स्मार्ट शहर- काहिली का जिम्मेदार कौन?
दुनिया में आज हर देश अपने शहरों को शोकेस करता है. इससे उस देश में हो रहे विकास की एक झलक मिलती है.
![]() स्मार्ट सिटी परियोजना |
हमारे देश में वर्ष 2015 में शुरू की गई स्मार्ट शहरों की महत्त्वाकांक्षी योजना का भी यही मकसद है कि दुनिया इन चमकते-दमकते शहरों की बदौलत भारत के बारे में अच्छी राय बनाए. पर तब क्या हो, जब पता चले कि जिन शहरों ने खुद को स्मार्ट शहरों की लिस्ट में शामिल कराने ऐड़ी-चोटी का जोर लगाकर सरकार से अच्छा-खासा फंड हासिल किया था, उन शहरों के लुंज-पुंज प्रशासन ने आवंटित पैसे को खर्च कर बीते दो वर्षो में विकास कार्य में कोई दिलचस्पी ही नहीं दिखाई. लगता है कि उनका सारा जोर खुद की ब्रांडिंग को लेकर था, शहर हर पैमाने पर स्मार्ट हो जाए-ऐसी कोई नीयत थी ही नहीं.
सत्ता में आते ही मोदी सरकार ने जिन महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं की घोषणा की थी, उनमें से एक स्मार्ट सिटी परियोजना थी. इस योजना के तहत चुने गए 90 शहरों को 2022 तक स्मार्ट बनाने के लक्ष्य के पीछे यह धारणा काम कर रही है कि 2050 तक हमारे देश की 70 फीसद आबादी शहरों में रह रही होगी. ऐसे में देश के करीब 100 शहर तो ऐसे होंगे, जो नागरिकों की हर जरूरत को पूरा करने के साथ-साथ हर आय वर्ग की पनाहगाह बन सकें और रोजगार से लेकर पर्यावरण तक के अनिगनत पैमानों पर आदर्श व आधुनिक कसौटियों पर खरे उतर सकें. हालांकि इसमें यह एक विरोधाभास उसी समय छोड़ दिया गया था कि स्मार्ट सिटी परियोजना की सफलता का दारोमदार स्थानीय प्रशासन और नगर निकायों पर डाला गया, जिनकी लापरवाह कार्यशैली के उदाहरण देश की राजधानी दिल्ली, वाणिज्यिक राजधानी मुंबई और आईटी सिटी बेंगलुरु तक में पसरे हुए हैं. हाल में, शहरी विकास मंत्रालय के जुटाए आंकड़ों से खुलासा हुआ है कि स्मार्ट सिटी परियोजना में जारी किए गए फंड का अब तक महज सात फीसद इस्तेमाल हो पाया है.
मिशन की शुरुआत में जिन 60 शहरों के लिए 9,860 करोड़ रुपये जारी किए गए थे, उनमें से केवल 675 करोड़ रुपये अब तक खर्च हो पाए हैं. इनमें से 40 शहरों के लिए 196 करोड़ प्रत्येक के हिसाब से धनराशि आवंटित की गई थी. सबसे ज्यादा 80.15 करोड़ रुपये अहमदाबाद ने खर्च किए हैं. फंड का इस्तेमाल करने के मामले में 70.69 करोड़ रुपये के साथ इंदौर दूसरे नंबर पर है. 43.41 करोड़ रुपये के खर्च के साथ सूरत तीसरे और 42.86 करोड़ रुपये के इस्तेमाल के साथ भोपाल चौथे नंबर पर है.
कुछ शहर तो अपने फंड से 1 करोड़ रुपये तक इस्तेमाल नहीं कर पाए हैं. जैसे झारखंड की राजधानी रांची ने अब तक केवल 35 लाख, अंडमान निकोबार ने 54 लाख और औरंगाबाद ने 85 लाख रुपये खर्च किए हैं. इसी तरह 111 करोड़ रुपये का शुरुआती फंड पाने वाले शहरों में वडोदरा ने 20.62 करोड़ रुपये खर्च किए, जबकि वहीं सेलम ने 5 लाख, वेल्लोर ने 6 लाख और तंजावुर ने 19 लाख रुपये इस्तेमाल किए हैं. कुल मिलाकर यह मामला इच्छाशक्ति के अभाव और सिर्फ ऊपरी लीपापोती में दिलचस्पी दिखाने के ट्रेंड को ही दर्शा रहा है. ऐसा लगता है कि जैसे इधर हमारे राजनीतिज्ञ स्वच्छता अभियान चलाने के नाम पर जान-बूझकर कूड़ा जमा कर उसे साफ करते हुए मीडिया में चर्चा पाकर अपने वोट बैंक को संतुष्ट भर कर देने की बाजीगरी करने लगे हैं, ठीक उसी तरह शहरी प्रशासन की रुचि शहर की नकली ब्रांडिंग करने तक सीमित है, शहर के उद्धार से उसका कोई लेना-देना नहीं है.
हासिल किए फंड को सही दिशा में, तय मियाद में खर्च ना करने की इस नीति के पीछे हो सकता है कि कमीशनखोरी का कोई मामला हो. हो सकता है कि ठेकेदारों-इंजीनियरों को सरकारी फंड खर्च करते हुए उसमें से अपने लिये आधा बचाने की कोई जुगत नजर नहीं आ रही होगी, लिहाजा उन्होंने फंड को खर्च करने की जहमत उठाना भी गवारा नहीं समझा. देश में स्मार्ट सिटी परियोजना के भीतर-बाहर सैकड़ों ऐसे छोटे-बड़े शहर हैं, जहां खुले मैनहोल, बजबजाती गंदगी और टूटी पाइप लाइनों से फिजूल बहता पानी हर वक्त हमारे आधे-अधूरे विकास की कलई खोल रहा है.
इन शहरों में जहां-तहां पसरी अराजकता बता रही है कि वहां का सिस्टम किस कदर बेफिक्र और नागरिकों की जान-माल के प्रति किस स्तर तक लापरवाह बना हुआ है. यही नहीं, वहां पीने का साफ पानी, शोधित सीवरेज, कचरे का निदान, बिजली आपूर्ति, सुचारू यातायात और बेहतर चिकित्सा हासिल करना आज भी बड़ी चुनौती है. ऐसे में शहरी प्रशासन द्वारा फंड के इस्तेमाल में हीलाहवाली पर यही कह सकते हैं कि जब नीयत ही साफ नहीं होगी, तो शहर भला कैसे साफ-सुथरे हो सकेंगे?
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