आप : हम-तुम में फंस गई आप

Last Updated 06 Jan 2018 04:30:32 AM IST

देश भ्रष्टाचार उन्मूलन, व्यवस्था परिवर्तन और तमाम उच्च आदर्शों के साथ देश के तमाम आंदोलनकारियों, ईमानदार अफसरों और बुद्धिजीवियों की सहानुभूति लेकर सत्ता में आई आम आदमी पार्टी अब हम और तुम के झगड़े में उलझ कर रह गई है.


आप : हम-तुम में फंस गई आप

अगर कुमार विश्वास के शब्दों में कहें तो इस पार्टी में बाहुबली की तरह तमाम कडप्पा घूम रहे हैं, जो न सिर्फ  दूसरे को मारते हैं, बल्कि उनके शवों के साथ छेड़छाड़ करते हैं. हालांकि आम आदमी पार्टी का राज्य सभा का नामांकन देश की एक उदीयमान पार्टी का आंतरिक मामला था और उसे इस निर्णय को इस तरह से करना था कि संगठन मजबूत हो, बाहर उसकी साख बढ़े और राज्य सभा की गरिमा में इजाफा हो. लेकिन तीन सीटों के नामांकन में पार्टी सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल ने इतने पैंतरे चल दिए कि आप की छवि एक क्षुद्र निर्णय लेने वाली पार्टी की बन गई है. अगर आप को पहला बड़ा झटका योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, आनंद कुमार और अजित झा के निष्कासन के साथ मिला था तो दूसरा बड़ा झटका अब कुमार विश्वास को राज्य सभा का टिकट न देने और उसके बदले पार्टी में मचे विद्रोह के साथ मिलने वाला है. कपिल मिश्र ने दिवंगत नेता संतोष कोली की मां कलावती को प्रत्याशी बनाकर चुनौती दे ही डाली है.

आप ने निश्चित तौर पर संजय सिंह को राज्य सभा का उम्मीदवार बनाकर अच्छा निर्णय लिया है क्योंकि वे आंदोलन से निकले हुए नेता हैं और पार्टी की स्थापना से लेकर जुड़े हैं. उनके चयन से पार्टी कार्यकर्ताओं में उत्साह भी है. उनकी उम्मीदवारी का दूसरे दावेदार आशुतोष ने भी समर्थन किया है. लेकिन आप ने कुमार विश्वास और आशुतोष जैसे पार्टी के दो दिग्गजों का पत्ता काटकर अपनी छवि को जो बट्टा लगाया है उसकी भरपाई आसान नहीं है. इसका खमियाजा उसे संगठन के स्तर पर भी भुगतना पड़ेगा और संगठन के बाहर पार्टी की छवि के स्तर पर भी. राज्य सभा में कांग्रेस के जिन तीन सदस्यों की सीटें खाली हो रही हैं,उनमें जनार्दन द्विवेदी, कर्ण सिंह और परवेज हाशमी के नाम हैं. वे सब राजनीति के चर्चित चेहरे हैं और उनकी उपस्थिति से विपक्ष को यह उम्मीद रहती थी कि जब वे खड़े होंगे तो किसी बात को दमदारी से रखेंगे. सदन भी उन्हें सुनेगा.

दिल्ली विधानसभा की 70 में से 67 सीटों पर काबिज होने के कारण उन रिक्त स्थानों की पूर्ति का अवसर आप को मिला है और उसे यह मौका एक स्वर्णिम अवसर की तरह लेना चाहिए था ताकि वह देश के उच्च सदन के मंच पर अपनी उपस्थिति दमदारी से दर्ज कराए. लेकिन एनडी गुप्ता और सुशील गुप्ता के नामांकन से लगता है कि पार्टी ने विशिष्ट लोगों के लिए बने उच्च सदन में सामान्य लोगों को भेज कर वह मौका गंवा दिया. अब दावा किया जा रहा है कि चार्टर्ड एकाउंटेंट एनडी गुप्ता अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ हैं और संसद में आर्थिक मामलों पर हस्तक्षेप करेंगे जबकि सुशील गुप्ता शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में बड़े समाजसेवी हैं और वे हरियाणा में आप को मजबूत करेंगे.

