मीडिया : ब्रांड राहुल

Last Updated 17 Dec 2017 01:10:49 AM IST

राहुल युवराज हैं. शाहजादे हैं. गांधी वंश के उत्तराधिकारी हैं. कांग्रेस एक परिवार की प्रॉपर्टी है. वंशवाद जनतंत्र का विलोम है. जनतंत्र में यह ठीक नहीं. राहुल का अपना किया क्या है?


मीडिया : ब्रांड राहुल

पिछले तीन चार साल से राहुल के ब्रांड को कुछ इसी तरह का बनाया गया है. कांग्रेस की प्रतिस्पर्धी पार्टी भाजपा के नेताओं और प्रवक्ताओं ने राहुल की छवि को कुछ इसी तरह से बनाया है, और मीडिया एक हिस्से ने हमेशा उसे ‘पुष्ट’ किया है. कोई राजनीतिक दल ऐसा सोचे तो समझ में आता है. सत्ता की लड़ाई में ऐसा सोचना स्वाभाविक है. छवियों के समकालीन युद्ध में स्पर्धी की छवि को बिगाड़े बिना अपनी छवि नहीं बनाई जा सकती. लेकिन मीडिया भी किसी की छवि को उसी तरह बनाने या बिगाड़ने लगे तो चिंता होती है, और सोचना पड़ता है कि क्या अपना मीडिया भी समकालीन सत्तात्मक युद्ध में एक प्रतिस्पर्धी है?
कहने की जरूरत नहीं कि कई चैनलों और उनके एंकरों की भाषा ऐसी ही नजर आती है, जिसे देख लगता है कि पेशेवर तटस्थता का कथित दावा करने वाले मीडिया का यह हिस्सा किसी ‘पार्टीजन’ की तरह व्यवहार करता है. कायदे से तो मीडिया को अपनी तटस्थ भाषा और नजरिए से ही काम करना चाहिए. लेकिन जब मीडिया किसी और की भाषा  को अपनी भाषा बनाकर बात करता है, तो लगता है वह भी सत्ता की खुली लड़ाई का हिस्सा बन गया है. सवाल है कि राहुल के प्रतिस्पर्धियों द्वारा प्रेरित की गई पदावली को छोड़ क्या मीडिया के उस खास हिस्से के पास राहुल को परिभाषित करने वाली कोई और पदावली नहीं है?

हमारा मानना है कि मीडिया का एक बड़ा हिस्सा अब भी तटस्थ और पूर्वाग्रहरहित है, लेकिन मीडिया के एक विशेष हिस्से में और उसके कुछ एंकरों में ऐसी पदावली बार-बार घुस आती है जो कि पूरी तरह पॉलिटीकल और पूवाग्रहवादी है. माना कि राहुल एक परिवार से आते हैं, लेकिन एक परिवार का होना अभिशाप तो नहीं हो सकता. कांग्रेस के हजार दोष रहे हों, लेकिन जैसा भी जनतंत्र और विकास आज है, जिसका लाभ उठाकर कांग्रेस विरोधी सत्ता में आए हैं, वह उसी कांग्रेस ने बनाए रखा है, इस बात को तो स्वीकार करना चाहिए. अपने पूर्वाग्रहों के मारे कई एंकर इसे अक्सर भूल जाते हैं. सोशल मीडिया में सक्रिय एक खास विचारधारा के लोगों ने राहुल की छवि ऐसे युवा की बनाई है, जो पप्पू है, नासमझ है, अस्थिर चित्त है, बेमन से राजनीति में है, और अहंकारी है, जिसने आम आदमी की तरह कठिनाइयों को नहीं झेला है. कई एंकर राहुल की इसी छवि को बनाए रखना चाहते हैं, और इसीलिए जब राहुल कुछ हट के काम करते हैं, तो भी वे उनका उपहास उड़ाए बिना नहीं मानते. हमें लगता है कि ऐसे लोगों का राहुल से पर्सनल पंगा है. वे उनको तटस्थ नजरिए से नहीं देख ही पाते और राहुल की बदलती छवि को समझ ही नहीं पाते. तीन-चार महीनों में राहुल ने अपने आपको आम  जनता और पढ़े-लिखों के बीच जिस तरह से पेश किया है, उससे एक ‘नया राहुल ब्रांड’ बनता नजर आता है, जो अधिक आत्मविश्वासी और नई भाषा से भरपूर है.
राहुल के इसी नये अवतार ने भाजपा को परेशान किया है वरना जैसा हमला गुजरात के चुनावों में राहुल पर बोला गया, वैसा न बोला गया होता. उनके विपक्षी जान गए हैं कि राहुल उनका गढ़ा हुआ ‘पप्पू’ नहीं है, और न राहुल पर अब ‘पप्पू’ चिपकने वाला ही है. गुजरात की जनता से हिल-मिल कर, उसके हाथ से अपना हाथ मिला मिला कर, उनके साथ रेस्त्रांओं और ढाबों में चाय-नाश्ता कर करके, अपनी आत्मीय बातचीत से राहुल ने अपनी छवि को एक नया स्तर दिया है, जो एकदम मानवीय और भावानात्मक संबंध बनाने वाला है.
वे एक नई भाषा लेकर सामने आए हैं, जिसमें लोगों को जानने-समझने उनकी तकलीफें सुनने-देखने और उनको कहने पर जोर है. वे राजनीति में घृणा के बरक्स प्रेम की भाषा की बहाली करना चाहते हैं. कुछ दिन पहले तक उनकी आवाज में गूंजने वाला जो गुस्सा होता था, वह गायब है. उनकी वाणी में एक नई मिठास है, जो किसी अन्य नेता की वाणी में नहीं है. जनता से मिल कर उसके दुख-दर्द को सुन-सुनकर उनका कथित अहंकार भी बिला गया लगता है, और वे एक नये राहुल बन गए लगते हैं. इस छवि ने मीडिया द्वारा बनाई उनकी अब तक की छवि को बदल दिया है, और एक नई छवि गढ़ी है,  जो कि ‘जनता मित्र’ की है. इस नये ‘ब्रांड राहुल’ को पढ़ना सभी के लिए जरूरी है.

सुधीश पचौरी


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