हिमालय : दिखानी होगी संजीदगी

Last Updated 17 Nov 2017 01:01:32 AM IST

एक समय था, जब लोग हिमालय का भ्रमण पैदल ही करते थे. उस समय की बारिश से पहाड़ों में नये-नये जलस्रोत फूटते थे.


हिमालय : दिखानी होगी संजीदगी

नदियां भी उफान पर रहती थी. इसके बावजूद तीर्थस्थलों का दर्शन करने वाले लोग भी वापस आपने घरों तक सुरक्षित पहुंच जाते थे. पहाड़ के रास्तों में छोटी-छोटी चट्टियां, चाय पकौड़ी और भोजन के लिए बने छप्पर और महात्माओं की कुटिया में रहकर आनंद के साथ लोग रात गुजराते थे. आज ये पैदल रास्ते इतने चौड़े हो गए कि आधुनिक प्रकार की बसें व कारे चलने लगी है.

इन सुविधाओं की प्राप्ति के लिए पहाड़ों की भौगोलिक संरचना, सवेदनशीलता का बिल्कुल भी ख्याल नहीं रखा गया है. पर्यटन और पैसों के लालच में अंधाधुंध निर्माण हुआ और नदियों को कई स्थानों पर बांधा गया है. इस प्रकिया में मिट्टी और जंगल का इतना क्षरण हुआ कि पहाड़ नासूर बनकर जख्मी हो गए हैं. इसका परिणाम है कि एक ही स्थान पर कई बार भूस्खलन हो रहा है. प्रकृति जब तक इन घावों को भरने के लिए नई हरियाली उगाती है, तब तक अगले साल बनने वाली और चौड़ी सड़क अथवा नदी परियोजना उसे भी रौंद डालती हैं.

यदि ऐसा नहीं हुआ तो जंगल की आग में हरियाली राख बन जाती है. पर्यटक एवं तीर्थ यात्रियों की सुख-सुविधाओं के लिए सड़कों के किनारे बने होटलों और ढाबों के आसपास दूरस्थ गांव के लोग रोजगार के लिए जमा होने लगे हैं. इसके कारण तेजी से नदियों और भूस्खलन से प्रभावित पहाड़ों के नजदीक घर बनाए जा रहे हैं. जहां कोई पूछने वाला नहीं कि घर बनाते समय जल सरक्षण व जल निकासी, शौचालय का गड्ढा धरती की सीमित आकृति के आनुसार किस तरह बनाई जा सकती है. लगातार भूस्खलन और निर्माण कार्यों का मलवा गाद के रूप में नदियों के अलावा बस्तियों, खेतों में बहकर आ रहा है. इसके चलते खेती-बाड़ी की जमीन के साथ गांव भी दब रहे हैं. इस बेहिसाब बारिश को धरती ने भी संभालने से मना कर दिया है. इसके कारण हिमालय में हजारों गांव पर भूस्खलन का खतरा मंडरा रहा है.

अकेले उत्तराखंड में इस तरह की स्थिति के बीच लगभग 1000 गांवों का अस्तित्व संकट में है. लेकिन राज्य सरकार ने इसमें से 395 गांव को ही विस्थापित करने की सोची है. आलम ये है कि राज्य के पास अभी तक न तो कोई पुर्नवास नीति है, और भूमि व बजट की इतनी अधिक कमी है कि केवल बागेर जिले के दो गांव का ही विस्थापन मंजूर कर पाई है. वैसे प्रभावित क्षेत्र के विस्थापन के लिए भूमि पहली आवश्यकता है. पहाड़ी राज्यों में अधिकांश भूमि का मालिक वन विभाग है. विडम्बना है कि बांधों, बैराजों, पूंजीपतियों को भूमि उपलब्ध कराने में जितनी देर लगती है, उससे 100 गुना अधिक समय प्रभावितों को भूमि देने की प्रक्रिया में व्यतीत हो जाता है.

जियोलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया ने भूस्खलन के लिए अति संवेदनशील गांवों की आबादी को अन्यत्र ले जाने और इनमें नई आबादी न बसाने का सुझाव सरकार को दिया है. इसी तरह वाडिया भूगर्भविज्ञान संस्थान ने भी आपदा संवेदनशील गांव में तेज बारिश से बढ़ रही नमी के कारण बादल फटने की संभावनाओं पर केंद्र को अवगत कराया है. इसके बावजूद नेपाल-भारत के बीच पंचेर, जमरानी जैसे विशालकाय बांधों की डीपीआर तैयार हो रही है. इससे पूर्व निर्मित टिहरी बांध के प्रभावित क्षेत्र पर नजर डालेंगे तो सन 2003 तक टिहरी बांध के डूब क्षेत्र से लगभग डेढ़ लाख से अधिक लोगों को अपना घर बार छोड़ना पड़ा था.

उसके बाद भी बांध में पानी भरने के कारण यहां शेष बचे 100 से अधिक गांव पर भूस्खलन का खतरा मंडरा रहा है, जिससे बचने के लिए प्रतिवर्ष औसत 5 नये गांवों का विस्थापन अदालतों के आदेश पर किया जाता है. विकास का यही चेहरा अब भारत-नेपाल के बीच महाकाली घाटी में दोहराया जा रहा है. इन जलविद्युत टरबाइनों के पीछे जमी रेत बरसात के समय छोड़ी जाती है, जो मैदानी उपजाऊ भूभाग को रेतीला बना रही है.

हिमालय में भूकंप का खतरा बना हुआ है, दूसरी ओर निर्माण कार्यों में बड़ी मशीनों व डाइनामाइट के प्रयोग से पहाड़ हिल गए हैं. इससे बचने के लिए हरित निर्माण तकनीकि का उपयोग नहीं होता है. पेरिस जलवायु सम्मेलन की पहल को कामयाब करना है तो भारत को अपने हिमालय के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करना पड़ेगा. 8 सितम्बर 2017 को हिमालय नीति के लिए भारत के सांसदों के नाम खुला पत्र भी जारी किया गया है. लेकिन यह तभी संभव है जब केंद्र सरकार हिमालय की आवाज को सुने और एक हिमालय नीति का निर्माण करे.

सुरेश भाई


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