हालांकि सुशील गुप्ता इससे पहले कांग्रेस के टिकट पर दिल्ली विधानसभा का चुनाव लड़ चुके थे और बीच में केजरीवाल से दिल्ली के कोष का 854 करोड़ रुपये खर्च करने का हिसाब मांगते घूम रहे थे. लेकिन विडम्बना यह है कि इन नामांकनों पर धन लेकर टिकट देने का आरोप लग रहा है और ऐसा आरोप लगाने वाले भाजपा सांसद परवेश वर्मा, हरीश खुराना और कपिल मिश्रा पर मानहानि का मुकदमा भी कर दिया गया है. लेकिन आप से टूट कर अलग हुए योगेंद्र यादव जो आप के मॉडल को ही सराहते रहते थे और अक्सर कहा करते थे कि केजरीवाल पर पैसे लेकर काम करने के आरोप नहीं लगाया जा सकते, इस बार वे भी संदेह व्यक्त कर रहे हैं.

विडम्बना देखिए कि इससे पहले केजरीवाल ने आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर जैसे भारी-भरकम लोगों को राज्य सभा भेजने के लिए संपर्क किया था. वे दोनों अधिकारी मौजूदा सरकार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को चुनौती देने वाले रहे हैं और शायद केजरीवाल चाहते रहे हों कि इससे एनडीए सरकार के विरुद्ध उनके संघर्ष को धार मिलेगी. वे शायद मोदी से और पंगा नहीं लेना चाहते थे और उन्होंने मना कर दिया. ऐसे में केजरीवाल को पार्टी के समर्पित लोगों को आगे करना चाहिए था और अगर बाहर से किसी को लाना ही था तो कम से कम ऐसे लोगों को लाते जो अपने राजनीतिक संघर्ष के लिए समाज में सम्मानजनक स्थान रखते हों. उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि एक दौर में उनके साथ मेधा पाटकर, सोनी सोरी, आलोक अग्रवाल और दूसरे तमाम जुझारू सामाजिक कार्यकर्ता जुड़े थे और उन्होंने आप के टिकट पर चुनाव भी लड़ा था. केजरीवाल ने दोनों गुप्ता के जरिये यह संदेश देना चाहा है कि उन्हें मौजूदा सरकार से ज्यादा टकराव नहीं लेना है या फिर यह कहना चाहा है कि पार्टी में उनसे असहमति रखने वाला उनका मित्र नहीं हो सकता. यहां पर कुमार विश्वास द्वारा अपने लिए उद्धृत उनका वह डॉयलाग सटीक लगता है कि-हम तुम्हें मारेंगे, लेकिन शहीद नहीं होने देंगे.

हालांकि विश्वास भी पार्टी के बारे में अनुशासित बातें नहीं कर रहे थे और संभव है कि वे भी भाजपा की कठपुतली हों, इसलिए उन्हें राज्य सभा भेजना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होता, इसके बावजूद पार्टी को उनका उचित विकल्प चुनना था. लेकिन यहां असली सवाल इन हम और तुम के झगड़े में फंसी आप की रणनीति और कार्यनीति से बड़ा है. सवाल यह है कि आप का सिद्धांत क्या सत्ता से चिपके रहना है या उस आंदोलन को आगे बढ़ाना है जिसकी लहर पर सवार होकर वह सत्ता में आई थी? वह आंदोलन जो देश के लोकतंत्र को जवाबदेह और पारदर्शी बनाने के लिए था और अप्रासंगिक होती जा रही संस्थाओं की जगह पर नई संस्थाएं खड़ी करने के लिए था. आज हालत इतने बदल गए हैं कि यह सवाल भी बेमानी है कि कुमार ने आप के विश्वास को तोड़ा या आप ने कुमार के विश्वास को? सवाल यह है कि क्या आप उस जनता और देश के बौद्धिक वर्ग का विश्वास जीत पाएगी जिसका वह कभी दावा कर सकती थी? उसने न सिर्फ  जनता के यकीन को तोड़ा है बल्कि इस देश के बारे में अच्छी नीयत से सोचने और संघर्ष करने वालों को भी उदास किया है.

अरुण त्रिपाठी


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