स्मृति : थम गई खनकती आवाज
हिन्दुस्तानी संगीत में पूरब गायन शैली की बनारस गायकी अनूठी और सर्वाधिक लोकप्रिय गायिका विदूषी गिरिजा देवी का निधन भारती संगीत जगत की अपूरणीय क्षति है, जिसे चिरकाल तक महसूस किया जाता रहेगा.
गायिका विदूषी गिरिजा देवी (file photo) |
बीते दिन सुबह कोलकाता में हृदयगति रुक जाने से उनकी मृत्यु हो गई. वे 89 वर्ष की थीं. तकरीबन 70 साल तक संगीत की महफिलों और सार्वजनिक मंचों पर अपनी खनकती और सुरीली आवाज की रंग भरती हुई पूरी तरह से छाई रही गिरजा देवी का सबसे बड़ा योगदान ठुमरी गायन को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता प्रदान करना.
सदियों तक संगती के क्षेत्र में रस में घुली उनकी ठुमरी रसिकों को भाव विभोर करती रही इस गायन में बनारस की रसूलन बाई, बडी मोतीबाई, सिद्धेरी देवी, पं. माधव प्रसाद मिश्र जैसे दिग्गज गायक-गायिकाओं में अपने अंदाज में ठुमरी को संवारा और सजाकर पेश करने में इस शैली को समृद्ध किया पर इन हस्तियों के विदा होने के बाद ठुमरी गायकी हाशिए पर आ गई और लुप्त होने के कगार पर पहुंचने लगी. ऐसे समय में विदूषी गिरिजा देवी ने न सिर्फ ठुमरी को उभारा बल्कि अपने कंठ स्वरों में जो रंग भाव पैदा किया, उससे ठुमरी शोहरत की बुलंदी पर पहुंच गई. और गिरजा देवी ठुमरी की पर्याय बन गई.
ठुमरी के प्रति आम लोगों में जागृति और अलख जगाने में उनका एक उल्लेखनीय योगदान है. उन्हीं के प्रयास से देश में ‘ठुमरी महोत्सव’ की शुरुआत हुई. इस वयोवृद्ध उम्र में गाने में अपना जादुई रंग बिखेरती रही गिरिजा देवी में श्रोताओं को अपनी बातचीत और भाव से रिझाने का भी बड़ा हुनर था. शायद यही कारण है कि उनको चाहने वाले रसिक इस उम्र में भी बार-बार सुनने को बेचैन रहते थे. जीवन की आखिर सांस तक वो ठुमरी, कजरी, चैती, झूला, होली आदि को सच्चे स्वरों में साध कर गाती रहीं.
उनके गायन में आनंद की अनुभूति को रूपाकार प्रदान करने की उमंग झलकती थी. एक शिखर गायिका के साथ गिरिजा देवी एक महान व प्रतिष्ठित गुरु भी थीं. वे शायद इस गायन के क्षेत्र में एक मात्र गुरु थीं, जिन्होंने बड़ी तादाद में सुयोग्य शिष्य तैयार किए. उनकी शिष्या स्नेहलता मिश्रा भावुक होकर कहती हैं ठुमरी में मेरा जैसे गुरु कोई दूसरा नहीं हुआ. मैंने गुरु को नहीं अपनी मां को खो दिया. ठुमरी में कैसे भाव और बोल-बनाव होता है ये बताने वाला कोई नहीं है. सबसे बड़ी बात थी मेरे गुरु से जो सीखने आया वह उनका ही हो गया. वे सबको बहुत स्नेह और प्यार करती थीं. इस शैली में गिरिजा देवी की कई शिष्याएं हैं, जो गायिका के रूप में मंच पर स्थापित हैं.
उनमें सुनंदा शर्मा, मालनी अवस्थी, स्नेहलता, रूपन सरकार आदि प्रमुख हैं. पिछले सात दशकों से अपनी प्रभावशाली प्रस्तुतियों से लगातार वे संगीत रसिकों की सराहना अर्जित करती रही हैं. गिरजा देवी को प्राप्त हुए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मानों की एक लंबी सूची है, उनमें सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित है भारत सरकार के द्वारा प्रदान किया हुआ पदम विभूषण अवार्ड. रस कलश को भरने वाली गिरिजा की देवी के स्थान की भरपाई करने वाला फिलहाल कोई दूसरा कलाकार नहीं दिखता है.
यह सचमुच विडम्बना है. महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस गायन शैली में जो उन्होंने एक नया दरवाजा खोला और राह दिखाई वह अपने में एक बहुत बड़ा आयाम है. गिरिजा देवी की गायन की जो खास बात थी और जिस पर वह ज्यादा ध्यान देतीं थीं वो थी; शब्दों की स्पष्टता. उनका मानना था कि साहित्य की जो रचना गायन में पेश होती है उसका एक-एक शब्द बहुत स्पष्ट होना चाहिए. उन्होंने बनारस की जो पारंपरिक गायकी थी उसको नया रंग और विस्तार देने में एक अलग भरा-पूरा अंदाज दिया.
और साबित किया कि ठुमरी भी ख्याल गायकी की तरह पूरी तरह से शास्त्रीय और पूर्ण है. उससे यह भ्रम टूटा कि ठुमरी उप शास्त्रीय नहीं है. आज हमारे बीच में जितने भी लोग ठुमरी गा रहे हैं उनमें से अधिकांश गिरिजा देवी की शैली का अनुसरण कर रहे हैं. बनारस के उस्ताद बिसमिल्लाह खान, पंडित किशन महाराज से लेकर देश भर के तमाम कलाकारों ने गिरिजा देवी के गायन की बहुत सराहना की है और कहा है कि ठुमरी में गिरिजा देवी जैसी विलक्षण और अनोखी गायिका कोई दूसरी नहीं है.
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