विश्लेषण : कश्मीर केवल घाटी नहीं

Last Updated 15 Nov 2017 05:06:54 AM IST

जब बात फारूक अब्दुल्ला की हो तो बात एकदम बेबात हो सकती है. मसलन वे चिल्ला सकते हैं कि सिंधु नदी क्या किसी के बाप की जागीर है कि भारत पाकिस्तान को पानी छोड़ना बंद कर दे.


विश्लेषण : कश्मीर केवल घाटी नहीं

या, वे धमकी दे सकते हैं कि अगर अनुच्छेद 35ए के साथ छेड़छाड़ की गई तो कश्मीर में ऐसे हालात पैदा होंगे जिनसे कि लोग अमरनाथ विवाद के समय की बगावत को भी भूल जाएंगे. न तो भारत सरकार का कोई प्रस्ताव था कि पाकिस्तान को पानी बंद कर दिया जाएगा और न ही सरकारी तौर पर अनुच्छेद 35ए को चुनौती देने की कोई कार्रवाई हुई थी. लेकिन अनावश्यक कितनी भी हों, डॉ अब्दुल्ला के बयानों से खलबली तो मचती ही है. जितनी कश्मीर में मचती है, उससे कहीं अधिक दिल्ली में होती है.

नरेन्द्र मोदी सरकार की कश्मीर नीति बहुतों की समझ में नहीं आती तो उनकी समझ में भी नहीं आती है. पहले सरकार ने तय किया कि कश्मीर पर पाकिस्तान से बात नहीं करेंगे. फिर कश्मीरी आतंकी गुटों के विरुद्ध कठोर योजना बना कर उनकी घेराबंदी करने का निश्चय किया. सुरक्षा बलों को पहली बार कश्मीरी आतंकवाद के बारे में अपनी जमीनी नीति तय करने की छूट दी गई. उस छूट का सुरक्षाबलों ने भरपूर उपयोग किया.

नतीजा हुआ कि अब आतंकवादी गुटों के लिए अपना कमांडर घोषित करना भी कठिन हो गया है क्योंकि घोषणा के कुछ दिनों में ही उसके मारे जाने का समाचार मिल जाता है. जब आतंकवादी पस्त हुए तो सरकार को एक वार्ताकार भेजने की सूझी, वह भी ऐसा व्यक्ति जिसे पहले से जम्मू-कश्मीर में खुफिया ब्यूरो तंत्र का अनुभव  है, जो आतंकवादियों और उनके संपकरे के बारे में सब कुछ जानते हैं. यानी एक पुलिसवाले को सुलह-मशविरा करने के लिए भेज दिया है. ऐसे हालात में जब राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने अलगाववादियों के विदेशी आर्थिक स्रोतों को बंद कर दिया हो, दिनेर शर्मा को वार्ताकार बनाना, कश्मीर नेताओं को उलझन में डाल रहा है कि वे इसे वार्ता मानें कि तफ्तीश.

अब्दुल्ला का कहना है कि कश्मीर में स्थाई शांति के लिए बिना पाकिस्तान को शामिल किए कोई हल नहीं निकल सकता है. लेकिन पाकिस्तान को वार्ता में शामिल भी किया जाए तो क्या हल निकल आएगा? अब तक पाकिस्तान के साथ बीसियों बार बातचीत हो चुकी है. मोदी सरकार के दौरान भी शिखर वार्ताएं हुई हैं. लेकिन क्या कोई स्थाई समझौता हुआ? इसके विपरीत, हालात  अधिक जटिल हो गए. हिंसा का माहौल अधिक तीव्र हो गया. उसका सीधा-कारण है कि पाकिस्तान पूरे कश्मीर या अधूरे कश्मीर, किसी पर भी स्पष्ट रूप से जो दावा करता है, वह भारत को स्वीकार नहीं हो सकता है. पाक पूरे कश्मीर पर दावा करता है और भारत भी पूरे कश्मीर को भारत का अंग मानता है. ऐसे में हमें प्रतीक्षा करनी होगी, जब तक कि भारत और पाकिस्तान में स्थाई दोस्ती नहीं होती.

