तीन तलाक : इंसाफ नहीं जुल्म

Last Updated 01 Jan 2018 05:24:48 AM IST

तलाक-ए-बिदत जिसे आम तौर मीडिया तीन तलाक के नाम से प्रचारित करता है को सुप्रीम कोर्ट द्वारा अमान्य करार दिए जाने के बाद अब इंस्टेंट तीन तलाक की तरह ही एक ही झटके में बिना सोचे-समझे लोक सभा ने उसे अपराध मानते हुए एक विधेयक पारित कर दिया.


तीन तलाक : इंसाफ नहीं जुल्म

इसके तहत ऐसा करने वाले पति को तीन साल तक की सजा होगी और अपनी पत्नी और बच्चों का भरण-पोषण भी करना होगा. यही नहीं यह सं™ोय अपराध माना जाएगा. हालांकि अभी यह कानून नहीं बना है लेकिन राज्य सभा से पारित होने के बाद यदि इसी रूप में यह कानून बन गया तो यकीनी तौर पर यह औरत के लिए लाभकारी नहीं बल्कि जुल्म के रूप में सामने आएगा.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक एक नशिस्त में तीन बार तलाक कहने पर तलाक मुकम्मल नहीं माना जाएगा बल्कि यह अमान्य है. जब तलाक हुआ ही नहीं तो फिर पति को किस बात के लिए सजा दी जाएगी. यही नहीं यह साबित करने की जिम्मेदारी भी महिला पर होगी कि उसके पति ने ऐसा किया है. अगर यह मान भी लिया जाए कि किसी पति ने ऐसा किया और पुलिस में पत्नी ने एफआईआर कराई, पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया. उसे जेल भेज दिया. क्योंकि कानून मंत्री ने अपना बिल पेश करते हुए कहा कि अगर कोई पति इंस्टेंट तीन तलाक देता है तो उसे तीन साल की सजा होगी. अब यह बात समझ से परे है कि आखिर जेल में रहते हुए वह पति कैसे पत्नी और बच्चों का भरण-पोषण करेगा. दूसरे; जब उसे तीन साल की सजा हो जाएगी तो पति-पत्नी में मसालहत की गुंजाइश खत्म हो जाएगी.

और तीन माह तक अगर पति-पत्नी में दोबारा साथ रहने के लिए रजामंदी नहीं होती तो तीन माह के बाद एक नशिस्त में तीन बार तलाक कहने को एक तलाक नहीं बल्कि तीन तलाक की हैसियत हासिल हो जाएगी. जो तलाक-ए-बिदत न होकर तलाक-ए-एहसन की श्रेणी में आ जाएगी. हालांकि नया प्रस्तावित कानून इस बारे में कुछ नहीं कहता. इसके अलावा सरकार यह भी नहीं बता पा रही है कि ऐसा कौन पति होगा, जिसे उसकी पत्नी तीन साल सजा करा चुकी है और वह फिर एक साथ रहने को राजी हो जाएगा. यह कदापि नहीं हो सकता. सुप्रीम कोर्ट और नये कानून के हिसाब से तलाक होगा नहीं तो वह महिला जो तलाक के बाद दूसरी शादी कर अपनी नई जिंदगी शुरू कर सकती थी वह हक भी यह कानून उससे छीन लेगा. क्योंकि तलाक के बिना दूसरी शादी नहीं होगी. इस कानून से भ्रमित होने वाली औरतें जब इस रास्ते पर चल पड़ेंगी तो उनकी भी एक बड़ी संख्या ऐसी हो जाएगी जो न शादीशुदा होंगी और न तलाकशुदा ही रहेंगी. यह भी उसी कतार में शामिल हो जाएंगी जैसे 20 लाख से ज्यादा गैर मुस्लिम महिलाएं हैं, जो शादीशुदा हैं लेकिन बेघर हैं क्योंकि उनके पतियों ने उन्हें छोड़ रखा है और तलाक भी नहीं दिया है.
अनेक मुस्लिम महिला संगठनों का भी कहना है कि इससे मुस्लिम महिलाओं की कोई मदद नहीं होगी क्योंकि पति जेल जाने की स्थिति में गुजारा भत्ता कैसे देगा? इन महिलाओं का कहना है कि औरत-मदरे के बीच बराबरी की दिशा में बढ़ना चाहिए, न कि तलाक को अपराध की श्रेणी में डालना चाहिए. एक दूसरा तर्क ये भी है कि तीन तलाक अगर गुनाह बना दिया जाएगा तो मुसलमान पुरुष अपनी पत्नियों को तलाक दिए बिना ही छोड़ देंगे, ऐसी स्थिति महिलाओं के लिए और बुरी होगी. यह भी कहा जा रहा है कि नये कानून की जरूरत नहीं है क्योंकि पहले से ही बहुत सारे कानून मौजूद हैं जो विवाहित महिलाओं को अन्याय से बचाते हैं.
सरकार अगर मुस्लिम महिलाओं की हमदर्द होती तो इस कानून में उनके पुनर्वास की व्यवस्था करती जो उसने नहीं की. या पति-पत्नी में समाझौते के हालात पैदा करने के मौके बनाती जो नहीं किया गया. क्योंकि सरकार का मकसद मुस्लिम महिलाओं की हमदर्दी नहीं बल्कि मुस्लिम समाज में तफरीक पैदा करना उसका मन्तव्य है. इसीलिए मुस्लिम महिलाओं को भ्रमित किया जा रहा है, ताकि वह मदरे के साथ बराबरी के हक के साथ रहने के बजाए उनके मुकाबले पर खड़ी हो सकें और समाज में एक नये किस्म का बंटवारा हो. जैसे शिया-सुन्नी, देवबंदी-बरेलवी या इसी तरह के और मसलकी विभेद हैं. सरकार का यह कदम मुस्लिम महिलाओं जुल्म के मानिंद है. आरएसएस का एजेंडा भी मुस्लिम विरोधी है. वह मुस्लिम समाज के भले के बारे में नहीं सोचती. कुल मिलाकर इस कानून के बारे में जो ढिंढोरा पीटा गया वैसा तो कुछ नहीं बस मोदी सरकार का इस बिल की आड़ में एक नया इवेंट ही मात्र है.

मुफीज जिलानी


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