मुद्दा : देह ही हमारी दवा है

Last Updated 15 Nov 2017 05:02:42 AM IST

राजस्थान के शिक्षा विभाग की एक पत्रिका है शिविरा. इसमें हाल में प्रकाशित एक सलाह महिलावादी संगठनों के निशाने पर है.


मुद्दा : देह ही हमारी दवा है

स्कूली शिक्षकों के लिए प्रकाशित इस पत्रिका के ताजा अंक में एक जगह सलाह दी गई है कि महिलाएं चक्की पीसने, बिलौना बिलोने (यानी मक्खन को मथना), पानी भरने और घर में झाड़ू-पोंछे जैसे काम खुद करें तो ये कामकाज दैनिक व्यायाम के अच्छे विकल्प हो सकते हैं. लेकिन महिलाओं को संबोधित इस सलाह को महिलावादी संगठनों और विचारकों ने पत्रिका की सलाह को महिला विरोधी और लैंगिक भेदभाव से प्रेरित बता दिया है.

बेशक, घरेलू कामकाज को सिर्फ  महिलाओं तक सीमित करने का प्रयास आलोचना का केंद्र हो सकता है, लेकिन यदि यह देखा जाए कि आज हमारे देश की कस्बाई और शहरी महिलाओं को शारीरिक श्रम के कितने मौके मिल रहे हैं, तो ऐसी सलाहें महिलाओं की सेहत के लिए उपयुक्त प्रतीत होती हैं. हम जिस आधुनिक जीवनशैली पर इतना इतरा रहे हैं, उसके बारे में सच यह है कि उसने पूरे समाज को आरामतलब बना दिया है.

हालात ये हैं कि संक्रमण से होने वाली बीमारियों से कहीं ज्यादा लोग जीवनशैली की वजह से पैदा हुई बीमारियों के शिकार हो रहे हैं. देह को श्रम से दूर करने की हर कोशिश दिल, फेफड़े, मधुमेह, अवसाद और मोटापे जैसी बीमारियों के रूप में सामने आ रही है, लेकिन दुर्भाग्य है कि लोग बिना यह जाने अपनी आधुनिक जीवनशैली का जश्न मना रहे हैं कि वह कितनी घातक है. दुनिया में होने वाली 50 लाख मौतों को इस किस्म की निष्क्रिय जीवनशैली से जोड़ा जा सकता है.

भारत का किस्सा इससे अलग नहीं है. देश में शहरों के विस्तार और आधुनिक जीवनशैली से जुड़ीं सुख-सुविधाओं पर हम चाहे जितना इतराएं, लेकिन इनका कड़वा पहलू यही है कि दिनोंदिन बढ़ती आरामतलबी जान की मुसीबत बन रही है. यह किस्सा कितना खतरनाक रूप ले रहा है-इसका एक आकलन जीबीडी-2010 रिपोर्ट (ग्लोबल र्बडन ऑफ डिजीजेज, इंज्युरीज एंड रिस्क फैक्टर्स) के आधार पर कुछ साल पहले किया गया था.

दरअसल, जीबीडी-2010 यूनिर्वसटिी ऑफ वॉशिंगटन स्थित इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मीट्रिक्स एंड इवैल्युएशन (आईएचएमई) का एक प्रोजेक्ट है. इस रिपोर्ट में मुख्य रूप से बताया गया था कि दोषपूर्ण जीवन शैली की वजह से पूरी दुनिया समेत भारत में भी दिल और फेफड़े की बीमारियों, डायबिटीज, स्ट्रोक्स और डिप्रेशन का खतरा बढ़ता जा रहा है. वैसे तो बीमारियों के लिए स्वच्छ हवा की कमी, प्रदूषण, असंतुलित और दोषपूर्ण भोजन भी जिम्मेदार हैं, लेकिन निष्क्रियता वाली लाइफस्टाइल कहीं ज्यादा बड़ी बीमारी साबित हो रही है.

भारत जैसे खेतीबाड़ी और अन्य श्रमसाध्य कार्यों पर निर्भर रहे देश-समाज की महिलाओं को क्या मोटापे की चिंता करनी चाहिए-यह सवाल आज से पंद्रह-बीस साल पहले यहां की महिलाओं के लिए अप्रासंगिक था, लेकिन आज यह सवाल के बजाय चिंता का विषय बन गया है. हालांकि गांवों में खेतिहर और शहरों में मजदूर महिलाओं के लिए खानपान संबंधी हालात अब भी ज्यादा नहीं बदले हैं, इसलिए उन्हें मोटापे की चिंता से नहीं निपटना है.

समस्या कस्बाई, शहरी लड़कियों और महिलाओं के लिए है, खानपान के साथ जिनकी दिनचर्या में आमूलचूल परिवर्तन आया है. शहरी की तरह ग्रामीण-कस्बाई स्त्रियों के जीवन में भी टीवी, इंटरनेट, मोबाइल फोन ने घुसपैठ कर ली है, जिसने घर के बाहर की उनकी गतिविधियों पर विराम लगा दिया है. बदलती जीवनशैली का एक प्रभाव खानपान पर भी हुआ है. शहरों में ही नहीं, गोंडा-बहराइच जैसे कस्बों में भी पिज्जा-चिप्स-बर्गर जैसे खानपान तेजी से प्रचलन में आए हैं, और भारतीय शैली के वे खानपान हाशिये पर चले गए हैं, जो आसानी से पच कर ऊर्जा में बदल जाते थे. शरीर पर अतिरिक्त चर्बी नहीं बढ़ाते थे.

वैसे तो आज अपनाई जा रही जीवनशैली वक्त की मांग कही जा सकती है क्योंकि न तो शहरों में अब एसी बसों-कारों-मेट्रो जैसे यातायात साधनों से पीछे हटा जा सकता है, और न ही टीवी-मोबाइल-कंप्यूटर जैसी जरूरतों की अनदेखी की जा सकती है. इसके बजाय कोशिश करनी होगी कि देह को ही दवा बना लिया जाए. घर की साफ-सफाई से लेकर कई घरेलू काम ऐसे हैं, जो मशीनों और सहायकों के जिम्मे न छोड़कर खुद किए जाएं तो शारीरिक श्रम की जरूरत की भरपाई करते हैं. खराबी शहरी सुख-सुविधाओं को अपनाने में नहीं, बल्कि दिनचर्या को उनके हवाले छोड़कर निष्क्रियता की जीवनशैली अपनाने में है.

मनीषा सिंह


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