नजरिया : बदला वक्त बदलें नजरिया
कहते हैं कि अंग्रेजों ने देश के टुकड़े किए. हिन्दुस्तान-पाकिस्तान बनाए. मगर, क्या 200 साल बाद भीमा-कोरेगांव के बहाने दलित-गैर दलित उन्माद भी अंग्रेजों ने पैदा किया?
नजरिया : बदला वक्त बदलें नजरिया |
आखिर नफरत की आग को जिन्दा रखने वाले कौन हैं? क्यों भारतीय उपमहाद्वीप जाति और धर्म की आग में सुलग रहा है? सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य में जब तक हम इन घटनाओं को देखने का सार्वभौमिक नजरिया पैदा नहीं करेंगे, तब तक न घटना के वास्तविक कारण सामने आएंगे और न ही उनके निदान ढूंढ़े जा सकते हैं.
महाराष्ट्र के भीमा-कोरेगांव में 200 साल बाद जो संघर्ष देखने को मिला, उसकी तुलना 200 साल पहले के संघर्ष से कतई नहीं की जा सकती. उस संघर्ष के गौरवमय अतीत का उत्सव मनाने के लिए लाखों लोग इकट्ठे हुए थे, जिससे उसकी अहमियत का पता चलता है. लेकिन दो सदी के बाद जो संघर्ष देखने को मिला है, उसे शायद कभी याद करने की जरूरत किसी को महसूस न हो. एक ऐसा माहौल जब पूरा महाराष्ट्र दलित-गैर दलित में बंट गया, जगह-जगह हिंसा, आगजनी देखने को मिली. जान-माल का जितना नुकसान हुआ है, उसका आकलन तो आसानी से हो सकता है. लेकिन सामाजिक रिश्ते के ताने-बाने को जो क्षति पहुंची है, उसका आकलन कर पाना आसान नहीं होगा.
पिछले 100 साल से भीमा-कोरेगांव में विजय स्तम्भ के पास समारोह होता आया था. अंग्रेजों ने 1818 में यह विजय स्तम्भ बनवाया था, जिस पर अंग्रेज-मराठा युद्ध में मारे गए सेनानियों के नाम उत्कीर्ण हैं, जिनमें ज्यादातर महार जाति से है. भीम राव अम्बेडकर ने भी इस जगह होने वाले उत्सव में भाग लिया था, जिस वजह से अब यह दलितों का तीर्थस्थल बन चुका है. इस आयोजन को आज कुछ लोग नए सिरे से परिभाषित कर रोकने की कोशिश कर रहे हैं. वे दलितों के इस आयोजन को ‘अंग्रेजों की जीत का जश्न’ बताते हुए विरोध दर्ज करना चाहते हैं. लेकिन सवाल ये है कि इतने सालों बाद इसे परिभाषित करने और इस बहाने लड़ने की जरूरत क्यों आ पड़ी?
महार जाति के लोग अगर आंग्ल-मराठा युद्ध को अपने जातीय अभिमान और गौरव से जोड़ते आए हैं तो इसे एक मिथक के रूप में स्वीकार कर लेने में आज के समाज को क्या दिक्कत हो सकती है! जबकि, निर्थक और मूर्खतापूर्ण विरोध से दलित और गैर दलित के बीच खाई ही बढ़ेगी. चाहे लाख यत्न कर लें, लेकिन कोई इस बात पर विश्वास नहीं कर सकता कि आज के दलित अंग्रेजों की जीत का जश्न मनाना चाहते हैं.
जो लोग आंग्ल-मराठा युद्ध की बात कर पेशवाओं को देशभक्त बताना चाहते हैं उन्हें इतिहास को देखने का नजरिया बदलना चाहिए. मराठाओं के पतन के कारणों में सबसे बड़ा कारण था पेशवा परिवार, जिसका एक हिस्सा अपने ही परिवार और मातृभूमि के खिलाफ अंग्रेजों की मदद करता रहा. रघुनाथ राव उर्फ राघो बा जैसे लोग अगर राजघराने में हों, तो अंग्रेजों से हारने के लिए किसी और की जरूरत भला क्यों होगी? इसलिए महार जाति के सेनानियों को दोष न दें. उन्होंने तब की परिस्थिति के अनुरूप अपने स्वाभिमान और अस्तित्व की रक्षा के लिए जो सही लगा, वह किया. मगर आज नए सिरे से व्याख्या की जरूरत क्यों पड़ी?
