प्रसंगवश : जीवन की दरकार

Last Updated 07 Jan 2018 12:50:51 AM IST

नोटबंदी, डिजिटलीकरण और जीएसटी ने सिखा दिया है कि आर्थिक नीति केंद्रीय महत्त्व की है, और उसमें फेरबदल और उतार-चढ़ाव के साथ-साथ हर किसी की मुश्किलें, चाहे कोई बड़ा आदमी हो या छोटा, घटती-बढ़ती हैं.


प्रसंगवश : जीवन की दरकार

बाजार भी कुछ ऐसा हो रहा है कि हर चीज का भाव बदलता रहता है. ऐसे में स्थायित्व वाली अर्थव्यवस्था का तर्क कुछ गले नहीं उतरता है पर कुछ ऐसी ही बात महात्मा गांधी के साथ जुड़े रहे अर्थशास्त्री जे.सी. कुमारप्पा ने की थी. वे  कोलंबिया विश्वविद्यालय से पढ़ाई कर 1929 में भारत लौटे और गांधी जी से मिले और फिर उनका नजरिया और उनकी जीवनशैली पूरी तरह बदल गई. आगे चल कर खादी एवं कुटीर ग्रामोद्योग की स्थापना और विस्तार के लिए उन्होंने महत्त्वपूर्ण काम किया.
कुमारप्पा मानते हैं कि मनुष्य की रचनात्मकता प्रकृति से अपनी शर्तों पर कुछ नहीं करा सकती. प्रकृति का अपना दस्तूर है. जैसे समुद्र का जल सूर्य उठाता है, फिर पूर्ण समृद्ध जीवन का आशीष देते हुए जल-वृष्टि करता है, जिससे पेय जल मिलता है, कृषि होती है, अन्न मिलता है. ऐसे ही और भी अनेक स्वाभाविक कर्म हैं पर आज मनुष्य प्रकृति के कार्य को बाधित करता चलता है. आहार का रंग-रोगन (पॉलिश करना) और ताजे फल के बदले उसका  जूस, चिप्स आदि तमाम परिवर्तन किया जाता है. ये निजी स्तर पर क्षणिक सुख, भोग और खुशी को तो बढ़ाते हैं परंतु सचमुच में यह सब स्वतंत्रता के विनाशकारी परिणाम की ओर भी ले जाते हैं. पारस्परिक व्यवहार में दूसरों की नि:स्वार्थ सेवा और प्रेम से जो ऊर्जा मिलती है और हर्ष का अनुभव होता है वह छल-कपट, स्वार्थ, भौतिक संपदा और विलास से कभी नहीं पाया जा सकता.

मनुष्य के अलावा अन्य पशुओं की कोई अलग से अर्थव्यवस्था नहीं होती है. वे जन्म-मरण से बंधे होते हैं, और अपनी जीवनशैली के लिए खुद जिम्मेदार नहीं होते क्योंकि सब कुछ मूल प्रवृत्तियों पर ही टिका होता है. हां, मनुष्य की बात अलग है. वह अपने चुने मूल्यों से खुद को परिभाषित करता चलता है. एक तरह से मनुष्य वही हो जाता है, जो वह चाहता है. अपने आचरण या व्यवहार से वह अपनी क्षमताओं को अभिव्यक्त आकार देता है, जिसे हम ‘व्यक्तित्व’ कहते हैं. कुमारप्पा के शब्दों में जीवन वह माध्यम है जिसके द्वारा मनुष्य स्वयं को विकसित करता है. इसीलिए कैसे जिएं, यह प्रश्न हमारे लिए विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हो जाता है. मनुष्य के पास अवसर भी हैं, और दायित्व भी. आज निष्क्रिय होती जा रही जनता अपना दायित्व ठीक से नहीं निभाती है. दुर्भाग्य से लगभग सभी संस्थाएं स्वभावत: सर्जनात्मकता और वैविध्य की विरोधी होती जा रही हैं. हिंसा और ध्वंस को प्रश्रय मिल रहा है. संस्कृति और मूल्य का क्षेत्र भी इसकी चपेट में आ चुके हैं. इससे लगातार अपूरणीय सामाजिक क्षति हो रही है.
कुमारप्पा की मानें तो इस परिस्थिति में जीवन का ठीक तरह से नियोजन जरूरी है. विकास का लक्ष्य मनुष्य की क्षमताओं का पूर्ण विकास होना है. भोजन, वस्त्र, आवास की जरूरतों की पूर्ति और मन और शरीर के प्रशिक्षण के अवसर और स्वच्छ परिवेश भी मिलना चाहिए. जरूरी है कि नियोजन ऐसा होना चाहिए जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को उसकी न्यूनतम जरूरतें पूरी हो सकें. कुमारप्पा की दृष्टि में अर्थव्यवस्था का सर्वोत्कृष्ट रूप ‘सेवा-आधृत संकल्पना’ पर आधृत है, जो राम राज्य की अवधारणा की याद दिलाती है. इस व्यवस्था में निजी अधिकारों की जगह कर्तव्य की प्रमुखता होती है.
स्वार्थी शारीरिक इच्छाओं के साथ जुड़ी पशु  वृत्ति यानी स्वार्थ पर नियंत्रण कर अपने सुख की जगह दूसरों के कल्याण को तरजीह देना महत्त्वपूर्ण है. सबके कल्याण की बात तभी पूरी हो सकेगी. अत: जीवन-स्तर के मानक ऐसे होने चाहिए जिनमें समाज के विभिन्न वगरे के लोग स्वस्थ सहयोग से मिल-जुल कर एक जीवित प्राणी का आकार लें. यह पूरे समाज को जोड़ सकेगा. तभी सही अथरे में पारस्परिक भरोसा, एकता और खुशहाली भी आ सकेगी और समाज सबल बन सकेगा. इसमें उपभोक्ता और उत्पादक, दोनों के बीच अच्छा संबंध होगा. यही प्रकृति की भी दरकार है. प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठा कर जीना श्रेयस्कर है, और पशु इसी के अनुसार चलते हैं. मनुष्य के पास बुद्धि का बल है, और चेतन अस्तित्व में उसे मूल्यों के अनुसार व्यवहार करते हुए अपनी क्षमताओं का विकास करना चाहिए. ऐसा करते हुए स्थायित्व की अर्थव्यवस्था आ सकेगी जो अहिंसा पर आधृत अर्थव्यवस्था की आधारशिला है.

गिरीश्वर मिश्र


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