है.
सर्वेक्षण साफ करता है कि महिलाओं की हित रक्षा के लिए कई कदम उठाए गए हैं. पचास कर्मिंयों से ज्यादा वाले संस्थान में क्रेच जरूरी होगा. रोजगाररत महिलाओं के लिए 25 हफ्ते का मातृत्व अवकाश जरूरी किया गया है. पर यह सब काफी नहीं है. बहुत कुछ किया जाना बाकी है. महिलाओं की सार्थक भूमिका से देश की अर्थव्यवस्था में और बेहतरी आएगी, ऐसा माना जा सकता है. महिलाओं को अभी भी कारोबारी, कर्मठ आबादी में उचित स्थान मिलना बाकी है. इस बात को आर्थिक सर्वेक्षण ने बहुत अलग तरीके से रेखांकित किया है. पीएम नरेन्द्र मोदी लगातार अपने भाषणों में किसानों की आमदनी 2022 तक दोगुनी करने की बात करते हैं, पर सर्वेक्षण तो एक नये खतरे की बात करता है.
बताता है कि जिस तरह के बदलाव मौसमों में आ रहे हैं, उनके चलते किसानों की आमदनी में कमी आ सकती है. सर्वेक्षण आगाह करता है कि मौसमी बदलावों के चलते निकट भविष्य में किसानों की आय में गिरावट आ सकती है. आगाह करता है कि अति वृष्टि, कम बारिश होने की आशंकाएं बढ़ रही हैं. सूखे दिनों की संख्या बढ़ रही है. तापमान ऊपर जाने की आशंकाएं बढ़ रही हैं. मतलब मौसम का मिजाज असामान्य हो रहा है. इसके चलते खेती से होने वाली कमाई में औसतन 15 से 18 प्रतिशत की गिरावट दर्ज होने की आशंका है. जिन इलाकों में सिंचाई की व्यवस्था नहीं है, वहां गिरावट 20 से 25 प्रतिशत तक हो सकती है. पुरानी समस्याओं से ही निपटना संभव ना हो पा रहा है, मौसम के मिजाज के बदलावों ने नये मुद्दे पेश कर दिए. इन पर ध्यान देना जरूरी है.
नीतिगत कदम उठाया जाना जरूरी है. इन मसलों के हल कुछेक महीनों के एक्शन से नहीं आएंगे. यह ऐसा मसला है, जो दीर्घकालीन एक्शन की मांग करता है. इसमें केंद्र और राज्य सरकारों को मिल कर कुछ करना होगा. मौसम के बदलावों को समझना और उनके अनुरूप खेती की रणनीति बनाना ज्ञानपरक और धनपरक कार्य है. यूं आमफहम तौर पर यह बात कही-सुनी जाती थी, पर आर्थिक सर्वेक्षण ने व्यवस्थित तरीके से बताया कि सिर्फ पांच राज्य-महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, तमिलनाडु और तेलंगाना देश से होने वाले निर्यात का सत्तर प्रतिशत निर्यात करते हैं. गौरतलब है कि ये राज्य ही भारत के संपन्न और खुशहाल राज्यों में गिने जाते हैं. इस आंकड़े से यह बात भी समझ में आनी चाहिए कि इन राज्यों का ताल्लुक समुद्र तट से भी है. तो क्या समुद्र तट होने से निर्यात की विकास की क्षमताएं खुद-ब-खुद आ जाती हैं, नहीं. ऐसा नहीं होता.
ओडिशा भी समुद्र तटीय राज्य है, पर गरीब राज्यों में से एक है. निर्यात की क्षमताएं विकसित करनी होती हैं, ग्लोबल स्तर की क्वालिटी देकर. काम आसान नहीं है. यह काम करने वाली कंपनियों ने खुद को भी खुशहाल किया और उन राज्यों को भी खुशहाल किया है, जहां वो काम कर रही हैं. निर्यात और खुशहाली के रिश्ते को देखकर साफ होता है कि उत्तर भारतीय राज्यों और खास तौर पर उत्तर प्रदेश और बिहार में सोचा जाना चाहिए कि आखिर विश्व क्लास निर्यात कारोबार विकसित कैसे हों? यह काम आसान नहीं है, पर जरूरी काम है. सिर्फ खेती के भरोसे चल रहे उत्तर भारतीय राज्यों के लिए तो सर्वेक्षण चेतावनी दे रहा है, उसे गंभीरता से सुने जाने की जरूरत है.
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