सामयिक : जो पीछे छूट गया

Last Updated 15 Dec 2017 07:13:44 AM IST

वरुण मेरा छात्र रहा है. अभी पत्रकार है. 2017 के अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेले में जिन लोगों को जाने की अनुमति थी उनेक बारे में हम लोग मेट्रो में यात्रा करते हुए बात कर रहे थे.


सामयिक : जो पीछे छूट गया

‘पूरी दुनिया एक है’ के शोर के बीच हो रहे दिल्ली के इस अंतरराष्ट्रीय मेले में जाने की इस बार उन्हें ही इजाजत थी जो मेट्रो के काउंटर से टिकट खरीद सकते थे या फिर उन्हें थी जो कि मेले में जाने के लिए ऑनलाइन टिकट खरीद सकते थे.
कोई भी नीति सपाट नहीं होती है. बहुत घुमावदार होती है. इसीलिए उसके पेचों को समझे बिना किसी नीति के एक हिस्से पर कोई स्पष्ट राय नहीं हो सकती है. अंतरराष्ट्रीय मेले के लिए ऑनलाइन टिकट बेचने का मतलब यह होता है कि जिसके पास कंप्यूटर होगा, स्मार्ट फोन होगा और उसमें इंटरनेट की सुविधा होगी और जिसे नई-नई तकनीक से काम करने की आदत होगी वहीं टिकट खरीद सकते हैं. वह टिकट चाहें कितना भी सस्ता हो उसके साथ ये शर्त जुड़ी हुई है. दूसरी शर्त यह है कि वह दिल्ली के मैट्रो रेल में यात्रा करता हो, जिसमें यात्रा दुनिया की सबसे महंगी मेट्रो यात्रा होती है. एक आंकड़ा सामने आया है कि दिल्ली में मेट्रो रेल पहले से ही बहुत महंगा था और जब से इसे और महंगा किया गया है तब से रोजाना तीन लाख लोगों ने दिल्ली में मेट्रों पर यात्रा करनी छोड़ दी है. किस दरजे के लोगों ने मेट्रो रेल में यात्रा करनी छोड़ी है. उसे इम्तियाज आजाद के एक एसएमएस के इस टेक्स्ट से समझा जा सकता है. वे लिखते हैं कि आज मैं आपके पास नहीं पहुंच पाऊंगा. कल सुबह डीटीसी का बस पास बनवाउंगा तो एक साथ कई जगह हो आऊंगा. क्योंकि मेट्रो का किराया बहुत बढ़ गया है.

