लाभ का पद- अनदेखी पड़ी भारी

Last Updated 22 Jan 2018 05:00:51 AM IST

यह आजाद भारत के इतिहास का पहला अवसर है जब किसी विधान सभा के एक साथ 20 विधायकों की सदस्यता लाभ के दोहरे पद के कारण चली गई हो.


लाभ का पद- अनदेखी पड़ी भारी

हालांकि चुनाव आयोग ऐसा ही फैसला करेगा इसे लेकर पूरे प्रकरण की जानकारी रखने वाले किसी भी तटस्थ व्यक्ति को शायद ही कोई संदेह रहा हो. आम आदमी पार्टी आज जो भी तर्क दे, उसके नेताओं को अगर इसका आभास नहीं था तो फिर मानना चाहिए कि वो अपने द्वारा निर्मिंत किसी ख्वाब की दुनिया में रह रहे थे. जिस ढंग से दिल्ली उच्च न्यायालय ने 8 सितम्बर 2016 को 21 विधायकों के संसदीय सचिव की नियुक्ति को रद्द कर दिया था और जो टिप्पणियां की थीं उन्हीं से साफ हो रहा था कि इन विधायकों की सदस्यता कभी भी जा सकती है.

न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि नियमों को ताक पर रख कर ये नियुक्तियां की गई थीं. किसी मुख्यमंत्री को संसदीय सचिव नियुक्त करने का आधिकार है और होना भी चाहिए लेकिन जो भी होगा वह संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप ही होगा. केजरीवाल ने यहां प्रावधानों की अनदेखी करके नियुक्ति की थी और आज उसी का परिणाम उनके विधायकों एवं स्वयं उन्हें ऐसा परिणाम भुगतना पड़ा है. यह तो संयोग कहिए कि उनको 70 सदस्यों की विधान सभा में 66 सीटें हासिल थी, जिसमें से 20 के चले जाने के बावजूद बहुमत कायम रहता है, अन्यथा सरकार भी जा सकती थी. संविधान का अनुच्छेद 102 (1) (ए) स्पष्ट करता है कि सांसद या विधायक ऐसा कोई दूसरा पद धारण नहीं कर सकता, जिसमें अलग से वेतन, भत्ता या अन्य कोई लाभ मिलते हों.

लाभ के पद की व्याख्या पर काफी बहस हो चुकी है. इसलिए इस मामले में बहुत ज्यादा किंतु-परंतु की गुंजाइश नहीं हैं. इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद 191 (1)(ए) और जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 9 (ए) के अनुसार भी लाभ के पद में सांसदों-विधायकों को अन्य पद लेने का निषेध है. इन सब प्रावधानों का मूल स्वर एक ही है, आप यदि सांसद या विधायक हैं तो किसी दूसरे लाभ के पद पर नहीं रह सकते या यदि आप किसी लाभ के पद पर हैं तो सांसद या विधायक नहीं हो सकते. आम आदमी पार्टी तर्क दे रही है कि जिन विधायकों को संसदीय सचिव बनाया गया उनको न कोई बंगला मिला, न गाड़ी, न अन्य सुविधाएं. यानी जब उन्होंने कोई लाभ लिया ही नहीं तो फिर उनको दोहरे लाभ के पद के तहत सजा कैसे दी जा सकती है? पहली नजर में यह तर्क सही भी लगता है. तो फिर चुनाव आयोग ने यह फैसला क्यों किया? आयोग को पता है कि अगर बिना किसी ठोस आधार के फैसला करेगा तो वह राष्ट्रपति के यहां रुक जाएगा या फिर न्यायालय में निरस्त हो जाएगा. चुनाव आयोग ने इतना लंबा समय लिया है तो जाहिर है कि उसने इस पर पूरा विमर्श किया और फिर आस्त हो जाने के बाद ही सदस्यता रद्द करने की सिफारिश कर दी.  ऐसे कई राज्य हैं, जहां संसदीय सचिव का पद लाभ के पद के दायरे के अंदर है तो कुछ राज्य ऐसे हैं जहां यह बाहर है. दिल्ली में इन्हें लाभ के पद के दायरे में रखा गया है. दिल्ली में 1997 में सिर्फ  दो पद (महिला आयोग और खादी ग्रामोद्योग बोर्ड के अध्यक्ष) ही लाभ के पद से बाहर थे. 2006 में नौ पद इस श्रेणी में रखे गए.



