नजरिया : कुछ और भी कहता है एक्जिट पोल

Last Updated 17 Dec 2017 01:13:58 AM IST

एग्जिट पोल के अनुमान अगर वास्तविक परिणाम में तब्दील होते हैं, तो 2019 के लोक सभा चुनाव में केंद्र की सत्ता पर बीजेपी का फिर से आसीन होना लगभग तय हो जाएगा.


नजरिया : कुछ और भी कहता है एक्जिट पोल

इसके साथ ही यह भी तय हो जाएगा कि देश में नरेन्द्र मोदी का कोई विकल्प फिलहाल तो नहीं ही है. यही नहीं, गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभाओं के अनुमानित परिणाम यह भी तय कर देंगे कि कांग्रेस को पुनर्जीवन के लिए किसी संजीवनी की जरूरत है, और राजनीतिक पिच पर कप्तानी-पारी खेल कर अपनी टीम को जीत दिलाने के लिए राहुल गांधी को अभी और मेहनत करनी पड़ेगी.
14 दिसम्बर के गुजरात चुनाव के बाद एग्जिट पोल के नतीजे गुजरात और हिमाचल प्रदेश में बीजेपी की सरकार बनने का ऐलान करते दिखाई दे रहे हैं. हालांकि, एग्जिट पोल के ऐसे अनुमान कई बार औंधे मुंह भी गिरते रहे हैं, लेकिन इस बार महत्त्वपूर्ण बात यह है कि चैनलों के साथ संयुक्त रूप से सर्वे करने वाली सभी एजेंसियों ने एकमत से बीजेपी को ही बहुमत मिलने का अनुमान पेश किया है. मतदान बाद सर्वे करने वाली इन एजेंसियों ने इस तरह की संभावना को सिरे से बाहर रखा है कि दोनों राज्यों में कहीं कांग्रेस की सरकार भी बन सकती है.
थोड़े-बहुत अंतर के साथ भी अगर ये एग्जिट पोल सही साबित होते हैं, तो एक बार फिर तय हो जाएगा कि मोदी मैजिक बरकरार है. नोटबंदी या जीएसटी का आम जनता पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा है, और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर लोगों का भरोसा कायम है. कुछ महीने पहले उत्तर प्रदेश में बीजेपी को मिला भारी बहुमत और अन्य राज्यों में सत्ता तक पहुंचाने वाला समर्थन विपक्ष के इन दावों को पहले ही खारिज कर चुका है कि नोटबंदी और जीएसटी को लेकर लोगों में बीजेपी के खिलाफ नाराजगी है.