इम्तियाज काबिल और हुनरमंद है. वे लिखते हैं. अनुवाद करते हैं. संपादन करते हैं. वगैरह वगैरह. इस वगैरह में दिहाड़ी मजदूर होने की दास्तां छिपी है. मतलब रोजाना जो काम मिल जाता है उसे करने के लिए तैयार हो जाते हैं. एक दिहाड़ी मजदूर कभी ठेला चलाने लगता है तो कभी सिर पर सामान ढोने लगता है. कबाड़ी की तरह काम करने की मजबूरी होती है, जिसमें उस दिन की रोटी मिल सके. मेट्रो में यात्रा से वंचित लोगों को अंतरराष्ट्रीय मेले से भी वंचित कर दिया गया. वरु ण ने इन्हीं उदाहरणों के आधार पर निष्कर्ष पेश किया था कि जो पीछे छूट गया, वह छूट गया. पीछे छूटने का मतलब यह हुआ कि अब तक उसने जो कुछ हासिल किया था उसे उससे पीछे छोड़ते जाना है. मेट्रो रेल की यात्रा छूट गई. बस पर वापस लौट आना पीछे छूटने का एक किस्सा है. दिल्ली में मेट्रो किराये के बहुत बढ़ने के बाद डीटीसी की बसों में जो लाखों की भीड़ बढ़ गई है वह एक साथ दिख रही है कि कैसे वह पीछे छूट रही है. उन महिलाओं और बूढ़ों को मैंने मेट्रो रेल में अफसोस जताते हुए सुना है कि इतना किराया बढ़ गया जो मेट्रो की यात्रा छोड़ने की मजबूरी के साथ मेट्रो स्टेशन से बाहर निकल रहे थे. वे अपनी यात्राओं में कटौती करेंगे और करने लगे हैं. इस तरह पीछे छूटना एक नीति हो गई. एक उसकी कतार बन गई. वह लंबी होती जाएगी और तब वह बहुत लंबी दिखाई देगी, जब इस नीति से दूसरे क्षेत्रों में पीछे छूटने वाली कतार मिलती दिखाई देगी. मतलब अंतरराष्ट्रीय मेले में 2017 में नहीं जाने वालों की कतार इससे मिल जाती है. एक नीति अलग अलग जगह पर कई कतारें खड़ी करती है और इस वक्त पीछे छूटने वाली कई कतारें तैयार हो रही है. लोगों के बीच से बहुत सारे लोगों को एक साथ पीछे धकेलना एक राजनीतिक फैसला  होता है. किसी बहाने किसी चीज की कीमत बढ़ाने या बढ़ने का यह मसला नहीं है.
यह नीतिगत फैसला है. जैसे इस नीति से एक बात और जोड़ी गई कि मेट्रो में किराये में बेतहाशा बढ़ाने का निहितार्थ उबर या ओला जैसी कंपनी को लाभ पहुंचाना है. वे ड्राइवरों से टैक्सी खरीदने के लिए कहती है. वे किराये पर टैक्सी चलवाने का मैनेजमेंट करती है. जब तीन चार लोगों को एक साथ मैट्रो पर यात्रा करनी हो तो वे मैट्रो के किराये से थोड़ा ज्यादा देकर टैक्सी की सवारी करने के बारे में सोचने लगे. टैक्सी घर से उठाएगी और घर तक पहुंचाएगी. यह तर्क मेट्रो से कुछ ज्यादा टैक्सी का किराया चुकाने की ताकत तीन चार लोगों को देता है. तर्क लोगों के नहीं होते हैं. नया जमाना है. तर्क कंपनियों में तैयार होते हैं, जो अब वाह्ट्सअप और चैनलों के स्टूडियो के जरिये इंसानी कानों में अपनी जगह बना लेते हैं. ऐसी स्थिति में तब क्या होता है.
इंसान राजनीतिक व्यवस्था में हैं लेकिन भगवान को याद करने लगता है. किस्मत की दुहाई का प्रचार जोर-शोर से होता है. पीछे छूटे हुए लोगों के बीच एक व्यक्ति के आगे निकलने की कहानी को बार-बार दोहराया जाता है ताकि पीछे छूटे हुए लोगों के बीच भगवान और किस्मत पर आस्था बनी रहे. वह राजनीतिक बातों से हायतौबा करने लगे. राजनीतिक बातों में उसकी दिलचस्पी खत्म हो जाए. वह उन्हें सुने जो सफलता के नमूने गिनाता हो. राजनीतिक स्थितियां एक चक्र की तरह होते हैं. यह चक्र एक बार टूटता है तो फिर टूटने का क्रम चलता रहता है. यह क्रम हमारे बीच टूटता चला गया है. राजनीति के बीचों-बीच गरीब और गरीबी की बातें रही है. उस राजनीति की भाषा गरीबों को हर स्तर पर बराबर के अधिकार दिलाने वाली रही है. लेकिन वह भाषा बदल गई है. प्रधानमंत्री कहते हैं कि गरीबों के प्रति अमीरों को सहानुभूति दिखानी चाहिए.
गरीबों को हर स्तर पर बराबरी की भाषा में बात करने का मतलब है कि राजनीति का उद्देश्य उसे समानता के दौड़ में शामिल करना है लेकिन जब उसके प्रति सहानुभूति की भाषा में बात करते हैं तो उसका मतलब है कि वह पीछे छूट गए लोगों के प्रति दया दिखाई जाए. यह एक नया राजनीतिक चक्र बनाता है, जिसमें अधिकार दया के चेहरे में बदल जाता है. गरीब और गरीबी राजनीतिक बातों के केंद्र में अब नहीं है. राजनीति के केंद्र में हिन्दुत्व स्थापित हो गया है. जिस तरह राजनीति के बीच में गरीबी और गरीब रही है तो राजनीतिक चक्र उसी तरह का तैयार हुआ है. अब राजनीति की धूरी में हिन्दुत्व आ गया है. राजनीति का चक्र बदल रहा है. गरीब और गरीबी बढ़ रही है. पीछे छूटने वाले लोग गरीबों की कतार का नाम है. इस राजनीति में  समानता नहीं हो सकती है. उसमें लोग पीछे छूटते चले जाते हैं. पीछे छूटे हुए लोग राजनीतिक समानता के नारे के चक्र से बाहर हो जाते हैं. इसीलिए वरु ण का यह निष्कर्ष है कि जो पीछे छूट गया वह छूट गया.

अनिल चमड़िया


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