जापान : किधर ले जाएंगे आबे
शिंजो आबे ने जापानी संसद (डायट) के निचले सदन हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव के लिए हुए 48वें आम चुनाव में भारी बहुत प्राप्त कर यह दिखा दिया है कि जापान की जनता उनके नेतृत्व में स्वयं को आगे बढ़ने के साथ-साथ सुरक्षित होते देखना चाहती है.
जापान : किधर ले जाएंगे आबे |
शिंजो आबे द्वारा देश को दिए गए इस वचन कि वे उत्तर कोरिया के खिलाफ सख्त काउंटर मेजर्स अपनाएंगे के बदले देश की जनता ने उन्हें दो-तिहाई बहुमत देकर सत्ता सौंपी है. ऐसे में कई प्रश्न हैं, जो कम-से-कम एशिया-प्रशांत क्षेत्र की आगे की राह स्पष्ट करने में सहायक हो सकते हैं.
पहला प्रश्न यह है कि क्या शिंजो आबे अब जापान के चरित्र को बदलने की कोशिश करेंगे? अर्थात क्या वे जापान को एक आर्थिक ताकत से एक सैनिक ताकत में परिवर्तित करने में सफल हो पाएंगे? क्या वे एक शांतिप्रिय देश से जापान को पुन: सैन्यवाद की ओर ले जाने की कोशिश करेंगे? क्या वे भारत के साथ कोई सैनिक गठबंधन बनाने की कोशिश करेंगे? दरअसल जापान के सामने जो चुनौतियां हैं सुरक्षा, आर्थिक एवं जानसांख्यिकी से जुड़ी चुनौतियां ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं.
इस समय चीन और उत्तर कोरिया जापान के समक्ष लगातार चुनौतियां खड़ी कर रहे हैं. प्योंगयांग की तरफ से जो भी चुनौतियां पैदा की जाती हैं उन्हें चीन का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से बीजिंग का समर्थन हासिल होता है. ऐसी स्थिति में जापान के लिए जरूरी है कि वह चीनी ताकत को काउंटर करने का उपाय करे लेकिन शिंजो आबे ने प्योंगयांग के खिलाफ सख्त काउंटर मेजर्स की बात कही है. इसका कारण है प्योंगयांग की तरफ से हाल के महीनों में होक्काइदो द्वीप पर मिसाइलों का दागा जाना.
दक्षिण चीन सागर में चीन की आक्रामकता और कुछ द्वीपों को लेकर जापान से उसका टकराव और ‘उसका वन बेल्ट वन रोड’ सीधा संदेश दे रहा है कि चीन अब जापान के उस सिद्धांत को अपना चुका है, जिसे जापान ने दूसरे विश्व युद्ध से पहले प्रतिपादित किया था. ऐसे में आबे के लिए यह जरूरी होगा कि वे जापान के संविधान में कुछ बदलाव करें. वैसे आबे पहले से ही ‘पोस्ट-वार पेसिफिस्ट संविधान’ में संशोधन करने की मंशा रखते हैं. ध्यान रहे कि शिंजो आबे मंत्रिमंडल ने 2014 में संविधान में युद्ध विरोधी, शांतिप्रिय प्रावधान की नये सिरे से व्याख्या की थी.
आबे संवैधानिक शांतिवाद की छह दशक पुरानी सीमा को दृढ़तापूर्वक लांघने को आतुर हैं, इसलिए उन्होंने लगातार जापान का रक्षा बजट बढ़ाया है. ध्यान रहे कि जापान ने 1947 में अमेरिका के दबाव में शांति संबंधी कानून बनाया था. इस संविधान के अनुच्छेद 9 में युद्ध के पूर्णतया त्याग का प्रावधान है. लेकिन अब जिस तरह से चीन जापान को एक स्खलित राष्ट्र की संज्ञा देकर मजाक उड़ाता है उससे स्पष्ट है कि चीन से मुकाबला करने के लिए जापान अमेरिकी छतरी से बाहर बाहर अपनी स्वयं की सैन्य छतरी तैयार करनी होगी.
