भारत-इस्राइल : रिश्तों का नया नक्शा
जैसी कि आशा थी इस्राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की छह दिवसीय भारत यात्रा का अत्यंत भव्य शुभारंभ हुआ है.
भारत-इस्राइल : रिश्तों का नया नक्शा |
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नेतन्याहू को उनके लोकप्रिय नाम ‘बीबी’ कहकर उन्हें पुकारा तो उन्होंने भी मोदी को ‘नरेन्द्र’ कहा. इस औपचारिक संबोधन ने दोनों नेताओं में पनपी घनिष्ठता को परिलक्षित किया है. ‘बीबी’ ने मोदी को क्रांतिकारी नेता बताया तो मोदी ने भी ‘बीबी’ की तारीफों के पुल बांध दिए. इसके अलावा, दोनों देशों ने नौ समझौतों पर दस्तखत किए. दोनों देशों ने फिल्म-निर्माण, साइबर सुरक्षा, तेल और ऊर्जा, कृषि अंतरिक्ष और सामरिक मामलों में सहयोग के संकल्प किए.
दोनों नेताओं ने द्विपक्षीय व्यापार को पांच बिलियन डॉलर से कहीं ज्यादा आगे बढ़ाने पर भी विचार किया. आतंकवाद के विरु द्ध दोनों राष्ट्रों के समान संघर्ष को भी याद किया गया. नेतन्याहू राजघाट भी गए और तीन मूर्ति चैराहे को अब तीन मूर्ति हाइफा चौक कहा जाएगा, उन भारतीय सिपाहियों की याद में जो 100 साल पहले इस्राइल में शहीद हुए थे. यह भारत-इस्राइल मैत्री का नया प्रतीक है. गत वर्ष जैसे नेतन्याहू ने तेल अवीव का स्वागत एक हिंदी वाक्य बोलकर किया था, इस बार मोदी ने हिब्रू भाषा में अपने मित्र नेतन्याहू का स्वागत किया.
किसी इस्राइली प्रधानमंत्री की यह दूसरी भारत-यात्रा है. पहली यात्रा 2003 में प्रधानमंत्री एरियल शेरोन ने की थी. इन पिछले 14-15 वर्षो में भारत-इस्राइल संबंधों का नक्शा ही बदल चुका है. इस बीच भारत के राष्ट्रपति और विदेश मंत्री भी इस्राइल हो आए हैं. कई मंत्री और सांसद भी इस्राइल जाते रहे हैं. इस्राइल के राष्ट्रपति रु वेन रिवलिन भी 2016 में भारत आ चुके हैं. नरेन्द्र मोदी भारत के ऐसे पहले और एक मात्र प्रधानमंत्री हैं, जो पिछले साल इस्राइल गए थे. जवाहरलाल नेहरू ने 1950 में इस्राइल को मान्यता दी थी, क्योंकि मिस्र ने उस समय हैदराबाद के सवाल पर पाकिस्तान का समर्थन कर दिया था वरना 1948 में बने इस्राइल को भारत संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बनाने के भी विरु द्ध था. 1992 में प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने पहल की और इस्राइल के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए.
उस समय इस्राइल से घनिष्ट संबंध बनाने में भारत को कई तरह के संकोच थे. सबसे पहला तो यही कि इस्राइल के नजदीक जाने का अर्थ होगा दुनिया के दर्जनों मुस्लिम देशों से अपने संबंधों में खटास पैदा करना. दूसरा, गुट-निरपेक्ष आंदोलन के नेता बनना और साथ-साथ उसके सबसे बड़े विरोधी,अमेरिका, के संपोषित राष्ट्र के करीब जाना. तीसरा, इस्राइल की घनिष्ठता भारत-सोवियत संबंधों के भी अनुकूल नहीं होती. चौथा, उन दिनों इस्राइल स्वयं अस्तित्व के संकट में फंसा हुआ था.
