प्रधानमंत्री : वाजिब है नाराजगी

Last Updated 01 Jan 2018 05:32:19 AM IST

ईसा संवत के नये वर्ष के पहले दिन को लोग अपने-अपने अनुसार मनाते हैं. राजनीतिक दल कैसे मनाएंगे यह उनकी स्थिति पर निर्भर करता है.


प्रधानमंत्री : वाजिब है नाराजगी

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वर्ष 2017 के अंतिम संसदीय दल की बैठक में जो बातें कही उनसे पता चलता है कि वर्ष 2018 एवं उसके बाद 2019 के आम चुनाव के लिए उनकी चिंता कहां जाकर टिक रहीं हैं. हालांकि सुनने में बात बहुत छोटी लगती है लेकिन इसका आयाम काफी विस्तृत है. प्रधानमंत्री ने कहा कि अनेक सांसद उनके गुड मॉर्निग तक का जवाब नहीं देते.
प्रधानमंत्री न जाने सांसदों की बैठक में कितनी बार अनुरोध कर चुके हैं कि आप सोशल मीडिया पर सदा सक्रिय रहिए, अपने क्षेत्र की जतना से सतत संपर्क में रहिए और सरकार के कामकाज का लगातार प्रसार करिए. कई बार प्रधानमंत्री ने कड़े शब्दों में अपनी नाराजगी भी प्रकट की कि अनेक सांसद उनके अनुरोध की अनसुनी करते हैं.

आने वाले प्रश्नों और प्रतिक्रियाओं का वे जवाब नहीं देते. दूसरे, वे अपने क्षेत्र की जनता से जितना संपर्क बनाए रखना चाहिए उतना नहीं रखते. और तीसरे, वे सरकार के कामकाज को ठीक प्रकार से प्रचारित नहीं कर रहे हैं. यही बातें 29 दिसम्बर की बैठक में भी उन्होंने कही. उनके कहने का अर्थ बिल्कुल स्पष्ट था कि जो सांसद उनके गुड मॉर्निग तक का जवाब नहीं देते वे सोशल मीडिया पर कितने सक्रिय रहते होंगे एवं जनता से कितना संपर्क रखते होंगे. बात सही है और चिंतित करने वाली है. किसी भी पार्टी का चुनावी भविष्य इसी बात पर निर्भर करता है कि उसके जन प्रतिनिधि या जन प्रतिनिधि बनने का ख्वाब रखने वाले नेता जनता से संपर्क के हर मंच और अवसर पर कितना सक्रिय रहते हैं.

अगर उनका जनता से ठीक प्रकार से संपर्क ही नहीं है तो फिर जनता भी उनका साथ नहीं देती. यही नहीं अगर आप सरकार में हैं तो आपका प्राथमिक दायित्व न केवल संपर्क रखने का है, जनता की शिकायतें सुनकर उनको दूर करने का कदम उठाना है, बल्कि सरकार के जो कार्य हैं, जो नीतियां हैं उनको जनता तक पहुंचाना, उनके प्रति जागरूक करना है. सरकारी कार्यक्रमों से उनको जोड़ना है. अगर आप यह करते हैं तो फिर लोग सीधे आपसे और सरकार से भी जुड़ते हैं. सांसदों, विधायकों की यह जिम्मेवारी है. प्रधानमंत्री मोदी के कहने का अर्थ है ऐसा उनके सांसद नहीं कर रहे. वस्तुत: दल आधारित संसदीय लोकतंत्र में दलों की चुनावी नियति जनता से सतत संपर्क पर ही निर्भर करता है.

आप अच्छी से अच्छी योजना दे दीजिए, लेकिन यदि जन प्रतिनिधि उसे लेकर जनता के बीच स्वयं नहीं जाते, उनके क्रियान्वयन पर नजर नहीं रखते, जनता को और पार्टी कार्यकर्ताओं को उससे सीधे जोड़कर योजना को वाकई जन योजना में परिणत करने के लिए काम नहीं करते तो फिर योजना भी असफल हो जाएगी. भारत का दुर्भाग्य रहा है कि धीरे-धीरे सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन की सारी जिम्मेवारी सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों पर निर्भर हो गया. इसी कारण अच्छी से अच्छी योजना भी जनता तक को अपेक्षित लाभ नहीं पहुंचा सकी.

