बैंकिंग : कुछ दिया न लिया
प्राय: यह देखा जाता है कि जब भी कोई आकर्षक स्कीम बाजार में आती है, तो उसमें कहीं न कहीं छोटा-छोटा लिखा होता है ‘कंडीशंस अप्लाई’.
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लगभग ऐसा ही सरकार ने सरकारी बैंकों को पूंजी देने के निर्णय के साथ किया है. जिन बांड्स के अंतर्गत यह पैसा दिया जाना है, उसकी विस्तृत जानकारी अभी नहीं दी गई है. मगर ऐसा जरूर इंगित किया गया है कि बांड्स सरकार और बैंकों के बीच का मामला होगा. इसका सीधा-सा मतलब यह है कि इस स्कीम में आम जनता और विदेशी निवेशक पैसा नहीं लगा सकेंगे. वहीं, दूसरी ओर यह भी इंगित किया गया है कि इन बांड्स को ‘एसएलआर’ की मान्यता नहीं दी जाएगी. यह विचारणीय बात है क्योंकि सरकार पहले ही यह स्पष्ट कर चुकी है कि वह वित्तीय घाटे को नियंत्रण में रखेगी और ये 88139 करोड़ रुपये सरकार के लिए ‘कैश न्यूट्रल’ रहेंगे. मतलब सरकारी बांड्स में बैंक पूरी राशि को निवेश करेंगे और वही पैसा सरकार इक्विटी के तौर पर बैंकों को दे देगी.
अब आइए, इस बात पर गौर करें कि बैंक पैसा कहां से देंगे? ‘एसएलआर’ और ‘सीआरआर’ में निवेश के उपरांत जो पैसा बैंकों के पास बचता है, उसे वह ऋण के तौर पर दे देते हैं, और यदि ऋण पूरी तरह से न दिए जा सकें तो इसके तीन कारण हो सकते हैं. पहला कारण-ऋण की मांग ही न हो. दूसरा-बैंक ऋण देने में अधिक सख्त रुख अपना रहा हो यानी मार्केटिंग नहीं कर रहा हो; तथा तीसरा-उसके पास पूंजी पर्याप्तता न हो तो वह पैसा निवेश किया जाता है. दुर्भाग्य से ये तीनों समस्याएं इस समय सरकारी बैंकिंग क्षेत्र को सता रही हैं. सरकार द्वारा घोषित स्कीम द्वारा सिर्फ पूंजी पर्याप्तता को पूरा किया जा रहा है. मगर बैंकों के रुख में सख्ती बरकरार रहेगी. इसका प्रबंध भी किया जा रहा है, जिम्मेदारियां बढ़ा कर बल्कि सही कहिए तो उसे और सख्त किया जा रहा है.
सरकार चाहती है कि बैंक अपने कोर को पहचानें और सिर्फ उसी पर फोकस करें. इसका मतलब है कि फीस आधारित कार्य सिमट जाएं. यह तो और मुसीबत भरी बात होगी क्योंकि सरकारी बैंक इधर बहुत फोकस कर रहे थे. इस कार्य में पूंजी की आवश्यकता सिर्फ ऑपरेशनल जोखिम तक ही सीमित होती है. बैंकों पर अधिक जिम्मेदारी डाले बिना पूंजी देना घातक है. ऐसा सरकार मानती है. स्पष्ट है कि सरकार पैसा तो दे रही है, मगर वह विश्वास नहीं दे रही जिससे कि बैंक बिना भय ऋण दे सकें. ये प्रयास सिर्फ एक चीज से सफलता को प्राप्त होंगे और वह है आर्थिक विकास. इसी से ऋण की मांग में अप्रत्याशित वृद्धि और निर्यात सेक्टर में उछाल आता है. यह कह पाना आसान नहीं कि ऐसा हो ही जाएगा. मगर सोचने की बात यह है कि अगर नोटबंदी न हुई होती तो क्या सरकार इस तरह की स्कीम ला सकती थी? शायद नहीं. इसी क्रम में सोचा जाए कि तब सरकार के पास क्या विकल्प होते? शायद उन विकल्पों पर विचार किया जाना जरूरी था. सरकार को बैंकों से अपने मोह को आज नहीं तो कल दूर करना ही होगा. बैंकों को राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का मोह त्यागना होगा.
बैंकों को पूंजी देने की घोषणा सरकार द्वारा अपनी संप्रभुता रेटिंग का उपयोग मात्र है. मगर यह एक प्रकार की ऐसी ‘आकस्मिक देयता’ है, जो भविष्य में बैंकों की कार्यप्रणाली, वैश्विक आर्थिक माहौल एवं वसूली के प्रयासों पर निर्भर होगी. यदि यह देयता सदैव ‘वित्तीय घाटे से निरपेक्ष’ रखनी है, तो बैंकों की कार्यक्षमता, दक्षता और लाभ कमाने की योग्यता पर ध्यान देना होगा. सरकार ने यह एक जुआ ही खेला है, और एक तरह से ‘बासेल मार्गदशर्न’ को धता ही बताया है. पूंजी देने का मतलब है-पूंजी दी जाए. वह तो दी नहीं गई. यह तो बिल्कुल ऐसा है जैसे कोई ऋण लेकर शेयर मार्केट में लगाए और वहां के लाभ से ऋण को वापिस कर दे. इस मामले में वह लाभ डिविडेंड के तौर पर इन्हीं बैंकों की बांह मरोड़ कर लिया जाएगा. और बांड के क्रमिक विमोचन द्वारा वापस कर भी दिया जाएगा. यदि यह दांव ठीक रहा और बैंकों के शेयरों के दाम बढ़े तो मिनिमम 51 प्रतिशत तक शेयरों का इश्यू लाकर अपना पैसा प्रीमियम पर वापस ले लिया जाए. इस स्कीम के पीछे यही सोच काम कर रही प्रतीत हो रही है. सच बताऊं मुझे तो केतन पारिख की याद आ गई. काश! वह भी ग्लोबल ट्रस्ट बैंक से लिए हुए ऋण को शेयर मार्केट के अच्छा होने पर समय रहते वापस कर पाता.
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