कुछ लोगों ने इस घटना को इस रूप में भी देखा है कि महाराष्ट्र में बीजेपी की सरकार है ,इसलिए महारों के इस उत्सव का बीजेपी विरोधियों ने अपहरण कर लिया. न सिर्फ अपहरण कर लिया, बल्कि राजनीतिक इस्तेमाल भी कर लिया. ये बातें सच हो सकती हैं. उमर खालिद, जिग्नेश मेवाणी का उपयोग राजनीतिक मकसद से हो रहा हो, इससे इनकार नहीं किया जा सकता. लेकिन राजनीतिक मकसद को दरकिनार भी नहीं किया जा सकता. देश में लोकतंत्र है तो राजनीति भी रहेगी और राजनीतिक मकसद भी रहेंगे.
महाराष्ट्र में जातीय हिंसा के बारे में खबर इस रूप में भी सामने आई कि जहां-जहां से जुलूस गुजरना था, वहां छत से पत्थर फेंके गए. इसलिए हिंसा शुरू हुई. कहा ये भी जा रहा है कि पत्थर कुछ दिनों से वहां जुटाए जा रहे थे. इन आरोपों की भी जांच होनी चाहिए. फिलहाल न इसे नकारा जा सकता है, न स्वीकारा जा सकता है. लेकिन, सवाल ये है कि यह हिंसा शुरू कैसे हुई? अगर शुरू हुई तो इतने व्यापक पैमाने पर फैल कैसे गई? दोषी चाहे इस पक्ष के हों या उस पक्ष के, लेकिन महाराष्ट्र की बीजेपी सरकार को इस हिंसा का अंदाजा क्यों नहीं हो सका? अगर अंदाजा था, तो समय रहते इसे रोकने के लिए क्या उपाय किए गए? उपाय किए गए, फिर भी स्थिति बेकाबू हो गई, तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है? जवाब महाराष्ट्र सरकार को ही देना होगा.
200 साल पहले की घटना को याद करने और याद नहीं करने के नाम पर आज हम लड़ें, यह बेहद शर्मनाक है. इस देश पर अंग्रेजों ने 200 साल शासन किया और इस दौरान कोई जाति, कोई धर्म, कोई समुदाय या किसी भी भाषा-भाषी के लोग ये दावा नहीं कर सकते कि उनके पूर्वज अंग्रेजों के खिलाफ सौ फीसद संघर्ष का इतिहास रखते हैं या फिर सौ फीसद अंग्रेजों के सामने घुटने टेकने का. संक्षेप में हम क्यों नहीं समझते कि घुटने भी हमने ही टेके थे, लड़ाइयां भी हमने ही लड़ी थीं, धोखा भी हमने ही अपनों को दिया था और अपनों के लिए शहादत भी हमने ही दी थी. अंग्रेजों के खिलाफ जब देशव्यापी स्तर पर उठ खड़े होने का वक्त आया, तब झंडा भी हमने ही उठाया था.
अपने लिए राजनीतिक आजादी के संघर्ष को अगर हम आम भारतीयों के संघर्ष के रूप में देखना नहीं सीखेंगे, तो महात्मा गांधी बनिया ही नहीं, चतुर बनिया हो जाएंगे, भगत सिंह शहीद-ए-आजम के बजाए ‘सरदार’ कहलाएंगे और वल्लभ भाई पटेल ‘पाटीदार’ के रूप में जाने जाएंगे. इसी तरह, महार जाति के वीरों को ‘अंग्रेजों के लिए लड़ने वाला’ घोषित कर दिया जाएगा.
राजनीति कभी एक पांव से नहीं चलती. उसके दूसरे पांव भी होते हैं. एक पांव अगर उमर खालिद-जिग्नेश मेवाणी के रूप में देखा जा रहा है, तो दूसरे पांव को भी छिपाने की जरूरत नहीं है. ये दूसरा पांव दलितों के जुलूस पर पत्थर फेंकने वाला है. क्यों न इन दोनों पांवों के बीच तालमेल बिठाया जाए. कोई पत्थर पांव पर गिरे या कोई हाथ पत्थर उछाले, दोनों ही हाल में घायल इंसान ही तो होगा. जरूरत इस बात की है कि नफरत की दीवार को तोड़ा जाए, इसके लिए हाथ से हाथ मिले और दिल से दिल-तभी जाकर हिन्दुस्तान का संतुलन बना रहेगा, देश के कदम कभी नहीं लड़खड़ाएंगे और मस्तक यानी कि देश का झण्डा हमेशा ऊंचा रहेगा.
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