मुद्दा : कुदरत से जंग की तैयारी
दुश्मन देश से नापाक घुसपैठ और गोलाबारी हो और उसमें हमारे सैनिकों की जान चली जाए तो हर कोई कराह उठता है, पर मौसम की मुश्किलों में फंसकर कई जवान ‘शहीद’ हो जाएं तो इस कुर्बानी को शहादत का दर्जा भी नहीं मिलता.
मुद्दा : कुदरत से जंग की तैयारी |
शायद यह बात सरकार को समझ आ गई है, इसीलिए हाल में केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भारत-चीन सीमा पर आईटीबीपी की 50 ऐसी चौकियां बनाने का ऐलान किया है, जिनमें तकनीक की मदद से अंदर का तापमान पूरे साल 20 डिग्री बनाए रखा जाएगा. चीन ही नहीं, पाकिस्तान सीमा पर भी ऐसे कई इलाके हैं, जहां हमारे दर्जनों सैनिकों को तकरीबन हर साल सिर्फ कुदरत के कहर के कारण जान गंवानी पड़ती है.
उल्लेखनीय है कि इस साल की शुरु आत में पहले तो 26 जनवरी को गुरेज और सोनमर्ग में 15 सैनिक हिमस्खलन (एवलॉन्च) की चपेट में आ गए थे, फिर 28 जनवरी को माछिल सेक्टर में पांच सैनिक ट्रैक के धंसने से बर्फ के नीचे दब जाने से मारे गए थे. यह तकरीबन हर साल का किस्सा है. पिछले साल भी फरवरी में सियाचिन के नॉर्थ ग्लेशियर में एवलॉन्च की चपेट में आकर 19-मद्रास रेजिमेंट के 10 जवानों की मौत हो गई थी.
ऐसी हर मौत के बाद पूछा जाता है कि क्या किसी तरह वीर जवानों की ऐसी शहादत टाली नहीं जा सकती है? कोई सवा दशक पहले 2005 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संसार के सबसे ऊंचे युद्ध क्षेत्र यानी सियाचिन का दौरा कर उसे ‘माउंटेन ऑफ पीस’ में बदलने की इच्छा इसी उद्देश्य से जताई थी, ताकि भविष्य में कभी हमारे सैनिक इसलिए जान न गंवाएं कि वे दुश्मन बन गई कुदरत से लड़ नहीं पाए. गौरतलब है कि वर्ष 1984 से, जबसे सियाचिन पर भारत ने अपना अधिकार किया है, इस इलाके में हमारे 900 से ज्यादा जवानों की मौत की वजह कठिन मौसम रहा, न कि शत्रु पड़ोसी का कोई धावा.
भारत, चीन और पाकिस्तान के कब्जे वाले उत्तरी कश्मीर के इस इलाके 22 ग्लेशियर हैं, जिनकी औसत ऊंचाई 11 हजार 400 से 20 हजार फीट तक है. यहां का औसत तापमान शून्य से 200 डिग्री नीचे तक चला जाता है. यहां इंसान ही नहीं, मशीनें भी अपनी क्षमता का महज एक चौथाई काम कर पाती हैं. मौसम की जटिलताओं के कारण, अच्छे-से-अच्छा भोजन लेने पर भी वहां तैनात सैनिकों का वजन प्रति महीने 5 से 8 किलो घटता रहता है. हालांकि उन्हें वहां बनाए रखने के लिए सरकार को औसतन पांच करोड़ रुपये प्रतिदिन और एक हजार करोड़ से अधिक रकम सालाना खर्च करनी पड़ती है.
क्या कोई उपाय ऐसा नहीं है, जो यह पैसा और कीमती जानें बचा सके. सत्तर और अस्सी के दशक में कश्मीर के ऊंचे इलाकों समेत सियाचिन में सिर्फ पर्वतारोही ही जाते थे. उस समय पाकिस्तान ने भी काराकोरम और सियाचिन क्षेत्र में देसी-विदेशी पर्वतारोहियों को जाने की इजाजत दे रखी थी. पर 1984 से ये हालात बदल गए हैं. वर्ष 1984 में भारत ने ‘ऑपरेशन मेघदूत’ नामक अभियान चलाकर सियाचिन के जिस इलाके पर अपना नियंत्रण स्थापित किया था, उसके करीब 2600 वर्ग किलोमीटर हिस्से की निगरानी सैनिकों के जिम्मे आ गई.
रणनीतिक रूप से देखें तो भारतीय सेना ने सियाचिन के दो प्रमुख दरे बिलाफेंडला और सियाला को अपने अधिकार में लिया था.
इससे पाकिस्तान की सियाचिन और कश्मीर के बर्फीले इलाके में प्रभावी पहुंच की संभावना बिल्कुल खत्म हो गई थी. कहने को तो 2003 में इस क्षेत्र में दोनों देशों ने युद्धविराम लागू कर दिया था, लेकिन कारगिल घुसपैठ के बाद से दोनों सेनाएं अब वहां से पीछे हटने को तैयार नहीं हैं. इस कारण अब तक दोनों मुल्कों के 2 हजार से ज्यादा सैनिक यहां जान गंवा चुके हैं. पर किसी युद्ध में नहीं, बल्कि फ्रास्टबाइट की समस्या होने, ऑक्सीजन की कमी, हिमस्खलन में दब जाने और दूसरे प्राकृतिक कारणों से. जंग के बिना ही जिस इलाके में सैनिक अपनी जान गंवाते रहे हैं.
साफ है कि ऐसे इलाके में कुदरत सबसे बड़ी दुश्मन है. ऐसे में किसी भी नजरिये से अक्लमंदी यही है कि यहां कायम बेकार की तनातनी से पीछा छुड़ाया जाए. पर सैनिक यदि वहां रहते भी हैं तो अच्छा होगा कि उन्हें सिर्फ कुदरत के हवाले नहीं छोड़ा जाए. उन्हें वातानुकूलित चौकियां, शरीर को गर्म रखने वाले आधुनिक उपकरण के साथ-साथ पड़ोसी मुल्क की भाषा से भी लैस किया जाए ताकि उनकी सैन्य हलचलों पर बारीक नजर रखी जा सके. चीनी सरहद पर तैनात सैनिकों को मंडारिन (चीन की भाषा) सिखाने का मकसद यही है, इसी तरह पश्तो आदि भाषाएं भी उन्हें सिखाई जाएं.
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