परत-दर-परत : दलित संघर्ष में अहिंसा के लिए जगह

Last Updated 07 Jan 2018 12:43:20 AM IST

जाति प्रथा ने एक ऐसा समाज बनाया था, जिसमें दलितों से आत्मरक्षा के साधन छीन लिए गए थे. सैकड़ों साल से नियम था कि जो दलित हैं, शस्त्र धारण नहीं कर सकते.


परत-दर-परत : दलित संघर्ष में अहिंसा के लिए जगह

इसे डॉ. भीम राव अम्बेडकर ने दलितों का पुंसत्व-हरण कहा है. यही शब्द महात्मा ने संपूर्ण भारत के लिए प्रयुक्त किया था. अंग्रेजों ने सभी भारतवासियों से शस्त्र धारण करने का अधिकार छीन लिया था. वही नियम अब भी चला आ रहा है. हथियार वही रख सकता है जिसके पास लाइसेंस है, और खासकर दलितों के लिए लाइसेंस पाना बहुत मुश्किल है. दलितों को शस्त्रहीन करने का खास कारण था कि उन पर जो नृशंस अत्याचार किए जा रहे थे, उसका प्रतिवाद न कर सकें. मान्यता है कि हथियार के बल पर अन्याय किया जाता है, तो हथियार से उसका प्रतिकार भी किया जा सकता है. क्या दलितों के मामले में हिंसा अहिंसा से ज्यादा कामयाब हो सकती है? 

नये वर्ष के अवसर पर पुणे में  दलितों के साथ हिंसा हुई.  भीमा-कोरेगांव की दो सौ साल पुरानी जंग की बरसी पर सवर्णो ने दलितों पर आक्रमण कर दिया. दलितों के लिए इस जंग को याद करने का विशेष महत्त्व है. यह पहली बार था, जब दलितों ने अंग्रेजी सेना से मिल कर पेशवाओं पर विजय पाई थी. अम्बेडकर ने इसे दलित शौर्य के एक प्रतीक की संज्ञा दी है. सवर्णो द्वारा हमला करना गलत था, छिप कर हमला करना और भी गलत. पुणो से करीब 30 किमी. दूर अहमदनगर हाईवे पर पेरने फाटा के पास एक शख्स की मौत हो गई. इसके विरोध में अगले दिन महाराष्ट्र के 13 शहरों में प्रदर्शन हुए. पहली बार हुआ जब महाराष्ट्र में शिव सेना को पता चला कि दलित भी मुंबई को अपनी उंगलियों पर उठा सकते हैं.

मेरे मन में प्रश्न उठता है कि आज के तनाव और संघषर्पूर्ण माहौल में दलित शौर्य दिवस मनाना क्या जरूरी था? क्या हम चाहते हैं कि वैसा ही युद्ध आज भी हो और बार-बार हो? उस समय दलित अंग्रेजी सेना में थे (अंग्रेजों ने बाद में महार रेजिमेंट को भंग कर दिया था, जिसका डॉ. अम्बेडकर के बहुत कहने पर पुनर्गठन नहीं हुआ). अंग्रेज सैनिक और महार सैनिक मिल कर लड़ रहे थे. पेशवाओं को हराने के लिए उसने दलितों की मदद ली. स्वयं डॉ. अम्बेडकर ने शिकायत की है कि उसके बाद अंग्रेजी सरकार ने दलितों के लिए कुछ नहीं किया. आज दलितों और पेशवाओं के बीच लड़ाई हो तो दलितों की सहायता कौन करेगा? उलटे सरकारी बल दलितों का ही दमन करेंगे. सवर्णवाद आज भी दलितों का जीवन दूभर किए हुए है. जवाब में दलितों में भी मिलिटेंसी आ रही है. इसकी झलक महाराष्ट्र के दलित पैंथर्स और उत्तर प्रदेश की भीम सेना में हम देख चुके हैं. दलितों की स्थिति को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि उनके बीच मिलिटेंसी का उभार बहुत देर से हुआ है. अपनी दुरवस्था से मुक्त होने के लिए वे जितना भी कठोर संघर्ष करें, उनका स्वागत है. लेकिन दलितों की बढ़ती मिलिटेंसी स्वयं उन्हीं का अपकार न करे, यह समझना भी महत्त्वपूर्ण है.

अम्बेडकर का महाड़ सत्याग्रह (19 और 20 मार्च, 1927) अहिंसक संघर्ष था. महाराष्ट्र के सवर्ण दलितों को सार्वजनिक कुंओं और तालाबों से पानी लेने नहीं दे रहे थे. डॉ. अम्बेडकर के आह्वान पर लगभग पांच हजार स्त्री-पुरुष महाड़ जिले के चवदार तालाब को इस कलंक से मुक्त कराने के लिए सत्याग्रह में शामिल हुए. जैसे ही तालाब की सीढ़ियों पर उतरे डॉक्टर साहब ने तालाब का पानी पिया, जिसका अनुकरण अन्य दलितों ने किया, बौखलाए सवर्णो ने लाठियों से हमला कर दिया. अम्बेडकर ने सत्याग्रहियों को संयम व शांति रखने की सलाह दी. कहा, हमें प्रतिघात नहीं करना है. सत्याग्रह विफल हुआ. अम्बेडकर ने पुन: सत्याग्रह की योजना बनाई. 25 दिसम्बर को हजारों लोग इकट्ठा हुए, लेकिन इस बार सत्याग्रह को स्थगित करना पड़ा. बाबा साहब ने बांबे हाई कोर्ट में लगभग दस वर्ष तक यह लड़ाई लड़ी. अंत में 17 दिसम्बर, 1936 को अछूतों को चवदार तालाब में पानी पीने का अधिकार मिला. यह अस्पृश्य समाज के लिए ऐतिहासिक जीत थी. लेकिन अहिंसा रणनीति के रूप में नहीं, जीवन दशर्न के रूप में होगी तभी कामयाब होगी.

बेशक, दलितों का मिजाज गर्म होने के दर्जनों कारण हैं. उनसे प्रेम और शांति के पालन की मांग उनके साथ ज्यादती है. फिर भी, उन्हें छिटपुट चिनगारियों को जन्म दे कर नहीं रह जाना है, प्रतिष्ठा व समानता का अधिकार पाने के लिए दूरगामी लड़ाई लड़ाई लड़नी है, तो यह अहिंसक संघर्ष से ही संभव है. इसी के आधार पर अहिंसक समाज बनेगा. डॉ. अम्बेडकर को इस कठोर सत्य का अहसास था, इसलिए उन्होंने हमेशा अनाक्रामक संघर्ष का समर्थन किया. इसमें संदेह नहीं कि मुंबई में दलितों द्वारा फैलाई अराजकता का परिणाम दलितों के लिए अच्छा नहीं होगा. भूलना नहीं चाहिए कि दलितों के लिए यह सवर्णो से हिंसक युद्ध के बजाय प्रेमपूर्ण संघर्ष और संघषर्मय प्रेम का संघर्ष है. आखिर, दोनों पक्षों को इसी समाज में रहना है. इसे भुला कर अन्याय शोधन का कोई कार्यक्रम कैसे चलाया जा सकता है?

राजकिशोर


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