मीडिया : देखने का हक

Last Updated 21 Jan 2018 01:16:32 AM IST

क्या पच्चीस जनवरी को ‘पदमावत’ रिलीज होगी? क्या कुछ गुंडे तत्व सचमुच सिनेमा हॉलों को जला देंगे?


मीडिया : देखने का हक

तब क्या दर्शक वर्ग को देखने का अधिकार नहीं है कि वो जिस फिल्म को चाहे उसे बेखबर होकर देख सके? अधिकार तो है, लेकिन ऐसा वातावरण भी तो हो कि जाकर देख सकें.लेकिन कोई तोड़-फोड़ करे आगजनी करे तो जाकर देख पाएंगे? लेकिन ‘पदमावत’ वाले तो कह रहे हैं कि पच्चीस को अवश्य रिलीज होगी. लेकिन वो तो कह रहे हैं कि अपनी आनबानशान के खिलाफ हमें कोई बदतमीजी बर्दाश्त नहीं. हमने कुर्बानियां दी हैं. अठारह सौ स्त्रियां जौहर को तैयार हैं.
‘पद्मावत’ दिखाई जाएगी कि नहीं दिखाई जाएगी? इस  बहस में ‘देखने के हक’ की बात किनारे हो गई है. असल मुद्दा दर्शक के देखने के हक का है. ये दर्शक ही हैं, जो फिल्म टीवी समेत समूचे मीडिया की जान हैं. ‘बॉक्स आफिस’ का मतलब ही है ‘दर्शक’. टीआरपी का मतलब है ‘दर्शक’. अधिक से अधिक दर्शक जुटाने के लिए ही मीडिया सारी कवायदें करता है. हर कलाभिव्यक्ति को मीडिया चाहिए. ‘पद्मावत’ हो या कोई और फिल्म सबको दर्शक चाहिए. सारी लड़ाई दर्शक बनाने की है. इन दिनों फिल्म वाले दो-चार दिन विवाद पैदाकर फिल्में के दर्शक बनाते हैं. हो सकता है कि ‘पद्मावत’-विवाद शुरुआत में ऐसा ‘प्रायोजित’ ही रहा हो, लेकिन नाना राजनीतिक कारणों से ‘आउट ऑफ कंट्रोल’ हो गया. इस सबमें सिर्फ भंसाली का ही नुकसान नहीं हो रहा, आम दर्शक के अधिकार का भी हो रहा है. समय आ गया है कि हम दर्शक के हक की बात करें.

मौलिक अधिकारों में अभिव्यक्ति की आजादी की गारंटी तो है, लेकिन शर्त है कि अभिव्यक्ति की आजादी किसी दूसरे की भावनाओं का हनन न करे, और बहुत से फासिस्ट समूह इसी ‘हनन न करे’ की आड़ लेकर दर्शक के अधिकारों का अक्सर हनन करते रहते हैं. इसे ‘बैन करो उसे बैन करो’ ‘इसे न देखने देंगे उसे न देखने देंगे’ आदि  ऐलान आए दिन होते रहते हैं. टीआरपी का भूखा मीडिया हमलावरों तक को सादर स्टूडियोज में बिठाकर इज्जत बख्ता है. मीडिया में आकर वे और भी शेर हो जाते हैं. मीडिया में आकर ही मीडिया को ही ठोकने लगते हैं.
न जाने कब से दर्शकों के देखने के अधिकार पर चोट होती आ रही है, लेकिन दर्शकों के हक के लिए कोई नहीं बोलता. अब बोलना चाहिए. दर्शक क्या है? मूलत: वह एक उपभोक्ता है, कंज्यूमर है, जो दृश्य श्रव्य माध्यमों का, उनके कार्यक्रमों का नित्य उपभोग करता है.  नए सर्वे के अनुसार आज इस देश में प्रिंट मीडिया के कुल मिलाकर तीस करोड़ पाठक होंगे. विजुअल मीडिया; फिल्म, टीवी, विज्ञापन आदि ने निन्यानबे फीसद आबादी को अपना दर्शक बनाया है. यही दर्शक देश की ‘उपभोक्ता क्रांति’ का वाहक है. यह दर्शक ही हैं, जो बॉलीवुड से लेकर सीरियलों और खबरों की इंडस्ट्रीज का चलाते हैं और ऑन लाइन की इडस्ट्री को भी चलाते हैं.
और इतने बड़े दर्शक जनता के देखने के हक को बाधित करने वाले हैं चंद मुठ्ठी भर लोग!
आश्चर्य कि इतनी बड़ी जनता के देखने की गारंटी न कर कई राज्य सरकारें इन गुंडा टोलियों के गुंडागर्दी को प्रकारांतर से पोसती आई हैं. स्थिति यहां तक  पहुंची है कि और अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ा है और फिर भी ये तत्व अपनी पर अड़े हैं और धमकियां दिए जा रहे हैं कि हम सिनेमा हॉल जला देंगे फूंक देंगे. विकास की पहचान सिर्फ सड़क, उद्योग और बिजली नहीं होती बल्कि जनता के देखने-सुनने की आजादी भी होती है. मनोरंजन उद्योग भी एक बड़ा उद्योग है. वह आज लाखों-करोड़ रुपयों का उद्योग है और 12 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है. दुनिया के मारकेट में एक हिस्सा इसका भी है.
इसका दर्शक वही हैं, जिन्होंने ऐसी सरकारों को चुना है जो दर्शकों के ‘देखने के अधिकार’ का हनन करने वालों के आगे झुकी नजर आती हैं. अगर उन्हें ये मालूम होता कि जिनको वह चुन रहे हैं वो एक खास समूह की धमकी के आगे झुकने वाली हैं और उसे देखने के हक से वंचित करने वाली हैं तो वो शायद उनको वोट न देते! जो दल ‘पद्मावत’ विरोधी सरकारों में बैठे हैं. क्या वे नहीं देख पा रहे कि चंद लोगों की धमकी के आगे वे इतने बड़े समाज को एक फिर को देखने से वंचित कर रहे हैं. माना कि ‘पद्मावत’ एक फिल्म ही है, लेकिन देखने न देखने का हक तो बुनियादी है! आप उसे नहीं देंगे तो कौन देगा? कुछ बरस बाद फिर से चुनाव आने हैं तब दर्शक पूछेगा कि आपने देखने का हक क्यों छिनने दिया तो क्या जबाव देंगे?



Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment