मीडिया : गुस्से की सेल

Last Updated 07 Jan 2018 01:01:15 AM IST

विज्ञापनों के बारे में विचार करने वाले मानकर चलते हैं कि वे हमेशा एक ‘उपभोक्ता समाज’; कंज्यूमर सोसाइटीज बनाया करते हैं.


मीडिया : गुस्से की सेल

इसके लिए वे ब्रांडों की पोजीशनिंग करते हैं. उनको ताकत के साथ मीडिया में पेश करते हैं और चूकि हर ब्रांड वर्ग का विज्ञापन अपनी ब्रांड की सटीक पोजीशनिंग के लिए दूसरी ब्रांड से कंपटीशन में रहता है, इसलिए वह नई भाषा नए नारे नए तरीके से ब्रांड की खूबियों को बताता है. खूूबियां अतिरंजित करके ही बताई जा सकती हैं इसलिए हर विज्ञापन अतिरंजना अलंकार का सटीक उदाहरण होता है. लेकिन विज्ञापन सिर्फ उपभोक्ता समाज ही नहीं बनाते उपभोक्ता बनाने की प्रक्रिया में वे समाज के मिजाज का भी प्रतिबिंबन  करते चलते हैं. उनसे समाज के मिजाज की खबर भी मिला करती है.
उपभोग आदमी की आदत बदलता है और विचार भी बदलता है सोचने का तरीका भी बदलता है. और यह काम बिना बताए होता है. हम जब किसी ब्रांड का  उपभोग करते हैं तो हमारे विचार भी बदल रहे होते हैं. इस बदल के बार में हम सजग नहीं होते क्योंकि ‘उपभोग का आनंद’ किसी को सजग नहीं रहने देता. उपभोग करते वक्त हम उस ब्रांड से अपनी हैसियत अपना रुचि और अपनी आदतों को बदलता तो पाते हैं लेकिन बदलाव किधर ले जा रहा है यह नहीं समझ पाते क्योंकि हमारी रुचियां धीरे-धीरे बदलती हैं.
लेकिन  कुछ  दूसरे किस्म के विज्ञापन भी होते हैं जो सीधे बदलने की बात करते हैं जैसे स्वच्छता से जुड़े विज्ञापन और स्वास्थ्य से जुडे विज्ञापन. हम जानते हैं कि ऐसे विज्ञापन ‘जनहित में जारी’ कहे जाते हैं. वैध संस्थाएं या सरकारें ही जन हित बात कर सकती हैं, निजी मुनाफे के लिए काम करने वाले कारपोरेट ऐसा नहीं कर सकते.

ऐसे में अगर कोई विज्ञापन किसी ‘एक्टिविस्ट’ या ‘एनजीओ’ टाइप भाषा बोले तो आप उसे किस श्रेणी में रखेंगे? यह एक नया सवाल है जो विचारणीय है. यों तो हर ब्रांड एक ‘एषणा’ एक ‘ख्वाहिश’ पैदा करता है और उपभोक्ता को छद्म और क्षणिक संतोष का अहसास कराता है. जितने विज्ञापन होते हैं, उतने ही संतोष या ग्राहक के संतोष के, सुख के और आनंद के वायदे होते हैं.
मोटे तौर पर हर विज्ञापन में किसी न किसी प्रकार के आनंद का, सुख का या फायदे का वायदा रहता है. ऐसे विज्ञापनों में सुखेषणा का  विचार अप्रत्यक्ष रूप में बोला करता है यानी आप इसे लें और आराम से जिएं.
लेकिन कुछ विज्ञापन इस सुखेषणा को ‘विचार’ से सीधे भी जोड़कर चलते हैं और नए किस्म के उपभोक्ता बनाते हैं. इन दिनों चैनलों में दिखने वाला एक नया विज्ञापन ऐसा ही है जिसे पढ़ना दिलचस्प है:
विज्ञापन कुछ इस तरह चलता है: ‘देखोगे सोचोगे और दूसरों को सोचने पर मजबूर करोगे..देखोगे और हैरान रह जाओगे..देखोगे और दिखाओगे..देखोगे तो गुस्सा आएगा उस गुस्से को ताकत बनाओ..डरके नहीं कुछ कर के दिखाओगे..देखोगे तो करोगे और दूसरों से करवाओगे..देखोगे..बदलोगे..दुनियाबदल जाएगी..; यह बदल देगा आपकी जिंदगी..’ उक्त विज्ञापन की एकाध लाइन हमसे छूट गई हो सकती है. शायद क्रम भी कुछ बदल गया हो. लेकिन स्क्रिप्ट का कुछ मुख्य वाक्य इसी तरह से सुनाई देते हैं. एक औरत दमदार आवाज देर तक आदेश देती रहती है कि देखोगे..तो जिदंगी बदल जाएगी.
यह एक ‘मोबाइल सर्विस’ की विशेषताएं बताने वाली एक कविता जैसी है. एक दमदार-स्त्री-स्वर जब ‘देखोगे’ कहता है तो लगता है कि देखना है तो इस तरह देखोगे और जो हम कह रहे हैं तो वही वैसे ही होगा. इस ‘कविता’ तीन लाइनें बडी मारके की हैं:
एक है: देखोगे तो गुस्सा आएगा उस गुस्से को ताकत बनाओगे.
दूसरी लाइन है : डर के  नहीं कुछ करके दिखाओगे
तीसरी है: देखोगे बदलोगे दुनिया बदल जाएगी!
प्रकट आशय तो इतना ही है कि अगर ये मोबाइल कनेक्शन लोगे तो दुनिया और जिदंगी सब बदल जाएगी!  लेकिन मोबाइल कनेक्शन का गुस्से से क्या संबंध ऐसी बातें या तो एक्टिविस्ट किया करते हैं या एनजीओ किया करते हैं. एक मोबाइल ऐसा क्यों कर रहा है? अपने मोबाइल सर्विस बेचने के लिए. लेकिन इस चक्कर में वह न केवल गुस्से का आदर्शीकरण करता है बल्कि उसे बेचने भी लगता है.
इस गुस्सैल समय में गुस्से की सेल कहां तक ठीक है? क्या गुस्से के बिना यह स्क्रिप्ट नहीं लिखी जा सकती थी?

सुधीश पचौरी


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