आसियान : बने सहकार की जमीन

Last Updated 16 Nov 2017 05:50:00 AM IST

आसियान तथा हिंद-प्रशांत क्षेत्र के देशों के शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी असाधारण राजनयिक सक्रियता का प्रदर्शन किया.


आसियान : बने सहकार की जमीन

उनके प्रशंसकों के अनुसार दो दिन में लगभग आधा दर्जन राष्ट्राध्यक्षों या शासनाध्यक्षों से उभयपक्षीय वार्ता कर उन्होंने भारत के सामरिक तथा आर्थिक राष्ट्रीय हितों का दूरदर्शी अभूतपूर्व संरक्षण करने का प्रयास किया है. दूसरी तरफ, उनके आलोचकों का मानना है कि यह महज लफ्फाजी है, जिसका मकसद आंतरिक मोर्चे पर आर्थिक संकट के निवारण में नाकामी से नागरिकों का ध्यान बंटाना-हटाना है. यह तर्क बिल्कुल निराधार भी नहीं-नोटबंदी के दर्दनाक नतीजे अब सामने आ रहे हैं, और वित्त मंत्री अरुण जेटली की विसनीयता जीएसटी को उतावली के साथ लागू करने के कारण निश्चय ही नष्ट हुई है. पर गुजरात में चुनाव हो   या देश में असहिष्णुता का बढ़ता माहौल आज भी मोदी का व्यक्तिगत करिश्मा काफी हद तक बरकरार है.

दक्षिण चीन सागर में चीन के आक्रामक विस्तारवाद की उपेक्षा हमारे लिए घातक साबित हो सकती है. जापान, फिलीपींस, वियतनाम और भारत के हितों में चीन के प्रतिरोध के संदर्भ निश्चय ही बहुत साम्य है. इसीलिए जापानी, वियतनामी प्रधानमंत्रियों तथा फिलीपींस के राष्ट्रपति के साथ मोदी की मुलाकातें महत्त्वपूर्ण समझी जानी चाहिए. पर यही बात ऑस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैंड के नेताओं के बारे में नहीं कही जा सकती. ये मूलत: गोरे देश हैं, जो पहले ब्रिटेन और अब अमेरिका की छतछ्राया में रहने के आदी हैं. इनसे आशा करना कि आर्थिक हितों के संयोग के कारण ये भारत को चीन पर तरजीह देंगे, व्यर्थ है.

आणविक ईधन की आपूर्ति के मामले में स्पष्ट हो चुका है कि ये अमेरिका के दिशा-निर्देश पर ही काम करते हैं. चीन भी इनके लिए भारत जैसा ही आकर्षक बाजार है, और दक्षिणी गोलार्ध में इन्हें मलय देशों या हिंदचीन के राज्यों की तरह चीन का दबाव सीधा नहीं झेलना पड़ता. दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों की तरह भारत के साथ इनके सदियों पुराने सांस्कृतिक संबंध भी नहीं. ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड को शामिल कर जिस चतुर्भुज का निर्माण करने का प्रस्ताव अमेरिका ने पेश किया है, वह इन सहायकों-संधिमित्रों के माध्यम से बिना चीन को चौकन्ना किए इस भूभाग तथा जलराशि में अपनी मौजूदगी को ही पुख्ता करने की कोशिश है.

विडंबना यह है कि अपनी हाल की चीन यात्रा के दौरान जैसे नरम तेवर ट्रंप ने दिखलाए उनके मद्देनजर नहीं जान पड़ता कि चीन के साथ परोक्ष मुठभेड़ के लिए भी अमेरिकी सदर ने कमर कसी है. भारत को पाकिस्तान द्वारा निर्यात किए जा रहे आतंकवाद पर अंकुश लगाने के भरोसे पर भी उनके प्रशासन ने अमल नहीं किया है. अत: यह आश्वासन विसनीय नहीं लगता कि ‘एक मार्ग एक मेखला’ वाली चीनी परियोजना का मुकाबला एशिया प्रशांत चतुर्भुज कर सकता है.