जापान एशिया की एक प्रभावाली अर्थव्यवस्था है और अभी नॉमिनल जीडीपी पर वह दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, इसलिए जापान में आने वाले भावी बदलावों का असर दुनिया पर गहरा पड़ेगा. लेकिन इस समय जापान बूढ़ा हो रहा है इसलिए उसका घटता हुआ वर्कफोर्स और गिरती हुई विकास दर उसके लिए चिंता का विषय बना हुआ है. इस दिशा में ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप ट्रेड एग्रीमेंट उसके लिए काफी मददगार साबित हो सकता था लेकिन अब अमेरिका इससे पीछे हट रहा है. एक महत्तवपूर्ण बात यह है कि अभी तक ट्रंप प्रशासन यह स्पष्ट नहीं कर पाया है कि उसकी पैसिफिक नीति क्या होगी?
क्या ट्रंप स्ट्रैटेजिक ट्राइंगल को और मजबूत करने का उचित प्रयास करेंगे जिसमें भारत, जापान एवं अमेरिका शामिल हैं? यद्यपि उत्तर कोरिया को लेकर ट्रंप आक्रामक दिख रहे हैं लेकिन उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता, शायद यही वजह है कि जापान अब रक्षा के मामलों में आत्मनिर्भर होना चाहता है. वैसे इस दिशा में भारत जापान का अहम साझेदार हो सकता है लेकिन भारत के सामने भी अहम सवाल होगा कि वह चीन को किस नजरिए से देखे? चीन का कहना है कि भारत-जापान विकास में साझेदार बनें, सैन्य गठबंधन के नहीं. दरअसल, चीन न केवल जापान के साथ भारतीय संबंधों को बल्कि पूर्वी एशिया के देशों के साथ भारत के कूटनीतिक प्रयासों को इसी चश्मे से देखता है.
इसलिए भारत ऐसे प्रयासों में पीछे भले न हटे लेकिन बहुत से संकोचों एवं हिचकिचाहटों के साथ ही आगे बढ़ पाता है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या भारत जापान की नई सरकार के साथ ट्रांस-पैसिफिक से लेकर हिन्द महासागर तक एक रणनीतिक साझेदारी का निर्माण कर एक रक्षात्मक दीवार निर्मित करने में सफल हो पाएगा ताकि चीनी गतिविधियों को हिन्द महासागर में रोका जा सके. ऐसा भी संभव हो सकता है कि भारत जापान के साथ नई रक्षा-विदेश एवं अर्थनीति (टू प्लस टू के साथ-साथ थ्री-प्लस-थ्री) पर काम करे क्योंकि चीन को काउंटर करने के लिए इन तीनों मोचरे पर एक साथ काम करना जरूरी होगा.
हालांकि जापान ने भारत के साथ 2 प्लस 2 समझौता किया है जो रक्षा एवं कूटनीति से जुड़ा बेहद अहम समझौता है. भारत इसका फायदा चीनी ताकत को काउंटर करने के लिए कर सकता है. लेकिन चीन की इस तरह का आक्रामकता एवं वैश्विक ताकत बनने की महत्त्वाकांक्षा उसकी आर्थिक ताकत से उद्भूत है. इसलिए यह आवश्यक होगा कि चीन आर्थिक ताकत ताकत को कमजोर किया जाए.
फिलहाल देखना यह है कि आबे जापान को उसी रूप में पेश करेंगे जिस रूप में शी जिनपिंग ने पिछले सप्ताह ग्रेट हाल ऑफ पीपुल्स में चीन को पेश किया और इस एरा को ‘चाइनीज एरा’ का नाम दिया. यदि ऐसा हुआ तो प्रशांत महासागर की रणनीति में बहुत से नये आयाम जुड़ जाएंगे. इसमें सबसे अहम पक्ष होगा टकराव एवं हथियारों के प्रतिस्पर्धा की, जो न ही हिन्द महासागर के लिए हितकर होगा और न प्रशांत महासागर के. हां भारत इसका फायदा उठा सकता है लेकिन उसे ड्रम पीटने की बजाय वास्तविक प्रगति के लिए प्रयास करना होगा.
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