गुजरात चुनाव कई मायनों में अन्य प्रदेशों के चुनाव से थोड़ा अलग अहमियत रखता है. पहली बात, यह प्रदेश बीजेपी के सबसे कद्दावर नेताओं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह का गृह प्रदेश है. बीजेपी को अगर यहां खारिज कर दिया जाता तो इसका सीधा संदेश जाता कि जिस गुजरात मॉडल के बूते मोदी प्रधानमंत्री बने और बीजेपी को केंद्र की सत्ता तक लेकर आए मॉडल से रूबरू होने वालों और उसे करीब से देखने वालों ने ही उसे नकार दिया है क्योंकि नरेन्द्र मोदी के गुजरात मॉडल को, जिसे बाद में विकास मॉडल के रूप में मान्यता दी गई, विपक्ष महज छलावा बताता रहा है.
दूसरी बात, गुजरात को उद्योगों और व्यापारियों का प्रदेश माना जाता है. जीएसटी और नोटबंदी का सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव भी सबसे ज्यादा इसी प्रदेश के लोगों पर पड़ना चाहिए यानी मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों और बड़े बदलावों ने उद्यमियों से लेकर मजदूरों तक लोगों की जिंदगी में मुश्किलें पैदा की हैं, तो उनका विरोध वोटों के रूप में गुजरात में तो साफ नजर आना ही चाहिए. अगर नहीं, तो विपक्ष का हो-हल्ला बेमानी है, और जनता ने मोदी के विकास मॉडल और आर्थिक सुधारों को अपना समर्थन जारी रखा है.
दरअसल, गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव ऐसे समय पर हुए हैं, जिसे मोदी सरकार के कामकाज के आकलन का सही समय माना जा रहा है. केंद्र में बीजेपी को साढ़े तीन साल बीत चुके हैं. इतना समय किसी सरकार के विजन को समझने-समझाने के लिए काफी होता है. वह भी तब, जबकि सरकार ने आर्थिक नीतियों में सात दशकों की तुलना में सबसे बड़े फेरबदल किए हों. नोटबंदी और जीएसटी को लेकर बड़े विरोध हुए हों और इनसे जनता का सीधा सरोकार रहा हो.
मोदी को लेकर ही नहीं, गुजरात चुनाव राहुल गांधी के लिए भी मील का पत्थर साबित होने वाले हैं. राजनीतिक पंडितों का मानना है कि पिछले 13 साल से सक्रिय राहुल गुजरात चुनाव में अब तक की सबसे परिपक्व और आक्रामक तेवरों वाली रणनीति के साथ उतरे हैं. बीजेपी के पारंपरिक वोटर रहे पाटीदारों के उभरते नेता हार्दिक पटेल को अपने पक्ष में करके राहुल ने चुनाव से पहले बीजेपी को बड़ा झटका दिया था. उन्होंने पिछड़ा और अन्य पिछड़ा वर्ग के नेता अल्पेश ठाकोर को कांग्रेस में शामिल कर लिया, तो दलितों के नेता के रूप में उभर रहे जिग्नेश मेवाणी का भी समर्थन हासिल कर लिया. इस युवा तिकड़ी को जिस तरीके से राहुल गांधी ने झटक लिया था, उसे उनकी शुरुआती और बड़ी कामयाबी माना जा रहा था. अगर नरेन्द्र मोदी के लिए गुजरात प्रतिष्ठा का सवाल था, तो राहुल के लिए भी मोदी के सामने खुद को बड़ा और परिपक्व नेता साबित करने का मौका था. इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में ताजपोशी की तैयारियों के बीच राहुल गांधी ने गुजरात में अपनी पूरी ताकत झोंक दी. उन्होंने उसी युवा वर्ग को लक्ष्य बनाया जो नरेन्द्र मोदी का प्रशंसक माना जाता है. बीजेपी राज में युवाओं की उपेक्षा, शिक्षा और बेरोजगारी को उन्होंने मुद्दा बनाया.
बीजेपी के दूसरे पारंपरिक वोटर यानी व्यापारी वर्ग में पैठ बनाने के लिए राहुल ने बीजेपी सरकार की आर्थिक नीतियों पर तीखे हमले किए. स्टार्टअप इंडिया से लेकर मेक इन इंडिया तक राहुल ने बीजेपी को बार-बार कठघरे में खड़ा किया. चीन के मुकाबले भारत की अर्थव्यवस्था पर सवाल उठाए और अपनी सभाओं में भारी भीड़ जुटाई. लेकिन अगर इसके बाद भी बीजेपी छठी बार गुजरात में सत्ता संभाल लेती है, जैसा कि एग्जिट पोल कह रहे हैं, तो इसे मोदी का जादू ही कहा जाएगा.
गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव परिणाम बीजेपी को और ज्यादा मजबूत करेंगे तो राहुल गांधी के लिए अब तक का सबसे बड़ा संकट खड़ा हो जाएगा. पार्टी अध्यक्ष के रूप में ताजपोशी के साथ-साथ आने वाला यह परिणाम कांग्रेस के खिलाफ बीजेपी को और ज्यादा आक्रामक करेगा, तो कांग्रेस के लिए राहुल गांधी का नेतृत्व बेहद मायूस करने वाला होगा.
अगले साल यानी 2018 में जिन आठ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, वहां बीजेपी अपनी जीत के तमगे लेकर उतरेगी, तो कांग्रेस का नेतृत्व करते हुए राहुल गांधी के पास सारे मुद्दे खत्म हो गए होंगे. इसी लहर में 2019 का लोक सभा चुनाव होगा, जो न सिर्फ  राहुल गांधी का भविष्य तय करेगा, बल्कि कांग्रेस का भाग्य भी तय कर देगा. जहां तक कांग्रेस का सवाल है, तो उसके पास अब केंद्र शासित पुड्डुचेरी समेत कर्नाटक, मिजोरम, मेघालय और पंजाब ही बचते हैं. एक तरफ राहुल गांधी पिछले एक दशक में कांग्रेस को भरोसा नहीं दे सके हैं, तो दूसरी तरफ बीजेपी ने पिछले कुछ समय में धीरे-धीरे बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, असम, गोवा और मणिपुर तक की सत्ता अपनी झोली में डाल ली है.
और, आखिर में करीब आधा दर्जन स्वतंत्र चुनावी एजेंसियों ने जिस तरह गुजरात और हिमाचल प्रदेश में बीजेपी के समर्थन में मतदान होने का अनुमान जताया है, उससे सबसे बड़ा सवाल अब यही खड़ा होता है कि क्या कांग्रेस-मुक्त भारत का भाजपाई नारा सच हो सकता है? यह सवाल ही कांग्रेस को डराने वाला है.
 

उपेन्द्र राय
‘तहलका’ के सीईओ एवं एडिटर इन चीफ


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