जापान के साथ भारत की सामरिक साझेदारी शिंजो एबे तथा मोदी की व्यक्तिगत मैत्री से ही नहीं हम दो देशों के सामरिक हितों के सन्निपात से भी दृढ़ हुई है. जापान उत्तर कोरिया को चीन के समर्थन-संरक्षण के कारण ही संकटग्रस्त है. दक्षिण कोरिया भी निरापद नहीं. पर भूराजनैतिक कारणों से आशा करना निर्मूल है कि भारत को एशिया-प्रशांत क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका सौंप कर अमेरिका या कोई दूसरा देश उसका कद बढ़ा सकता है. न भूलें कि आसियान कई दशक पुराना क्षेत्रीय संगठन है. इसमें भागीदारी की भारतीय कोशिशें ‘विशेष आमंत्रित सदस्यता-पर्यवेक्षक’ की हैसियत तक ही सीमित रही है. इसका जन्म दक्षिण-पूर्व एशिया में साम्यवाद-चीन के प्रसार को रोकने के लिए ही अमेरिकी प्रेरणा से किया गया था.

इसके सदस्यों में गंभीर मतभेद भी हैं. हिंदचीन के देश, म्यांमार, थाईलैंड मलय जगत का हिस्सा नहीं. मलयेशिया, ब्रूनेई तथा इंडोनेशिया अपने पड़ोसियों से सिर्फ जातीय या भाषायी आधार पर ही नहीं धार्मिंक मान्यता एवं सांस्कृतिक विरासत की दृष्टि से भी भिन्न हैं. यह सुझाना तर्कसंगत है कि इन देशों के साथ भारत की चेष्टा उभयपक्षीय रिश्तों को ही घनिष्ठ बनाने की होनी चाहिए. पर बात समाप्त करने के पहले रेखांकित करना जरूरी है कि एशिया-प्रशांत वाली शब्दावली हमें फिजूलखर्च मरीचिका में फंसा सकती है. शंका जायज है कि जैसे अमेरिका अफगानिस्तान से जान छुड़ाने के लिए भारत को वहां पठाना चाहता है, वैसे ही द. एशिया में उसका प्रभुत्व या वर्चस्व धुंधलाने के लिए उसे और बड़े मंच पर खर्चीली भूमिका के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है.

भारत भौगोलिक लिहाज से प्रशांत सागर तटवर्ती नहीं और न ही इस क्षेत्र के साथ उसके ऐतिहासिक-सांस्कृतिक नाते ऐसे रहे हैं, जिन्हें सामरिक नजर से संवेदनशील समझा जा सकता हो. इसकी तुलना में मध्य एशिया, पश्चिम एशिया, ईरान तथा अरब जगत के साथ-साथ खाड़ी देश और पूरबी अफ्रीका हमारे लिए प्राथमिकता रखते हैं.  विकल्प खुले रखना सराहनीय है, पर अपने राजनय की प्राथमिकता हमें स्वयं तय करनी होगी. दिलचस्प यह कि जो विश्लेषक अमेरिका के साथ हमारे विशेष संबंधों के पक्षधर रहे हैं, वे भी ट्रंप के आचरण को देख ‘नई गुटनिरपेक्षता’ की बात करने लगे हैं! मोदी स्वयं इस दौरे के पहले पूरब की तरफ देखते रहने की जगह पूरब में कुछ करने का नारा दे चुके हैं. सोचने की बात यह है कि हम करना क्या चाहते हैं, कब और कहां? हिंद-प्रशांत क्षेत्र वाले चतुर्भुज का एक कोना चीन-जापान वाला भी है. क्या उसके रहते कल्पना की जा सकती है कि वह किसी दूसरे देश को मौका देगा कि उसके बढ़ते प्रभुत्व का प्रतिरोध करने का प्रयास करे?

चीन को संतुलित करने के लिए जापान और दक्षिण कोरिया यथेष्ठ नहीं. इस दिशा में सार्थक प्रयास करना है, तो भारत-बांगलादेश-इंडोनेशिया-वियतनाम की धुरी का निर्माण जरूरी है. आबादी, प्राकृतिक संसाधनों व तकनीकी विकास के साथ-साथ अपने बाजार के आकार एवं सामरिक हितों के संयोग से ही चीन पर अंकुश लगाया जा सकता है. जाहिर है यह परियोजना अमेरिका को रास नहीं आ सकती. क्या हम सोच सकते हैं कि मनीला में मोदी भविष्य में किसी ऐसे सहकार की जमीन तैयार कर रहे थे?

पुष्पेश पंत


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