येरूशलम : अशांति की आशंका

Last Updated 22 Dec 2017 02:11:26 AM IST

संयुक्त राष्ट्र समेत वैश्विक असहमति के बावजूद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा येरूशलम को इस्राइली राजधानी की मान्यता दिये जाने की घटना ने पूरे विश्व को चिंतित किया है.


येरूशलम : अशांति की आशंका

तेल अवीव स्थित अमेरिकी दूतावास को येरूशलम स्थानांतरित करने के सख्त आदेश की फिलीस्तीन, जॉर्डन व अरब मुल्क समेत कई यूरोपीय-एशियाई राष्ट्रों द्वारा कड़ी निंदा की गई है. ब्रिटेन, चीन, फ्रांस, रूस व जर्मनी जैसे देशों ने इसे दुर्भाग्यपूर्ण बताकर मध्य-पूर्व में हिंसा भड़कने की आशंका जताया है तो वहीं अरब जगत इसके व्यापक असर को लेकर चिंतित है.
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरस द्वारा ट्रम्प के फैसले को दो देशों के बीच शांति की संभावनाओं को नष्ट करने जैसा कदम बताया गया है.

स्पष्ट है कि अमेरिकी राष्ट्रपति के इस फैसले का पूरी दुनिया में विरोध है क्योंकि तकरीबन सात दशकों से अमेरिकी विदेश नीति और इस्राइल-फिलीस्तीन के बीच जारी शांति बहाली की प्रक्रिया में इस विवादित पहल के नकारात्मक असर की संभावनाएं अधिक हैं. शुरुआती प्रतिक्रिया के तहत ईरान के राष्ट्रपति हसन रोहानी द्वारा इसे ‘इस्लामी भावनाओं के उल्लंघन का प्रयास बताते हुए कतई बर्दाश्त नहीं करने की तल्ख टिप्पणी चिंताएं बढ़ाती हैं. तुर्की के राष्ट्रपति एदरेगान ने 13 दिसम्बर को इस्ताम्बुल में ‘इस्लामिक सम्मेलन’ बुलाया और इस्राइल से अपने कूटनीतिक संबंधों की समाप्ति की भी घोषणा कर दी है. इस्राइल जहां इस फैसले को ऐतिहासिक एवं साहसिक बता रहा है, फिलीस्तीन इसे शांति बहाली प्रक्रिया का सत्यानाश और मुस्लिम-ईसाइयों के खिलाफ जंग का एलान मानता है.

येरूशलम  की धार्मिक संवेदनशीलता से सब वाकिफ हैं. यहां से यहूदी, मुस्लिम और ईसाई तीन धर्मों की आस्था जुड़ी है. अल अक्सा मस्जिद विश्व भर के मुसलमानों के लिए जहां तीन सर्वाधिक पवित्र स्थलों में से एक है तो यहूदियों का सुलेमानी मंदिर भी यही स्थित है. इसी जगह पर ईसाइयों की वेस्टर्न वॉल भी है. दशकों से विवादित यह शहर फिलीस्तीन-इस्राइल के विवादों की मुख्य वजह बनी हुई है. येरूशलम  स्थित इस मस्जिद में फिलीस्तीनियों के आने-जाने पर कई तरह के अवरोध जैसे नमाजियों की तलाशी और प्रार्थना के दौरान लाउडस्पीकर की आवाज कम करना व अन्य तरह के प्रतिबंध आदि धार्मिक टकराव के हालिया कारण रहे हैं.

एक दूसरे के अस्तित्व को मान्यता, सीमा-सुरक्षा, जल अधिकार, धार्मिक हस्तक्षेप, येरूशलम  पर नियंत्रण, शरणार्थियों की समस्या आदि लम्बे समय से टकराव के मुद्दे बनी हैं. ऐतिहासिक पक्ष है कि 1914 के दौरान जब फिलीस्तीन तुर्की के ऑटोमन सामाज्य का हिस्सा था, लाखों की संख्या में अरब और हजारों की संख्या में यूरोप से आए यहूदी निवास करने लगे थे. इसी दौरान, ब्रिटेन के तत्कालीन विदेश मंत्री लॉर्ड बलफोर द्वारा फिलीस्तीन में यहूदियों को बसाने का वादा कर दिया गया था. वर्ष 1922 से ब्रिटिश हुकूमत के अधीन होने के बावजूद इस क्षेत्र को लेकर दोनों पक्षों के बीच गृह युद्ध जारी रहा. 1939 तक यूरोप से लाखों की संख्या में यहूदी फिलीस्तीन पहुंचे जिसका फिलीस्तीनियों द्वारा कड़ा विरोध होता रहा.

