परत-दर-परत : अपने लेखक को पहचानिए

Last Updated 21 Jan 2018 01:04:27 AM IST

बहुत दिनों के बाद हिंदी क्षेत्र से एक अच्छी खबर आयी है. फेसबुक पर इलाहाबाद के धीरेंद्र नाथ लिखते हैं : ‘अभी सोबन्था से लौटा हूं! मैं आज गुरुवर दूधनाथ सिंह जी के पैतृक गांव, अपनी प्रिया एवं बच्चों के साथ गया था.


वरिष्ठ साहित्यकार दूधनाथ सिंह (फाइल फोटो)

सर के छोटे भाई श्री रामअधार सिंह जी से बातचीत हुई. उनके बेटों और नातियों से मिला. सर के विषय में देर तक चर्चा हुई. नि:संदेह, अत्यंत सरल और मानवीय गरिमा से युक्त हैं, उनके परिजन. ग्रामप्रधान ने मूर्ति लगाने की घोषणा की है. बलिया जनपद में फेफना-बक्सर रोड पर लबे-सड़क है सोबन्था गांव. बलिया की भूमि से (हालांकि सिर्फ बलिया के नहीं) आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और अमरकांत जी की कड़ी में दूधनाथ जी रचनात्मक लेखन में तीसरा महत्त्वपूर्ण नाम हैं (भैरव दादा तो हिंदी के विचार स्तंभ हैं) और चौथा नाम केदार नाथ सिंह का है..’
इस पोस्ट में अच्छी खबर यह है कि दूधनाथ सिंह, जिनकी मृत्यु 81 वर्ष की आयु में इसी हफ्ते हुई है, के गांव सोबन्था ग्राम प्रधान ने उनकी मूर्ति लगाने का निर्णय किया है. यह एक विरल घटना है. हिंदी में बहुत कम लेखकों की याद में मूर्ति स्थापित की गयी है. यह सौभाग्य प्रेमचंद, निराला, रामवृक्ष बेनीपुरी, रेणु आदि गिने-चुने लेखकों को मिला है. दूधनाथ सिंह बलिया के थे. मुझे नहीं पता कि बलिया में हजारी प्रसाद द्विवेदी और अमरकांत की मूर्ति लगी है या नहीं. मेरा अनुमान है कि नहीं ही लगी होगी, क्योंकि इसकी परंपरा नहीं रही है. जिन लेखकों की मूर्तियां बनी भी हैं, उनकी हालत हर दृष्टि से चिंतनीय है. इससे भी पता चलता है कि हिंदी समाज को अपने लेखकों से कितना लगाव है. दूधनाथ सिंह के गांव के प्रधान द्वारा की जा रही यह पहल निश्चय ही प्रशंसनीय है.