पहली बार मुख्यमंत्री के संसदीय सचिव पद को भी शामिल किया गया था. इसके अनुसार भी दिल्ली में मुख्यमंत्री केवल एक संसदीय सचिव रख सकते हैं. साफ है कि केजरीवाल ने 21 विधायकों की नियुक्ति करते समय इस बात का ध्यान नहीं रखा.  मई 2012 में पश्चिम बंगाल सरकार ने भी संसदीय सचिव की नियुक्ति को लेकर विधेयक पास किया था. इसके बाद ममता बनर्जी ने 20 से ज्यादा विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त किया. बावजूद इसके कोलकता उच्च न्यायालय ने सरकार के विधेयक को असंवैधानिक ठहरा दिया. तो केजरीवाल ने इस उदाहरण का भी ध्यान नहीं रखा. इसे ठीक से समझने के लिए जरा पूरे प्रसंग को संक्षेप में रखना जरूरी है. 13 मार्च 2015 को केजरीवाल सरकार ने अपने 21 विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त किया था. इसके खिलाफ दिल्ली उच्च न्यायालय में राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा की ओर से वकील रविन्द्र कुमार ने याचिका दायर की थी. इन्होंने इस नियुक्ति की संवैधानिकता पर सवाल उठाया था.

इसके समानांतर दिल्ली के एक वकील प्रशांत पटेल ने 19 जून 2015 को राष्ट्रपति के पास याचिका दायर की थी. इसमें संसदीय सचिव को लाभ का पद का मामला बताया था और 21 विधायकों की सदस्यता रद्द करने की मांग की थी. जब विवाद बढ़ा तो दिल्ली सरकार 23 जून, 2015 को विधान सभा में लाभ का पद संशोधन विधेयक लाई. इस विधेयक का मकसद संसदीय सचिव के पद को लाभ के पद से छूट दिलाना था. विधेयक पास करा कर 24 जून 2015 को इसे उप राज्यपाल नजीब जंग के पास भेज दिया गया. उप राज्यपाल ने इसे राष्ट्रपति के पास भेज दिया. निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार राष्ट्रपति ने चुनाव आयोग से सलाह मांगी. चुनाव आयोग ने याचिका दायर करने वाले से जवाब मांगा. प्रशांत पटेल ने 100 पृष्ठ का जवाब दिया और बताया कि मेरे याचिका लगाए जाने के बाद असंवैधानिक तरीके से विधेयक लाया गया. चुनाव आयोग इस जवाब से संतुष्ट हुआ और उसके अनुसार राष्ट्रपति को सलाह दिया. राष्ट्रपति ने विधेयक वापस कर दिया. वैसे भी दिल्ली विधान सभा में कोई विधेयक पेश करने के पूर्व उप राज्यपाल से अनुमति का प्रावधान है. इस मामले में उप राज्यपाल से अनुमति भी नहीं ली गई थी. आप स्वयं विचार करिए, केजरीवाल सरकार अगर संसदीय सचिव के पद का लाभ का पद मानती ही नहीं थी तो फिर यह विधेयक लाने की आवश्यकता क्यों महसूस की गई?

तो इस मामले की यही स्वाभाविक परिणति है. आप विधायकों का पद जाना ही था. इसे विडम्बना ही कहेंगे एक ऐसी पार्टी, जो राजनीति में नये मापदंड स्थापित करने के लिए आई थी, उसका हश्र ऐसा हो गया कि विधायकों को अपने नेता के पक्ष में बनाए रखने के लिए थोक भाव में संसदीय सचिव बनाना पड़ा. केजरीवाल को यह उम्मीद नहीं थी कि उनके विधायक स्थायी रूप से उनके नेतृत्व के प्रति निष्ठावान रहेंगे, इसलिए उन्होंने यह कदम उठाया अन्यथा इसकी कोई आवश्यकता नहीं थी.

अवधेश कुमार


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