30 नवम्बर 1947 को संयुक्त राष्ट्र द्वारा यहूदियों व अरबों के विवाद सुलझाने की योजना को सहमति मिली, जिसके तहत 15 मई 1948 को अंग्रेजी शासन समाप्त होने के बाद इस्राइल व फिलीस्तीन को अलग-अलग पहचान मिली. धर्म के प्रमुख तीर्थस्थलों वाले शहर येरूशलम को फिलीस्तीन व इस्राइल दोनों ही से अलग पहचान दी गई. सन् 1948 में एक बार फिर दोनोें राष्ट्रों में युद्ध हुआ, जिसमें येरूशलम  के पश्चिमी हिस्सों पर इस्राइल का कब्जा हुआ. लाखों की संख्या में शरणार्थी पड़ोसी मुल्क में विस्थापित भी हुए. वर्ष 1967 के इस्राइल-फिलीस्तीन युद्ध में फिलीस्तीन को पूर्वी येरूशलम  समेत अपने कुछ और हिस्से खोने पड़े. महत्त्वपूर्ण है कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा इस्राइली कब्जे वाले इन क्षेत्रों को मान्यता प्राप्त नहीं है. सच है कि अधिकांश यूरोपीय देश इसके विरोध में दिखते हैं, लेकिन अमेरिकी नीतियां अस्पष्ट, एकतरफा व गैर-जिम्मेदाराना रही हैं.

अमेरिका में वर्ष 1995 में अपने दूतावास को येरूशलम  स्थानांतरित करने का कानून पारित किया गया था, परन्तु अब तक के राष्ट्रपति मुद्दे की संवेदनशीलता एवं संयुक्त राष्ट्र के मानकों के मद्देनजर मान्यता प्रदान करने से परहेज करते रहे. ट्रम्प द्वारा अपने चुनावी भाषणों में इस मुद्दे को खूब प्रचारित कर वादा किया गया कि सत्तासीन होने पर येरूशलम को राजधानी की मान्यता दी जाएगी. उनकी कैबिनेट में यहूदीवादी महत्त्वपूर्ण भूमिका में हैं भी. इसमें दो राय नहीं कि इस्राइल में बेंजामिन नेतन्याहु और अमेरिका में ट्रम्प के निर्वाचन के बाद इन मुद्दों में गर्माहट बढ़ी है. संयुक्त राष्ट्र द्वारा फिलीस्तीनी जमीं पर उपनिवेश को लेकर पारित प्रस्ताव का नेतन्याहु द्वारा ठुकराया जाना कड़े तेवर का संकेत था. डेविड एम फेडमैन जो इस्राइल में अमेरिकी दूत हैं, उन पर इस्राइल के कब्जे वाले इलाकों में अवैध उपनिवेशन के लिए चंदा जुटाने का आरोप है. ट्रम्प प्रशासन द्वारा फिलीस्तीनियों को मिल रही अनुदान की राशि भी बंद की जा चुकी है.

इस स्थिति में मजबूत वैश्विक हस्तक्षेपों से ही उम्मीद बची है. पश्चिम एशिया के राष्ट्र इस विषय पर गंभीर जरूर दिखे हैं परन्तु यासिर अराफात के आंदोलनरत रहते समाधान का जैसा मार्ग प्रास्त होता था, अब नहीं दिखता. यह भी सच है कि 2007 में गाजापट्टी में फिलीस्तीनियों की आजादी के संघर्ष में कट्टर व आक्रामक रणनीति को बढ़ावा देने वाले ‘हमास’ के कब्जा के बाद संघर्ष और भी हिंसक व अनियंत्रित हो चुका है. जहां तक भारत का सवाल है इसका रुख स्वतंत्र व सुसंगत है. यह पहला गैर अरब देश था, जिसने फिलीस्तीन को मान्यता देकर राजनीतिक संबंध स्थापित किया जबकि नब्बे के शुरुआती दिनों तक भारत इस्राइल को मान्यता देने से गुरेज करता रहा. नरसिम्हा राव के कार्यकाल, 1992 में इस्राइल को मान्यता दी गई जिसके बाद से दोनों के बीच सैन्य संबंध मजबूत हुए. इसी वर्ष पहले भारतीय प्रधानमंत्री की इस्राइल यात्रा वैश्विक घटना बनी. उनके फिलीस्तीन यात्रा की खबर भी चर्चा में है.

केसी त्यागी


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