अनेक योजनाएं तो सरकारी कर्मिंयों दलालों के बीच ही सिमट कर रह गया. मोदी स्वयं 12 वर्ष तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हैं, उसके पहले भाजपा संगठन में प्रमुख जगह रहे हैं, इसलिए उनको सरकारी कार्यों का भी अनुभव है और नेताओं की भूमिका के महत्त्व का भी. इसलिए वे सांसदों की बैठकों में लगातार उनको सचेष्ट और सक्रिय रहने की सीख देते हैं. प्रधानमंत्री ने कई ऐसे ऐप भी बना दिए हैं, जिन पर सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों की पूरी जानकारी होती है. किंतु उनके द्वारा बार-बार ऐसा कहने का अर्थ है कि उनके सांसद उनकी अपेक्षा के अनुरूप सचेष्ट और सक्रिय नहीं हैं. इससे समस्याएं आएंगी. इस बार की बैठक में उनकी नाराजगी का एक बड़ा कारण गुजरात चुनाव के दौरान आई चुनौतियां भी हो सकतीं हैं.

गुजरात में जनता की सरकार से नाराजगी थी लेकिन वहां के सभी सीटों से जीते 26 सांसदों को इसका पूरा आभास नहीं था. इसका अर्थ है कि उनको जितना काम जनता के बीच करना चाहिए था नहीं किया. जनता के बीच केंद्र सरकार के काम का जितना प्रचार होना चाहिए था उतना नहीं था. मीडिया में स्थानीय लोगों से बातचीत पर जितनी रिपोर्टिग आ रही थी उनसे यह प्रमाणित होता था. इसका यह भी अर्थ है कि सोशल मीडिया के माध्यम से जनता की प्रतिक्रियाओं पर जितनी नजर रखनी चाहिए थी नहीं रखी गई.

वैसे भी प्रधानमंत्री ने यह देखा कि गुजरात चुनाव के दौरान सोशल मीडिया पर जितनी तीव्र सक्रियता और आक्रामकता कांग्रेस की ओर से थी वैसी भाजपा की नहीं थी. क्यों? साफ है कि सांसद और विधायकों ने प्रधानमंत्री की सीख को पूरी तरह व्यवहार में नहीं उतारा है. यह तो दिखाई पड़ता है कि प्रधानमंत्री की लगातार नसीहत का असर नेताओं पर पड़ा है, लेकिन उनके सोशल मीडिया अकाउंटों पर जाएं तो जन्म दिन की शुभकामनाएं, किसी काम के लिए प्रधानमंत्री या मंत्री को बधाई या फिर आपने किसी कार्यक्रम में भाग लिया उसके प्रचार के सिवा ज्यादा कुछ नहीं मिलता. साढ़े तीन साल सरकार चलाने के बाद सांसदों एवं मंत्रियों की ऐसी स्थिति पर प्रधानमंत्री का क्षुब्ध होना वाजिब है. एक समय था जब सोशल मीडिया पर भाजपा और उसके समर्थक सबसे ज्यादा सक्रिय थे.

भाजपा के नेता माने या न माने उनके समर्थकों की आक्रामकता गायब हो गई है. कांग्रेस ने उनका एक हद तक स्थानापन्न किया है. प्रधानमंत्री को सांसदों पर नाराज होने के साथ यह भी सोचना होगा कि ऐसा क्यों हुआ है? आखिर उनके समर्थक इतने बड़े पैमाने पर क्यों निष्क्रिय हो गए हैं? क्या मोदी की नसीहत के बाद उनके नेता और सांसद वाकई स्वयं पहल कर जनता से सतत संपर्क बनाए रखने की कोशिश में मीडिया, सोशल मीडिया या इससे परे भी भाजपा के समर्थन में सक्रिय रहने वालों की खोजबीन कर फिर से उनको भावनात्मक रूप से साथ लाने की कोशिश करेंगे? इसका उत्तर समय देगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो भाजपा के लिए चुनौतियां बढ़ जाएंगी.

अवधेश कुमार


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