उसकी दोस्ती के फायदों के बारे में अनिश्चय बना हुआ था. पांचवां, न तो भारत में यहूदी लॉबी इतनी तगड़ी थी और न ही इस्राइल में भारतीयों की संख्या इतनी अधिक और वजनदार थी कि दोनों देशों में घनिष्ठता बनाने का दबाव बढ़ता. उन दिनों इस्राइल से भारत इतना परहेज करता था कि भारतीय पासपोर्ट पर इस्राइली वीजा भी नहीं लग सकता था. अब से लगभग पचास साल पहले जब मैं न्यूयार्क की कोलंबिया यूनिर्वसटिी में पढ़ता था तो मेरा भाषण सुनने के बाद इस्राइली राजदूत ने मुझे इस्राइल-यात्रा का निमंतण्रदिया. हमारे दूतावास ने मुझे एक नया विशेष पासपोर्ट दिया, जिस पर इस्राइली वीजे का ठप्पा लगाया गया था. वह पासपोर्ट मेरे पास आज भी है.
यह स्थिति बदली कैसे? इसका मूल कारण इस्राइल ही है. भारत ने कई मुद्दों पर इस्राइल का विरोध किया. लेकिन इस्राइल ने हमारे हर संकट में हमारा साथ दिया. संयुक्त राष्ट्र में जब-जब कश्मीर का सवाल उठा, इस्राइल ने भारत के पक्ष में वोट किया. पाकिस्तान के साथ हुए 1965 और 1971 के युद्धों में इस्राइल ने सिर्फ भारत का कूटनीतिक समर्थन ही नहीं किया अपितु सैन्य-सहायता भी की. इसके विपरीत, अरब राष्ट्रों के साथ भारत की घनिष्ठता के बावजूद उन्होंने पाकिस्तान का समर्थन किया. करगिल के समय पश्चिम एशिया के ज्यादातर राष्ट्रों ने पाकिस्तान का समर्थन किया, लेकिन इस्राइल ने भारत का साथ दिया.
इस्राइल की इस लगातार भारत-समर्थक नीति का असर भारत के नीति-निर्माताओं पर बढ़ता गया. मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्री-काल में इस्राइल के जगत प्रसिद्ध रक्षामंत्री मोशे दयान गोपनीय यात्रा पर भारत आए थे. प्रधानमंत्री चौधरी चरणसिंह ने अपने लाल किले के एक मात्र भाषण में इस्राइल की तारीफों के पुल बांध दिए थे. भारत-इस्राइल के बीच व्यापारिक, सामरिक और गुप्तचरीय सहयोग बढ़ता गया. 1962 में चीनी हमले के समय इस्राइल ने सामरिक सहयोग की जो पहल की थी, वह चुपचाप आगे बढ़ती रही. 2003 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस्राइल प्रधानमंत्री शेरोन को भारत आमंत्रित करके यह संदेश दे दिया कि अब इस्राइल से भारत के संबंध खुले आम बढ़ेंगे.
भारत ने इस्राइल के विरुद्ध पारित कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों के प्रस्तावों पर तटस्थता भी प्रकट की. नरेन्द्र मोदी मुख्यमंत्री के तौर पर पहले इस्राइल जा चुके थे, लेकिन प्रधानमंत्री के तौर पर इस्राइल जाने के पहले उन्होंने कई अरब देशों की यात्राएं कीं और फिलिस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास को भारत का मेहमान बनाया. लेकिन मोदी ने पिछले साल हुई अपनी इस्राइल-यात्रा के दौरान वह काम कर दिखाया, जिसे करने की हिम्मत इस्राइल के परम मित्र डोनाल्ड ट्रंप में भी नहीं है. ट्रंप मई 2017 में इस्राइल के साथ-साथ फिलीस्तीन भी गए लेकिन मोदी ने सिर्फ और सिर्फ इस्राइल की यात्रा की.
गत वर्ष मोदी की इस्राइल-यात्रा ने नरसिंहरावजी की इस्राइल नीति को शिखर पर तो पहुंचाया ही, उसने जनसंघ और भाजपा की इस्राइल-नीति को अमली जामा पहनाया. नरसिंहरावजी स्वयं इस्राइल जाना चाहते थे लेकिन उन दिनों छिड़े सांप्रदायिक विवादों के कारण उन्हें अपना इरादा बदलना पड़ा था. इस्राइल से हम खुले-आम संबंध दो कारणों से नहीं बना रहे थे. एक तो हमारे मुसलमान मतदाताओं के नाराज़ होने के डर से और दूसरा अरब देशों के साथ तनाव बढ़ जाने की आशंका से ! लेकिन ये दोनों कारण खोखले हैं.
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