प्रसंगवश : राष्ट्रीयता की अवधारणा

Last Updated 21 Jan 2018 01:13:00 AM IST

भारत की राजनैतिक प्रभु सत्ता एक सच्चाई है, जो औपचारिक और विधिक तौर पर देश को राष्ट्र के रूप में स्थापित करती है.


गिरीश्वर मिश्र

 पर वह भारतीय समाज के जीवन का हिस्सा है और अनुभव का विषय भी है. उसकी एक सांस्कृतिक और मानसिक उपस्थिति  भी है, जो काल का अतिक्रमण करती है. हम व्यवहार में ‘देश’ और ‘राष्ट्र’ शब्द का उपयोग सामूहिक या सामुदायिक आत्म छवि को व्यक्त करने के लिए करते हैं. देश स्थान का बोध कराता है पर साथ ही दिशा का भी संकेत करता है. राष्ट्र एक संगठित सामाजिक इकाई को बताता है, जो उसी तरह की दूसरी इकाई से अलग होती है और उसके सदस्य अपने को भिन्न समूह वाला मानने लगते हैं. हमलोग अपनी सामाजिक दुनिया को ‘हम’ और ‘तुम’ दो श्रेणियों में  बांटने के लिए कई कसौटियों को अपनाते हुए समूहों का निर्माण करते हैं. ‘नेशन’ भी इसी तरह का एक समूह है पर उसका स्वभाव बड़ा प्रखर है. याद करें हजारों-लाखों लोगों ने बीसवीं सदी में हुए युद्धों में अपने-अपने देश के लिए लड़ते हुए अपनी जानें गंवाई हैं और यह सिलसिला अभी भी जारी है. समूह या समुदाय निर्माण की विवशता या है कि उसमें अलग और एक दूसरे के विरु द्ध मानवता को खड़ा करने की प्रवृत्ति सहज रूप में अन्तर्निहित है.
आज के अर्थ में नेशन (राष्ट्र!) लम्बे अंतराल में घटित होने वाली अनेक ऐतिहासिक प्रक्रियाओं का परिणाम होता है. हर देश की अतीत की एक समझ होती है, जो कथाओं और मिथकों द्वारा अभिव्यक्त होती है. ऐतिहासिक रूप से सच हों या न हों ये स्मृतियां वर्तमान के उस आत्म-बोध को रचने में सहायक होती हैं, जो एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र से अलग करती हैं. हम सभी परिवार और विद्यालय जैसी संस्थाओं में पलते-बढ़ते हैं ही वह देश की भाषा, रीति-रिवाज और कानून को भी सीखता है. वह परम्पराओं को आत्मसात करता चलता है और उसका भागीदार बनता है. इसी से सामूहिक आत्म-बोध निर्मिंत होता है, जो राष्ट्र का आधार होता है.

दैनन्दिन आचरण, वेश-भूषा, साहित्य, संगीत और धर्म आदि मिल कर राष्ट्र के सामाजिक सम्बन्ध को रचते हैं और राष्ट्र को एक आकार देते हैं.राष्ट्र अलग स्थित अतीत नहीं बल्कि स्थान या देश पर आश्रित अतीत से जुड़ा होता है. इस क्रम में हम इतिहास खोज-खोज कर निरंतरता स्थापित करने की कोशिश करते हैं. जन्म पर बल देने के कारण राष्ट्र नातेदारी समूहों की श्रृंखला में शामिल हो जाता है. राष्ट्र और इथनिक (सामाजिक) समूह बड़े निकट से जुड़े होते हैं और इनके बीच स्पष्ट अंतर करना कठिन है. सामजिक समूह (इथनिसिटी) में एक मूल के पूर्वज से उत्तराधिकारी एक विस्तृत परिवार होता है जब कि राष्ट्र में क्षेत्रीय उत्तरवर्ती जन परम्परा होती है.
भारतीय एकता भौगोलिक और ऐतिहासिक न हो कर सांस्कृतिक एकता पर टिकी है, जो सामाजिक परिपक्वता का उच्चतम परिणाम है. यहां की भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एकता की भावना स्फूर्ति देती है और सांस्कृतिक उत्कर्ष की दिशा में अग्रसर करती है. भारतीय मानस में सहिष्णुता और सबके वैशिष्ट्य को स्वीकार करने की प्रवृत्ति  है. व्यापकता और सर्वग्राहिकता उसकी मूल दृष्टि है. विश्व कल्याण, लोक-संग्रह को  प्रमुखता दी गई. भिन्न विचारों का स्वागत हुआ. विरोधों और प्रतिकूलताओं के बीच सामंजस्य साहित्य, कला, दर्शन, शिल्प सब में दिखता है. यहां पर विद्यमान अन्तर्निहित मौलिक ऐक्य राजनैतिक प्रभुत्व से उत्पन्न एकता से अधिक गहरा है.
राष्ट्रवाद में राष्ट्र के प्रति निष्ठा व्यक्त होती है, जिसका आधार एक गहरा मानसिक बंधन है. भारत बहुलता का देश है, जिसमें राष्ट्र की भावना एकता में बांधती है. साझी सांस्कृतिक पहचान बदलते सन्दभरे में भी प्रस्तुत रही. भारत यूरोपीय देशों से भिन्न है. यहां राजनैतिक नहीं सांस्कृतिक संकल्पना है. राष्ट्रवाद की संकल्पना में समर्पण, त्याग, राष्ट्रहित को प्राथमिकता दी जाती है. आवश्यकता है कि आत्म-निर्भरता और स्वाभिमान के भाव से भारतीयता के प्रति सम्मान हो और पश्चिमी नकल की जगह भारतीय संस्कृति का पुनर्जीवन किया जाए. अपने देश के लिए प्यार को देश भक्ति कहते हैं. सीमित  स्वार्थ से परे जा कर या कहें उसका अतिक्रमण कर हम देश के प्रति अतिरिक्त लगाव दिखाते हैं. अपने देशवासियों के प्रति प्रेम भाव रखते हैं. जन कल्याण से लगाव और भेदों को दूर करने की चेष्टा करते हैं. पर यदि कोई एक ही दृष्टि हो तो वह अपर्याप्त और अयथार्थ हो जाती है. राष्ट्र की दृष्टि न अल्प मत की न बहुमत बल्कि सर्वमत की होनी चाहिए.



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