नेताजी : लोकप्रियता के चरम
पूरी दुनिया जानती है कि देश की आजादी की लड़ाई में नेताजी सुभाष चंद्र बोस का योगदान अविस्मरणीय रहा पर पं. जवाहर लाल नेहरू ने अपनी हीनभावना के कारण जानबूझकर उनका लगातार अपमान किया.
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देश की आजादी के बाद भी नेहरू को लगता रहा कि नेताजी कभी भी देश के सामने प्रगट हो सकते हैं. इसका खुलासा तो अब हो चुका है. नेहरू के दिमाग में यह बात घर कर गई थी कि नेताजी फिर से देश लौटे तो उनकी सत्ता तो चली ही जाएगी. इसलिए सारी कांग्रेसी सरकारें बोस परिवार पर दो दशकों तक पैनी खुफिया नजर रखती रहीं. वे कितने भयभीत थे इस सनसनीखेज तथ्य का खुलासा हुआ है अनुज धर की पुस्तक ‘इंडियाज बिगेस्ट कवर-अप’ में.
नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारत के उन गिने-चुने नेताओं में हैं, जिन्हें देश के आम-खास सभी तहे-दिल से आदर-सम्मान करते हैं. नामधारी सिख बिरादरी को ही ले लीजिए. लगभग हरेक नामधारी सिख के घर में उनका चित्र टंगा मिलेगा. नेताजी का नामधारी सिखों से संबंध 1943 के आसपास स्थापित हुआ था. नेताजी थाईलैंड में भारत को अंग्रेजी राज की गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए वहां बसे भारतीय समाज के साथ गहन संपर्क कर रहे थे. एक दिन नेताजी का थाईलैंड की नामधारी बिरादरी के प्रमुख सरदार प्रताप सिंह के आवास में जाने का कार्यक्रम बना. वहां पर तमाम नामधारी बिरादरी मौजूद थी. नेताजी ने नामधारी भाइयों से आह्वान किया कि उनकी धन इत्यादि से मदद करें ताकि गोरी सरकार को उखाड़ फेंक सकें. मौजूद नामधारी और गैर-नामधारी भारतीयों ने धन, गहने और अन्य सामानों का ढेर नेताजी के आगे लगा दिया. यह सब नेताजी ध्यान से देख रहे थे. पर नेताजी को तब कुछ हैरानी हुई जब उनके मेजबान (स. प्रताप सिंह) ने उन्हें अंत तक स्वयं कुछ भी नहीं दिया. तब नेताजी ने सरदार प्रताप सिंह से व्यंग्य के लहजे में पूछा, ‘तो आप नहीं चाहते कि भारत माता गुलामी की जंजीरों से मुक्त हो?’
जवाब में सरदार प्रताप सिंह ने विनम्रता से कहा, ‘नेताजी, मैं तो इंतजार कर रहा था कि एक बार सारे उपस्थित लोग अपनी तरफ से जो देना है, दे दें. उसके बाद मैं उसके बराबर की रकम अपनी ओर से अकेले ही अलग से दे दूंगा.’ यह सुनते ही नेताजी ने सरदार प्रताप सिंह को गले लगा लिया. उस दिन के बाद से नेताजी नामधारियों के भी प्रिय नेता हो गए. आज भी नामधारी सिख बिरादरी दिल्ली से बैंकॉक तक में नेताजी के जन्म दिन पर कार्यक्रम आयोजित करती है. कभी-कभी हैरानी होती है कि नेताजी द्वारा मजदूरों के लिए किए उनके जुझारू संघर्ष पर कभी चर्चा नहीं होती. नेताजी टाटा स्टील मजदूर संघ के साल 1928 से 1937 तक लगातार नौ वर्षो तक प्रेसिडेंट रहे. टाटा स्टील की यूनियन का गठन 1920 में हुआ था.
नेताजी ने यूनियन के अध्यक्ष चुने जाने के बाद कंपनी के चेयरमैन एन.बी. सकतावाला को 12 नवम्बर, 1928 को लिखे अपने एक पत्र में कहा कि, ‘कंपनी के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह भी है कि कामगार सारे भारतीय हैं पर भारतीय अफसर बहुत कम. ज्यादातर अहम पदों पर ब्रिटिश ही हैं.’ नेता जी के पत्र के बाद टाटा स्टील का मैनेजमेंट चेता और उसने अपना पहला भारतीय जनरल मैनेजर बनाया. नेताजी के आह्वान पर टाटा स्टील में 1928में एतिहासिक हड़ताल भी हुई. उसके बाद से ही टाटा स्टील में मजदूरों को बोनस मिलना शुरू हुआ.
टाटा स्टील इस लिहाज से देश की पहली बोनस देनेवाली कंपनी बन गई जिसका श्रेय नेता जी को ही जाता है.
1928 में हुई सफल हड़ताल के बाद नेताजी ने टाटा स्टील यूनियन से अपनी दूरियां बना लीं. मैनेजमेंट से मजदूरों के हक में समझौता करने के बाद वे स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े. ट्रेड यूनियन के इतिहास को जानने वाले जानते हैं, कि नेताजी के प्रयासों के बाद आगे चलकर देश की दूसरी बड़ी कंपनियों ने भी बोनस देना शुरू कर दिया. जमशेदपुर में मजदूरों का नेतृत्व करने के दौरान नेताजी को दो-दो बार एटक का राष्ट्रीय अध्यक्ष भी चुना गया. 21 सितम्बर, 1931 को जब नेताजी जमशेदपुर टाउन मैदान में मजदूरों की सभा की अध्यक्षता कर रहे थे, तभी उन पर कातिलाना हमला भी किया गया. कुछ लोग मंच पर चढ़ गए.
नेताजी और अन्य लोगों से मारपीट करने लगे. लेकिन निहत्थे मजदूर जब हमलावरों पर भारी पड़ने लगे तो वे भाग खड़े हुए. हमलावर नेताजी की हत्या की नीयत से आए थे, किन्तु सफल नहीं हुए. इस घटना में 40 लोग घायल हुए थे. टाटा स्टील मजदूर संघ को छोड़ने के बाद नेताजी देश की आजादी के लिए चल रहे राष्ट्रव्यापी आंदोलन का हिस्सा बन गए. देखते-देखते ही देश में लोकप्रिय नेता बन गए.
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