कुछ समय पहले दिल्ली में राजेंद्र यादव का निधन हुआ था. अ™ोय जी की मृत्यु भी दिल्ली में हुई थी. हाल ही में कुंवर नारायण जी का दिल्ली में देहांत हुआ. पर जिस इलाके में वे रहते हैं, वहां उनकी मूर्ति लगने की न कोई योजना है और न संभावना. साहित्य अकादमी, हिंदी अकादमी, हिंदी भवन में भी ऐसी कोई योजना नहीं  है. ये तीनों ही लेखक दूधनाथ सिंह से ज्यादा प्रसिद्ध हैं. इसलिए जिज्ञासा होती है कि दूधनाथ सिंह को यह सौभाग्य कैसे प्राप्त हुआ होगा! मुझे लगता है, इसका एक कारण उनकी गजब की लोकप्रियता थी. इसी पोस्ट में धीरेंद्र नाथ लिखते हैं ‘हालांकि कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, आलोचना, संभाषण, ठिठोली और ठहाकेबाजी के साथ जीवंत राजनीतिक-वैचारिक संवाद और लेखकीय संगठनात्मक गतिविधियां : इतने मोर्चों पर तो उनका समकालीन शायद ही कोई अन्य लेखक उनके मुकाबले ठहरे. इन सब विधाओं से ऊपर वह एक लोकप्रिय अध्यापक थे. फिराक साहब के बाद, इलाहाबाद विविद्यालय के संभवत: सर्वाधिक लोकप्रिय अध्यापक. फिर उनका चुंबकीय व्यक्तित्व नये रचनाकारों को अपने इर्द-गिर्द अनायास खींच लेता था. उनके तराशे कई पत्थर समकालीन कविता में चमक रहे हैं. जब आप अंधेरे पर प्रकाश डालते हैं तो वहां कोई अंधेरा नहीं मिलता. दूधनाथ सिंह के अंधेरे कोनों की तलाश में निकलने वालों को भी यही हासिल होना है कि हजार बातों के बाद, वह अपनी जनता के हित-अनहित से नाभिनाल-बद्ध इंटेलेक्चुअल थे. हमारे गुरु  नितांत मनुष्य थे और हर शब्द, हर पल, हर भाव और भंगिमा में बेहद क्रिएटिव.’ अर्थात् वे जितना साहित्य में थे, उससे कम अपने परिवेश में, अपने विविद्यालय में और अपने गांव-जंवार में नहीं. इस सभी से उनका जीवित और आत्मीय संबंध था.
बड़े शहरों में आदमी खो जाता है. लेखक भी खो जाता है. जहां बड़े-बड़े गुणी जन अधिक संख्या में रहते हैं, वहां बेचारे लेखक की क्या बिसात, जिसकी रचनाओं को पढ़े बिना उसे जाना ही नहीं जा सकता. शायद इसीलिए वह चित्रकार, गायक, संगीतकार, फिल्म अभिनेता आदि की तुलना में कम प्रसिद्ध होता है. यह हमारे शहरों के निम्न सांस्कृतिक स्तर का पता देता है. गांवों में अशिक्षा, अज्ञान और गरीबी है. यह हमारे ग्रामीण क्षेत्र के सांस्कृतिक पिछड़ेपन का एक दुखदायी पहलू है. ऐसे अनुर्वर वातावरण में यह जान कर किसी का भी दिल उछल सकता है कि उत्तर प्रदेश के एक ग्रामप्रधान ने एक लेखक की मूर्ति स्थापित करने का निर्णय किया है.
मुझे तब ज्यादा खुशी होती, अगर सोबन्था गांव में दूधनाथ सिंह के नाम पर एक सार्वजनिक पुस्तकालय भी बनाया जाता, जिसमें उनका संपूर्ण साहित्य ही नहीं अन्य महत्त्वपूर्ण साहित्य भी रखा जाता. लेखक की वास्तविक पहचान उनका साहित्य ही है. मूर्ति अंतत: धूल में मिल जायेगी, पर दूधनाथ जी का साहित्य बचा रहेगा. इसके साथ ही, अन्य साहित्यिक कार्यक्रम भी अपनाये जा सकते हैं. यह बड़े दुख की बात है कि हमारा लेखक हमारे समाज को थोड़ा-बहुत तो पहचानता ही है, पर हमारा समाज अपने लेखक को बिलकुल नहीं पहचानता. जिस चीज की उपेक्षा होती है, वह अंतत: खत्म हो जाती है. साहित्य भी अपनी शोक सभा की ओर जा रहा है. एक समय हमारे देश में ही कहा गया था कि साहित्य, संगीत, कला आदि से विहीन व्यक्ति पशु की तरह होता है. आज यह पशुता हमें इतना क्यों आकर्षित कर रही है? दूधनाथ सिंह के लेखन में इसका कुछ जवाब मिलता है, बाकी जवाब तो हमें अपने भीतर से ही खोजना होगा. जाहिर है, उस जवाब से बहुत-से नये प्रश्न उभरेंगे.

राजकिशोर


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