मुद्दा : अनियमित विकास के नतीजे
यकीनन देश में 1991 में आर्थिक सुधारों के लागू होने के बाद से सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर, बेरोजगारी की गिरावट और विदेशी मुद्रा भंडार में बढ़ोतरी जैसे कुछेक लाभ हमें प्राप्त हुए हैं.
मुद्दा : अनियमित विकास के नतीजे |
लेकिन अनेक अवसर दरपेश थे, जिन्हें गंवा दिया गया. बिना विचारे, उदारीकरण की अनियोजित प्रक्रिया और जल्दबाजी के चलते हम बेहद बेतरतीब आर्थिक वृद्धि हासिल कर सके. यही कारण रहा कि चुनिंदा क्षेत्रों में उद्योग बेहद केंद्रित हो गए. जनसंख्या का विस्तार समान रूप से नहीं हो पाया. नगर-शहरों में भीड़-भाड़ बढ़ी. गंदी-मलिन बस्तियां मशरूम की भांति उग आई. शहरों में रहने का व्यय लोगों की पहुंच से बाहर हो गया. भूमि पर दबाव बढ़ने से भूजल का स्तर गिरा. वायु प्रदूषण जैसे जीवन की गुणवत्ता से जुड़े गंभीर मुद्दों की अनदेखी हुई.
सरकार के हस्तक्षेप बिना उदारीकरण की राह पर बढ़ने से उद्योग एक ही स्थान पर केंद्रित हो गए. दरअसल, नियंत्रण न रहने से उद्योग उन्हीं जगहों पर लगाए जाने को तरजीह मिलने लगती है, जहां पहले से ही जमे-जमाए कारोबारों की मौजूदगी होती है. जाहिर है कि स्थानीय संसाधन ऐसे स्थानों पर पर्याप्त होते हैं, जिनसे उद्यमियों के मन में अच्छा कारोबारी माहौल मिलने की उम्मीद बढ़ जाती है. उद्योगों के लिए जिन महत्त्वपूर्ण संसाधनों की बेहद जरूरत होती है, उनमें सतत विद्युत एवं जलापूर्ति, सड़क आदि जैसी ढांचागत सुविधाओं, वित्त की उपलब्धता और स्थानीय स्तर पर श्रम की प्रचुरता आदि शामिल हैं. चूंकि जमे-जमाए उद्योग केंद्रों पर ये तमाम संसाधन प्रचुरता में होते हैं, इसलिए नये खिलाड़ी के लिए ऐसे क्षेत्रों में अपनी मौजूदगी दर्ज कराना आसान रहता है. जहां ऐसी प्राथमिकता संबद्ध कंपनी के लिए माकूल रहती है, वहीं जरूरी नहीं कि चयनित स्थान या प्राथमिकता से बाहर कर दिए गए स्थानों के लिए भी यह फायदेमंद रहे. इसका भी स्पष्ट कारण है. कारोबारी मौजूदगी से रोजगार बढ़ता है, और स्थानीय जीवन का स्तर ऊंचा उठता है.
इससे उपभोक्तान्मुख कारोबारों का विकास होता है, और ज्यादा से ज्यादा रोजगार-सृजन होता है. लेकिन किसी एक स्थान पर उद्योगों के केंद्रित हो जाना, उस स्थान विशेष के लिए हानिकर भी हो सकता है. इससे भूमि पर दबाव पड़ता है. स्थानीय लोगों के लिए भूमि बेहद महंगी हो जाती है. ज्यादा से ज्यादा लोगों के आते जाने से वाहन प्रदूषण, जलाभाव और बिजली आपूर्ति जैसे मुद्दे भी प्रभावित होते हैं. 1991 से पूर्व सरकार उन स्थानों की संख्या नियत कर देती थी, जहां कोई फैक्टरी स्थापित की जा सकती थी. कितना उत्पादन किया जा सकता था. एक दूसरे से कितने खिलाड़ी प्रतिस्पर्धा कर सकते थे. उत्पादों के दाम कितने रखे जा सकते थे, जैसी तमाम बातें तय कर दी जाती थीं. 1991 के पश्चात अर्थव्यवस्था का उदारीकरण होने के साथ ही लाइसेंस-परमिट राज अंशत: ध्वस्त हो गया. इस कारण ऐसी बंदिशों का कोई मतलब नहीं रहा. उद्योगों पर बंधन नहीं रह गए. हालांकि उद्योग लगाने संबंधी नियंत्रण सरकार के पास अब भी है, लेकिन उतना नहीं है जितना कि पहले होता था. गौरतलब है कि सरकार के नियंत्रण के बावजूद भारत में भौगोलिक विस्तार काफी असमान था. लेकिन उदारीकरण के पश्चात यह और भी खराब हो गया. ज्यादातर उद्योग सोलह राज्यों-उदारीकरण से पूर्व और पश्चात भी-में ही केंद्रित हैं. अलबत्ता, उदारीकरण के बाद से तीन दक्षिणी राज्यों-तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश-में उद्योग इकाइयां तेजी से बढ़ीं.
महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश, प. बंगाल और बिहार में उदारीकरण के बाद से उद्योगों की भागीदारी में खासी कमी दर्ज की गई. इस प्रकार से औद्योगिक इकाइयों के केंद्रीकरण से लोगों पर पहला तो इस रूप में प्रभाव पड़ता है कि आवास महंगे से महंगे होते चले जाते हैं. बाहर से आने वाले गरीबों के लिए महंगे आवासों में रहना संभव नहीं रह जाता. नतीजतन, स्लम बस्तियां उगने लगती हैं, जहां स्वच्छता और साफ-सफाई नहीं होती. पुणो और बेंगलुरु जैसे तेजी से बढ़ते शहरों में जलापूर्ति जैसी समस्या सतत बनी रहती है. उच्च औद्योगिकीकरण और वाहनों की जरूरतें बढ़ने से शहरी बसावटों में आबाद लोगों को बढ़ते प्रदूषण के रूप में एक और दिक्कत पेश आती है. चूंकि हर कोई अपने कार्यस्थल के पास ही रहने का जुगाड़ नहीं कर पाता इसलिए लंबी-लंबी दूरियां तय करके कार्यस्थल पर पहुंचना पड़ता है. बहरहाल, उदारीकरण के बाद हुए अनियमित विकास ने गंभीर नतीजे हमारे सामने पेश कर दिए हैं. इनके मद्देनजर कहा जा सकता है कि हमारे हाथ से कुछ बेहतरीन अवसर फिसल गए हैं.
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