पाकिस्तान के साथ दोस्ती के मार्ग में केवल कश्मीर ही नहीं, वह क्षेत्रीय संतुलन भी हैं जो पाकिस्तान के कारण बिगड़ चुका है और जिससे पूरे दक्षिण एशियाई क्ष्ेत्र का परिदृश्य असुरक्षित हो गया है. इसका अहसास डॉ अब्दुल्ला को है, इसलिए उन्होंने कहा है कि जो पीओके है, वह पाकिस्तान का भाग है, जैसे शेष कश्मीर भारत का भाग माना जाता है. अगर पूरे कश्मीर पर बातचीत करनी है तो पीओके के बारे में पाकिस्तान को साथ रखना आवश्यक है.

उन्होंने यह भी दलील दी कि कश्मीर तीन बड़े देशों से घिरा है, जो शक्तिशाली परमाणु शक्तियां हैं-भारत, चीन और पाकिस्तान. यह स्वतंत्र देश नहीं रह सकता है. उसे लगातार सुरक्षा की समस्याओं से जूझना पड़ेगा. इसलिए विकल्प तो दो ही हैं-भारत और पाकिस्तान. स्वाभाविक है फारूक के इन विचारों से राष्ट्रवादी गुटों में भी और पाक समर्थक गुटों में भी खलबली मच गई है. पीओके को पाकिस्तान का भाग बताने के लिए उनकी तीखी आलोचना हुई है तो स्वतंत्र कश्मीर के विकल्प को खारिज करने के लिए सईद अली शाह गिलानी भी भड़क उठे हैं. 

लेकिन अगर उनके इन बयानों को व्यावहारिकता के आधार पर जांचा जाए तो तर्कसंगत कहा जा सकता है. सदा के लिए न सही तो तात्कालिक रूप से पाकिस्तान का अधिकृत क्षेत्र पाकिस्तान ही माना जाएगा. वहां उसी देश की हुकूमत और कानून चलते हैं. गिलानी लाख कहें कि आजाद कश्मीर तीसरा विकल्प है, पाकिस्तान ने दशकों पहले इस विकल्प को खारिज कर दिया था. जेकेएलएफ के अवसान का कारण ही यही था कि वह कश्मीर की स्वतंत्रता की वकालत करता था और पाकिस्तान को स्वतंत्र कश्मीर कभी स्वीकार ही नहीं था. लेकिन अब्दुल्ला कश्मीर को केवल कश्मीर घाटी मान कर सोचते रहे हैं. यही विसंगति अन्य कश्मीरी नेताओं की भी है.

जम्मू-कश्मीररियासत अफगानिस्तान की सीमाओं तक फैली थी. और पारंपरिक व्यापार मार्ग जिसे आज चीन ने हथिया कर अपने विकास का राज मार्ग बन दिया है, उसीका हिस्सा था. गिलगित और आसपास के रजवाड़ों का पाक के कब्जे में जाने से पूरे पश्चिमी क्षेत्र के सामरिक-आर्थिक गलियारे पर पाकिस्तान का कब्जा हो गया और अब वही चीन के अधिकार में आ गया है. उससे पूर्व-पश्चिम के बीच के संपर्क मार्ग अवरुद्ध हो गए हैं. डॉ. अब्दुल्ला के लिए इनका कोई मायने नहीं होगा, लेकिन भारत जैसे देश के लिए तो वर्तमान और भविष्य दोनों दृष्टियों से ये अहम है. अंग्रेज गिलगित एजेंसी बनवा कर अपने साम्राज्य की सुरक्षा निश्चित करवाना चाहते थे तो क्या भारत जैसे विकासमान राष्ट्र के लिए अपनी स्वाभाविक सीमाओं की अनदेखी की जा सकती है?

जो भूल हमने स्वतंत्रता के तुरंत पश्चात की थी, उसे भविष्य के लिए भी भाग्यरेखा मान कर चुप नहीं बैठा जा सकता है. अब्दुल्ला के ताजा कथन के बारे में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि इतिहास में हर सदी में नये देश बने हैं, पुराने गायब हो गए हैं. ऐसा कुछ अपनी ही विसंगतियों के कारण होता है तो कुछ युद्धों के कारण भी. बांग्लादेश का जन्म ताजा घटना है. केंद्र के वार्ताकार कश्मीर की जनता की शिकायतों और मुश्किलों को समझने के लिए गए हैं. डॉ अब्दुल्ला को उनसे कुछ नहीं कहना है. लेकिन राजनीति तो करनी ही है. उनके बयान अक्सर फुलझड़ी की तरह होते हैं, जो अंधेरे में कुछ क्षण चमकती तो है, लेकिन क्षण बीत जाने पर पता ही नहीं चलता कि वहां कुछ हुआ भी था कि नहीं.

जवाहरलाल कौल


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