यूपीकोका : शिकार होने के अंदेशे

Last Updated 22 Dec 2017 02:05:25 AM IST

कड़े कानून ही हमारी समस्याओं का रामबाण निदान होते तो अब तक उनमें से ढेर सारी जड़-मूल से समाप्त हो गई होतीं.


यूपीकोका : शिकार होने के अंदेशे

लेकिन अफसोस कि न देश की सरकार को यह बात समझ में आती है और न ही ज्यादातर प्रदेश सरकारों को. वे जब भी किसी समस्या को लेकर घिरती हैं, कोई न कोई नया कानून लेकर हाजिर हो जाती हैं. यह दावा करती हुई कि इस सम्बन्धी पुराना कानून अपेक्षाकृत नरम है और उसकी नरमी समस्या से निपटने में बाधक सिद्ध हो रही है. उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की भाजपा सरकार द्वारा बढ़ते संगठित अपराधों पर लगाम लगाने के बहाने महाराष्ट्र के मकोका की तर्ज पर उत्तर प्रदेश कंट्रोल ऑफ ऑर्गनाइज्ड क्राइम ऐक्ट यानी यूपीकोका बनाने व लागू करने की कवायदों को भी इसी रूप में देखा जा सकता है.

अभी आठ महीने पहले यह सरकार प्रदेश में खराब कानून व्यवस्था को, जिसे अखबार और न्यूज चैनल ‘जंगलराज’ की संज्ञा दिया करते थे, खत्म करने के वायदे पर चुनकर आई थी. इसके लिए जरूरी था कि वह अपने तंत्र को स्पष्ट संदेश देती, उसकी काहिली दूर करती और बिना राग-द्वेष के कर्तव्यनिर्वहन में सक्षम बनाती. लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाई, जिसके लिए वह सभी वगरे की आलोचनाएं झेल रही हैं. यूपीकोका दरअसल उसका इस आलोचना से निजात पाने और मतदाताओं को यह झांसा देने का हथियार है कि वह अपराधों के उन्मूलन का अपना वायदा भूली नहीं है और सबसे पहले आतंकवाद, हवाला, फिरौती के लिए अपहरण, अवैध-खनन, अवैध भूमि कब्जों व अवैध शराब के कारोबार जैसे संगठित अपराधों और माफियाओं पर सांघातिक कानूनी प्रहार करने जा रही है. यह संदेश देने के क्रम में भी वह प्रदेश की उन पूर्ववर्ती सरकारों के सोच से आगे नहीं बढ़ पाई, प्रदेश में कानून का राज न स्थापित हो पाने के लिए जिनको जिम्मेदार ठहराती और कोसती वह थकती नहीं.

जानकारों की मानें तो वह गत अगस्त महीने में ही इस निष्कर्ष पर पहुंच गई थी कि अंडरवर्ल्ड और राजनेताओं के बीच के नेक्सस को गैंगस्टर से भी कड़े कानून के बगैर खत्म नहीं किया जा सकता. इस बाबत गृहसचिव मणिप्रसाद मिश्र को मुंबई, दिल्ली और बिहार समेत कई राज्यों में संगठित अपराध के खिलाफ बनाए गए कानूनों का अध्ययन करने के लिए भी भेजा गया था. मायावती ने भी 2007 में ऐसे कानून लाने चाहे थे, लेकिन तात्कालीन मनमोहन सरकार ने इसकी मंजूरी नहीं दी थी. इस सरकार के रास्ते में ऐसी कोई बाधा नजर नहीं आती क्योंकि केन्द्र में भी उनकी ‘अपनी ही’ सरकार है और माना जा सकता है कि बिना उसकी हरी झंडी के वह इस दिशा में नहीं बढ़ी है.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पुराने कानूनों को खत्मकर उनकी संख्या घटाने को लेकर कितनी भी तत्परता बरत रहे हों, गैरजरूरी और नागरिक अधिकारों में कटौती वाले नये कानूनों की संख्या बढ़ाने से न खुद परहेज बरत रहे हैं, न अपनी प्रदेश सरकारों को ही बरतवा पा रहे हैं. उनका कोई मुख्यमंत्री गोहत्या रोकने का कानून कड़ा करने में लगा है, तो किसी को मीडिया पर अंकुश के लिए कड़े कानून की दरकार है. राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की ऐसी ही एक हिमाकत पिछले दिनों बहुत चर्चित रही, जबकि अब, जब प्रधानमंत्री अपने प्रस्तावित वित्तीय समाधान एवं जमा बीमा कानून को लेकर चिंताओं व भ्रांतियों का निवारण नहीं कर पा रहे तो योगी सरकार यूपीकोका लेकर हाजिर है.

चिंतित करने वाली सबसे बड़ी बात यह है कि सरकार के खिलाफ हिंसक आंदोलनों को भी इस कानून के दायरे में लाया जा रहा और दोषियों को उम्रकैद व फांसी की सजा तक का प्रावधान किया जा रहा है. तभी तो विपक्षी दलों ने इसे लोकतंत्र का गला घोंटने वाला कदम बताते हुए अंदेशा जताया है कि इसका विपक्षी नेताओं, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों व मजलूमों को डराने, धमकाने व दबाने के लिए दुरु पयोग किया जायेगा. उन्हें सरकार के इस आश्वासन पर कतई भरोसा नहीं कि वह ऐसे दुरुपयोग रोकने के लिए खास उपाय कर रही है.

वे पूछ रहे हैं कि संगठित अपराधियों व माफियाओं पर अंकुश लगाने के नाम पर सारे प्रदेशवासियों को उन्हीं जैसा मानकर लाया जा रहा कानून उनके नागरिक अधिकारों को महफूज कैसे रख सकता है? आखिरकार सरकारी मशीनरी के लिए सरकार के खिलाफ किसी भी आंदोलन को हिंसक करार देकर उसे करने वालों पर यूपीकोका लगाने के आधार तैयार करना बायें हाथ के खेल से ज्यादा क्यों कर होगा?

कृष्ण प्रताप सिंह


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